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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 45
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः
    3

    स॒मु॒द्रोऽसि॒ नभ॑स्वाना॒र्द्रदा॑नुः श॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑ मा॒रु॒तोऽसि म॒रुतां॑ ग॒णः श॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑ऽव॒स्यूर॑सि॒ दुव॑स्वाञ्छ॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रः। अ॒सि॒। नभ॑स्वान्। आ॒र्द्रदानु॒रित्या॒र्द्रऽदा॑नुः। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। मयो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑। मा॒रु॒तः। अ॒सि॒। म॒रुता॑म्। ग॒णः। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑। अ॒व॒स्यूः। अ॒सि॒। दुव॑स्वान्। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्रोसि नभस्वानार्द्रदानुः शम्भूर्मयोभूरभि मा वाहि स्वाहा । मारुतो सि मरुताङ्गणः शम्भूर्मयोभूरभि मा वाहि स्वाहावस्यूरसि दुवस्वाञ्छम्भूर्मयोभूरभि मा वाहि स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रः। असि। नभस्वान्। आर्द्रदानुरित्यार्द्रऽदानुः। शम्भूरिति शम्ऽभूः। मयोभूरिति मयःऽभूः। अभि। मा। वाहि। स्वाहा। मारुतः। असि। मरुताम्। गणः। शम्भूरिति शम्ऽभूः। मयोभूरिति मयःऽभूः। अभि। मा। वाहि। स्वाहा। अवस्यूः। असि। दुवस्वान्। शम्भूरिति शम्ऽभूः। मयोभूरिति मयःऽभूः। अभि। मा। वाहि। स्वाहा॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 45
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यस्त्वं नभस्वानार्द्रदानुः समुद्र इवासि स स्वाहा शंभूर्मयोभूः सन्माभिवाहि, यस्त्वं मारुतो मरुतां गण इवासि स स्वाहा शम्भूर्मयोभूस्सन्माभिवाहि, यस्त्वं दुवस्वानवस्यूरिवासि स तस्मात् स्वाहा शम्भूर्मयोभूः सन्माभिवाहि॥४५॥

    पदार्थः

    (समुद्रः) समुद्द्रवन्त्यापो यस्मिन् सः (असि) (नभस्वान्) बहु नभो जलं विद्यते यस्मिन् सः। नभ इत्युदकनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१२) (आर्द्रदानुः) य आर्द्राणां गुणानां दानुर्दाता सः (शंभूः) यः शं सुखं भावयति सः (मयोभूः) यो मय आनन्दं भावयति सः (अभि) आभिमुख्ये (मा) माम् (वाहि) प्राप्नुहि (स्वाहा) सत्यया क्रियया (मारुतः) मरुतां पवनानामयं सम्बन्धी ज्ञाता (असि) (मरुताम्) विदुषाम् (गणः) समूहः (शम्भूः) शं कल्याणं भावयति सः (मयोभूः) सुखं भावुकः (अभि) (मा) (वाहि) (स्वाहा) (अवस्यूः) आत्मनोऽव इच्छुः (असि) (दुवस्वान्) दुवः प्रशस्तं परिचरणं विद्यते यस्य सः (शंभूः) (मयोभूः) (अभि) (मा) (वाहि) (स्वाहा)॥४५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या समुद्रवद्गम्भीरा रत्नाढ्या ऋजवो वायुवद् बलिष्ठा विद्वद्वत् परोपकारिणः स्वात्मवत् सर्वेषां रक्षकास्सन्ति, त एव सर्वेषां कल्याणं सुखं च कर्तुं शक्नुवन्ति॥४५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! जो तू (नभस्वान्) जिसके समीप जल और (आर्द्रदानुः) शीतल गुणों का देने वाला और (समुद्रः) जिसमें उलट-पलट जल गिरते उस समुद्र के समान (असि) है, वह (स्वाहा) सत्य क्रिया से (शम्भूः) उत्तम सुख और (मयोभूः) सामान्य सुख उत्पन्न कराने वाला होता हुआ (मा) मुझको (अभि, वाहि) सब ओर से प्राप्त हो तू (मारुतः) पवनों का सम्बन्धी जाननेहारा (मरुताम्) विद्वानों के (गणः) समूह के समान (असि) है, वह (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (शम्भूः) विशेष परजन्म के सुख और (मयोभूः) इस जन्म में सामान्य सुख का उत्पन्न करने वाला होता हुआ (मा) मुझ को (अभि, वाहि) सब ओर से प्राप्त हो, जो तू (दुवस्वान्) प्रशंसित सत्कार से युक्त (अवस्यूः) अपनी रक्षा चाहने वाले के समान (असि) है, वह (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (शम्भूः) विशेष सुख और (मयोभूः) सामान्य अपने सुख का उत्पन्न करनेहारा होता हुआ (मा) मुझ को (अभि, वाहि) सब ओर से प्राप्त हो॥४५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य समुद्र के समान गम्भीर और रत्नों से युक्त, कोमल पवन के तुल्य बलवान्, विद्वानों के तुल्य परोपकारी और अपने आत्मा के तुल्य सब की रक्षा करते हैं, वे ही सब के कल्याण और सुखों को कर सकते हैं॥४५॥

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    विषय

    राजा के समुद्र, मारुत और अवस्यूं नामों का रहस्य । पक्षान्तर में परमेश्वर की तुलना ।

    भावार्थ

    हे ( प्रजापते ) प्रजा के पालक ! राजन् तू (समुद्रः असि)समुद्र के समान गम्भीर, रत्नैश्वर्यों का आकर, ऐश्वयों का उत्पादक है । तू ( नभस्वान् ) जल से युक्त आकाश में व्यापक वायु के समान सब जलों वा प्राणों का आधार, वायु के समान वेगवान् है । तू (आर्द्रदानुः) जलप्रद मेघ के समान आर्द्र भाव से प्रजा पर ऐश्वर्यों का त्याग करने हारा, दयालु है । तू ( शंभूः ) जल के समान शान्तिदायक, ( मयोभूः ) तू परमेश्वर के समान आनन्द जनक है । तू ( मा ) मुझ प्रजाजन को ( अभि वाहि ) साक्षात् प्राप्त हो । तू ( मारुतः असि ) प्राणों में श्रेष्ठ आत्मा के समान वायु के समान तीव्रगामी शत्रुमारक सेनापतियों, का भी स्वामी है । तू ( मरुतां गणः ) प्राणों के गण के समान स्वयं विद्वानों का आश्रय, उनमें मुख्यरूप से गणना योग्य है । तू ( अवस्युः ) प्रजा की रक्षा करने का इच्छुक और ( दुवस्वान् ) उत्तम सेवा करने योग्य है । तू ( शंभूः ) शांति का जनक ( मयोभूः ) सुखों का उत्पादक होकर (मा अभि वाहि ) मुझे प्राप्त हो ( स्वाहा ) हमारी यह प्रार्थना स्वीकार हो । परमेश्वर के विषय में विशेषण स्पष्ट हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्देवता । अष्टिः । मध्यमः ॥

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    विषय

    प्रभु की ओर

    पदार्थ

    १. गतमन्त्रों की भावना के अनुसार अपने ज्ञान व बल का वर्धन करनेवाला व्यक्ति अपने जीवन को कैसा बनाता है? प्रभु प्रेरणा करते हैं कि (समुद्रः असि) = [स- मुद्] तू सदा प्रसन्नता के साथ रहता है। तेरा जीवन आनन्दमय होता है। सांसारिक सुख-दुःखों में, ज्ञान के कारण समवृत्तिवाला होकर तू अपने मनःप्रसाद को नष्ट नहीं होने देता। २. नभस्वान् = [क] [नभस्वान्=Both the worlds, Heaven and Earth] इस मानस प्रसाद व शारीरिक स्वास्थ्य के कारण ही जीवन को सुन्दर बनाकर तू उभय लोककल्याण को सिद्ध करता है। इस लोक के अभ्युदय व परलोक के निःश्रेयसवाला होता है। [ख] (नभस्वान्) = [नभ् = to kill ] तू नभस्वाला होता है, अर्थात् तू बुराई को मूल में ही समाप्त करनेवाला होता है [Nip the evil in the bud] ३. इस प्रकार बुराइयों को समाप्त करके तू अपने जीवन में अच्छाइयों को पनपानेवाला (आर्द्रदानुः) = [आर्द्र ददाति इति] सदा औरों के प्रति दयार्द्र हृदय को प्राप्त करानेवाला होता है। तेरे जीवन में 'मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा' रूप अत्यन्त कोमल गुणों का विकास व प्रकाश हो उठता है। अब तू ४. (शम्भूः) = ऐहिक सुख की भावना करनेवाला [शम्भू ऐहिकं सुखं भावयति प्रापयति] होता है तथा साथ ही (मयोभूः) = [पारलौकिकं सुखं भावयति] परलोक के सुख का भी साधन करता है। ५. ऐसा तू (मा अभिवाहि) = मेरी ओर आ। इसके लिए (स्वाहा) = तुझे स्व का त्याग करना होगा, अर्थात् प्रभु को वही प्राप्त करता है जो [क] प्रसन्न मनवाला [ख] अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों को सिद्ध करनेवाला तथा बुराइयों को समाप्त करके [ग] मैत्री, करुणा, मुदिता, व उपेक्षा आदि आर्द्र [प्रीतिपूर्ण] गुणों को समाज में प्राप्त करानेवाला होता है तथा जो [घ] शान्ति व कल्याण के भावन के लिए प्रयत्नशील होता है। ६. (मारुतः असि) = [ मरुत:- मनुष्याः] तू सदा मनुष्यों का हित करनेवाला है, तेरा कोई भी कार्य प्रजा-पीड़न के लिए नहीं होता और (मरुतां गणः) = [मरुतः प्राणाः] प्राणों का तू गण-पुञ्ज बनता है। प्राणपुञ्ज बनकर ही तो लोकहित-साधन सम्भव होता है। प्राणपुञ्ज बनकर तू ७. (शम्भूः मयोभूः) = ऐहिक व आमुष्मिक कल्याण को सिद्ध करता है, ऐसा तू (मा अभि वाहि) = मेरी ओर आ। (स्वाहा) = स्वार्थ को समाप्त कर और मुझे पा। प्रभु को वही पाता है जो मानवहित के लिए अपने को खपा देता है। इस हित के लिए ही प्राण-साधना करके सशक्त बना रहता है। ८. (अवस्यूः असि) = [ अव : सीव्यति इति अवस्यूः ] तू अपने जीवन में रक्षण- तन्तु का सन्तान करनेवाला है। तू कभी अपने को वासनाओं का शिकार नहीं होने देता। ९. (दुवस्वान्) = वासनाओं से रक्षण के लिए ही तू [दुव:-परिचरण] प्रभु की परिचर्यावाला होता है। । प्रभु का उत्तमता से उपासन करता हुआ तू वासनाओं से अभिभूत नहीं होता । १०. ऐसा तू (शम्भूः मयोभूः) = शान्ति व कल्याण को उत्पन्न करता हुआ (मा अभिवाहि) = मेरी ओर आ और इसके लिए (स्वाहा) = स्व को समाप्त कर दे। अपने को मेरे प्रति अर्पण कर दे।

    भावार्थ

    भावार्थ-सुख प्रभु-प्राप्ति में है। प्रभु प्राप्ति 'समुद्र - नभस्वान्- आर्द्रदान्-मारुत-मरुतां गण-अवस्यू-दुवस्वान् व शम्भू तथा मयोभू को ही होती है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोमालंकार आहे. जी माणसे समुद्राप्रमाणे गंभीर, रत्नासारखी गुणवान व मृदू अंतःकरणाची आणि वायूप्रमाणे बलवान, विद्वानांप्रमाणे परोपकारी व आपल्या आत्म्याप्रमाणे सर्वांचे रक्षण करणारी असतात ती सर्वांचे कल्याण करून सर्वांना सुखी करू शकतात.

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    विषय

    पुढे पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (अती व गुणवान विद्यावान मनुष्याकडून सुखाची, रक्षणाची इच्छा करणारा कोणी याचक प्रार्थना करीत आहे) हे विद्यावान महोदय, आपण जवळ (नभस्वान्) भरपूर पाणी असून आपण (आर्द्रदानु:) जलवत शीतलत्व देणारे आहात. आपण (समुद्र:) भरती-ओहोटी येणार्‍या समुद्राप्रमाणे (सहाय्यक व कुणाशील) (असि) आहात. असे आपण (स्वाहा) सत्य क्रिया करून (शम्भू:) उत्तम सुखदायक आणि (मयोभू:) सामान्य (भौतिक) सुख देणारे होऊन (मा) मला (अज याचकासाठी) (आणि, वाहि) सर्व दिशांकडून प्राप्त होणारे (संकटप्रसंगी धावून येणारे) व्हा. आपण (मारूत:) वायूविषयीचे सर्व ज्ञान असणारे आणि (मरूताम्) विद्वज्जनांच्या (गण:) समूहाप्रमाणे (एकटे असून अनेक विद्वानांपेक्षा अधिक (असि) आहात. (असे आपण (स्वाहा) आपल्या प्रत्यक्ष क्रिया वा सहकार्याने आमच्यासाठी (शम्भू:) पुढील जन्मात विशेष सुख देणारे आणि (मयोभू:) या जन्मात सामान्य सुख देणारे होत (मा) मला (अभि राहि) सर्वात: प्राप्त व्हा. आपण (दुवस्थान्) प्रशंसनीय आणि सत्करणीय असून (अवस्यू:) रक्षण इच्छिणार्‍याला अनुकूल (असि) आहात. ते आपण (स्वाहा) उत्तम व्यवहाराद्वारे (शम्भू:) विशेष सुखकारी आणि (मयोभू:) सामान्य (भौतिक सुख देणारे होत (मा) मला (अभि, वाहि) सर्वत: प्राप्त व्हा (माझ्याप्रत आपले आचरण सदैव सुखकारी असावे, ही प्रार्थना) ॥45॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जो माणूस समुद्राप्रमाणे गंभीर आणि (गुणरुप) रत्नांनी परिपूर्ण आहे, वायू प्रमाणे बलवान असून परोपकारी आहे, तसेच आपल्याप्रमाणे सर्वांचे रक्षण करतो, तोच माणूस सर्वांचे कल्याण करू शकतो, सुख देऊ शकतो. ॥45॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person thou art the master of voluminous water, the bestower of calm nature, and deep like the ocean. Being the nice giver of happiness and blessings come unto me from all sides. O Knower of the science of air, thou art foremost amongst the group of the learned. Being the nice giver of happiness in this life and the life to come, come unto me from all sides. Thou art worthy of laudable honour and desirous of self protection. Being the nice giver of happiness and blessing, come unto me from all sides.

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    Meaning

    Prajapati, father and guardian of creation, vast and deep as the ocean, oceans roll around in you. Lord of spaces and spatial waters, showering the earth with rain and the mind with virtue, you are peace yourself and the giver of peace, bliss yourself and the giver of bliss. Come and fold me into bliss all round. Tempestuous lord of the winds, lord of the stormy scholars of the world, you are goodness yourself and the giver of universal good. You are prosperity and joy yourself and the giver of universal joy and prosperity. Come and fold me into the tempestuous storm of knowledge and discovery all round. You are the supreme lord of protection and universal help. You are both lord and object of honour and worship, peace and joy yourself and the giver of joy and total freedom. Come and fold me into the bliss of worship and acceptance all round.

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    Translation

    O Lord of creatures, you are an ocean (in the sky), full of vapour, giving moisture. You are bestower of joy here and happiness hereafter. May you come towards me. Svaha. You belong to the cloud-bearing winds; you are a troop of the winds, bestower of joy here and happiness hereafter. May you come towards me. Svaha You are provider of protection, full of food, bestower of joy here and happiness hereafter. May you come towards me. Svaha. (1)

    Notes

    Samudrah, समुद्रवन्ति आपः यस्मिन् सः समुद्रः, to which the waters go and are held therein; the ocean; the ocean in the sky. Nabhasvan,नभ: इति उदकनाम; (Nigh. I. 12). Nabha means water; full of water vapour. Ardradānuh, आर्द्रं वृष्ट्यवश्यायादिकंददाति यः सः, one that gives moisture in the form of rain, dew etc. Abhi mã vähi, blow favourably towards me. Sambhüḥ, bestower of bliss in this world. Mayobhūḥ, bestower of bliss in the yonder world. Avasyüh, अवं रक्षणं तत् सीव्यति यः सः अवस्यू:, provider of protection. Duvasvān, दुवः अन्नं विद्यते यस्य स दुवस्वान्, having plenty of food.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বন্! তুমি (নভস্বান্) যাহার সমীপ জল (আর্দ্রদানুঃ) এবং শীতল গুণগুলির প্রদাতা (সমুদ্রঃ) এবং যন্মধ্যে এদিক ওদিক তাড়িত হইয়া জল পতিত হয়, সেই সমুদ্রের সমান উহা (স্বাহা) সত্য ক্রিয়া দ্বারা (শম্ভু) উত্তম সুখ এবং (ময়োভুঃ) সামান্য সুখ উৎপন্নকারী হইয়া (মা) আমাকে (অভি, বাহি) সব দিক দিয়া প্রাপ্ত হও । তুমি (মারুতঃ) পবনের সম্বন্ধে যাহারা জ্ঞাত সেই সব (মরুতাম্) বিদ্বান্দিগের (গণঃ) সমূহের সমান (অসি) আছো উহা (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (শম্ভুঃ) বিশেষ পরজন্মের সুখ এবং (ময়োভূঃ) এই জন্মে সামান্য সুখের উৎপন্নকারী হইয়া (মা) আমাকে (অভি, বাহি) সব দিক দিয়া প্রাপ্ত হও, যাহা তুমি (দুবস্বান্) প্রশংসিত সৎকারযুক্ত (অবসূ্যঃ) স্বীয় রক্ষাকামীর সমান (অসি) আছো উহা (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (শম্ভূঃ) বিশেষ সুখ এবং (ময়োভুঃ) সামান্য নিজের সুখ উৎপন্নকারী হইয়া (মা) আমাকে (অভি, বাহি) সব দিক দিয়া প্রাপ্ত হও ॥ ৪৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্যগণ সমুদ্র সমান গম্ভীর এবং রত্নযুক্ত কোমল পবনতুল্য বলবান্ বিদ্বান্দিগের তুল্য পরোপকারী এবং নিজ আত্মাতুল্য সকলের রক্ষা করেন তাহারাই সকলের কল্যাণ ও সুখকে করিতে পারে ॥ ৪৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স॒মু॒দ্রো᳖ऽসি॒ নভ॑স্বানা॒র্দ্রদা॑নুঃ শ॒ম্ভূর্ম॑য়ো॒ভূর॒ভি মা॑ বাহি॒ স্বাহা॑ । মা॒রু॒তো᳖ऽসি ম॒রুতাং॑ গ॒ণঃ শ॒ম্ভূর্ম॑য়ো॒ভূর॒ভি মা॑ বাহি॒ স্বাহা॑ऽব॒সূ্যর॑সি॒ দুব॑স্বাঞ্ছ॒ম্ভূর্ম॑য়ো॒ভূর॒ভি মা॑ বাহি॒ স্বাহা॑ ॥ ৪৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সমুদ্রোऽসীত্যস্য শুনঃশেপ ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদষ্টিশ্ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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