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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 32
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - अन्नवान् विद्वान् देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
    2

    वाजो॑ नः स॒प्त प्र॒दिश॒श्चत॑स्रो वा परा॒वतः॑। वाजो॑ नो॒ विश्वै॑र्दे॒वैर्धन॑सातावि॒हाव॑तु॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाजः॑। नः॒। स॒प्त। प्र॒दिशः॒। इति॑ प्र॒दिशः॑। चत॑स्रः। वा॒। प॒रा॒वत॒ इति॑ परा॒ऽवतः॑। वाजः॑। नः॒। विश्वैः॑। दे॒वैः। धन॑साता॒विति॒ धन॑ऽसातौ। इ॒ह। अ॒व॒तु॒ ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाजो नः सप्त प्रदिशश्चतस्रो वा परावतः । वाजो नो विश्वैर्देवैर्धनसाताविहावतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाजः। नः। सप्त। प्रदिशः। इति प्रदिशः। चतस्रः। वा। परावत इति पराऽवतः। वाजः। नः। विश्वैः। देवैः। धनसाताविति धनऽसातौ। इह। अवतु॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 32
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वान् प्रजाश्च कथं वर्त्तेरन्नित्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यथा विश्वैर्देवैः सह वर्त्तमानो वाज इह धनसातौ नोऽवतु वा, नो वाजः सप्त प्रदिशः परावतश्चतस्रो दिशोऽवतु, तथैता यूयं सततं रक्षत॥३२॥

    पदार्थः

    (वाजः) अन्नादिः (नः) अस्मान् (सप्त) (प्रदिशः) प्रदिश्यन्ते ताः (चतस्रः) पूर्वाद्या दिशः (वा) चार्थे (परावतः) दूरस्थाः (वाजः) शास्त्रबोधो वेगो वा (नः) अस्माकम् (विश्वैः) अखिलैः (देवैः) विद्वद्भिः (धनसातौ) धनानां संविभक्तौ (इह) अस्मिंल्लोके (अवतु) रक्षतु प्राप्नोतु वा॥३२॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः पुष्कलान्नेन स्वेषां पालनमस्यां पृथिव्यां सर्वासु दिक्षु सत्कीर्त्तिः स्यादिति सज्जना आदर्त्तव्याः॥३२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् और प्रजाजन कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो! जैसे (विश्वैः) सब (देवैः) विद्वानों के साथ (वाजः) अन्नादि (इह) इस लोक में (धनसातौ) धन के विभाग करने में (नः) हम लोगों को (अवतु) प्राप्त होवे (वा) अथवा (नः) हम लोगों का (वाजः) शास्त्रज्ञान और वेग (सप्त) सात (प्रदिशः) जिनका अच्छे प्रकार उपदेश किया जाय, उन लोक-लोकान्तरों वा (परावतः) दूर-दूर जो (चतस्रः) पूर्व आदि चार दिशा उनको पाले अर्थात् सब पदार्थों की रक्षा करे, वैसे इनकी रक्षा तुम भी निरन्तर किया करो॥३२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि बहुत अन्न से अपनी रक्षा तथा इस पृथिवी पर सब दिशाओं में अच्छी कीर्त्ति हो, इस प्रकार सत्पुरुषों का सन्मान किया करें॥३२॥

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    विषय

    ऐश्वर्य का विस्तार और राष्ट्र की रक्षा ।

    भावार्थ

    (नः) हमारा ( वाजः ) अन्न, शास्त्रज्ञान, ऐश्वर्य और पराक्रम (सप्त ) सातों ( प्रदिशः ) प्रदेशों अर्थात् लोकों और (परावतः ) दूर-दूर तक फैली ( चतस्रः प्रदिशः ) चारों दिशाओं को प्राप्त हो । ( नः वाजः ) हमारा ज्ञान, ऐश्वर्य और पराक्रम ( धनसातौ ) धन, ऐश्वर्य के विभाग और प्राप्त करने में ( इह ) इस राष्ट्र में भी ( विश्वैः देवैः सह ) समस्त विद्वानों, शासक विजयी पुरुषों द्वारा ( अवतु ) हमारी रक्षा करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वाजो अन्न तद्वान् विद्वान् देवता । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    विषय

    वाज:

    पदार्थ

    १. (नः) = हमारा (वाजः) = बल (सप्त प्रदिश:) = सात प्रकृष्ट दिशाओं को 'पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण व भूः भुवः स्वः ' इन सात लोकों में रहनेवाले प्राणियों को वा तथा (चतस्रः) = चार (परावतः) = दूरस्थ लोकों 'महः, जनः तपः व सत्यम्' नामवाले लोकों में रहने वालों को अवतु-रक्षित करनेवाला हो। मेरी शक्ति सदा सभी की रक्षा में विनियुक्त हो । २. 'वाज:' का अर्थ 'अन्न' भी होता है। मेरा अन्न केवल मेरा ही पोषण करनेवाला न हो। मैं 'केवलादी' 'बनकर' 'केवलाघ' न हो जाऊँ। अग्निहोत्र द्वारा मैं इस आहुति को सूर्य तक पहुँचाकर सभी लोकों में रहनेवाले प्राणियों को उसमें भागी करूँ। ३. (नः) = हमारी (वाजः) = यह शक्ति व अन्न (विश्वैः देवैः) = सब दिव्य गुणों के साथ (धनसातौ) = धन की प्राप्ति होने पर (इह) = इस मानव-जीवन में अवतु सभी को प्रीणित करनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारी शक्ति व धन 'सातों लोकों व चारों दिशाओं को तृप्तकरनेवाले हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    आपले रक्षण व्हावे म्हणून माणसांनी भरपूर अन्न प्राप्त करावे, तसेच या पृथ्वीवर सर्व दिशांना आपली कीर्ती पसरावी यासाठी सत्पुरुषांचा सन्मान करावा.

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    विषय

    विद्वज्जनांनी व प्रजाजनांनी कसे आचरण करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वज्जनहो, ज्यायोगे (विश्वै:) सर्व (देवै:) विद्वज्जनांसह (न:) आम्हा (प्रजाजनांना) (इह) या लोकामधे (वाज:) अन्नधान्य आणि (धनसातौ) धनप्राप्ती (अवतु) प्राप्त होईल (तुम्ही तसे यत्न करा-तुमच्या यत्नामुळे आम्हाला अन्न-धान्य व धन प्राप्त होवो, ही कामना) (वा) अथवा ज्यायोगे (न:) आम्हाला (वाज:) शास्त्र-ज्ञान आणि प्रगती प्राप्त होईल, वा आमची प्रगती (सप्त) सात (प्रदिश:) दिशांमधे म्हणजे लोक-लोकांतरापर्यंत तसेच (परावत:) दूरदूरपर्यंत होईल (तुम्ही विद्वज्जनांनी तसे आचरण करावे) तसेच (चतुस्र:) पूर्व आदी चारही दिशा आमचे पालन करतील वा आमच्यासाठी त्या सर्व आवश्यक पदार्थांचे रक्षण करील, ते ते आचरण वा प्रयत्न तुम्ही सदैव करीत रहा ॥32॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी ते ते यत्न करावेत की ज्यामुळे अधिकाधिक अन्न-धान्य उत्पन्न होईल आणि पृथ्वीवर सर्वत्र त्यांची (परिश्रमीजन वा उद्योगी) म्हणून कीर्ती पसरेल. त्यामुळे त्यांचे स्वत:चे रक्षणही होईल. ॥32॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May our strength fill the seven regions and the four distant quarters. In this world may our knowledge of religious lore guard us with all the learned persons in the acquisition of wealth.

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    Meaning

    May our food and energy, power and prosperity, spread over the seven regions of the world, and may it extend even beyond in all the four directions. And may our power and knowledge, with the noblest people of the world, guide and protect us here in the acquisition and distribution of the wealth of life.

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    Translation

    May our power spread over the seven (worlds) and the four mid-regions and even beyond them. May our strength protect us here in the process of gaining wealth along with all the enlightened ones. (1)

    Notes

    Sapta pradiśaḥ, seven regions. Maludhara suggests that pra indicates the three worlds (लोकत्रयं), i. e. thivi, antariksa and dyauḥ, and four regions, East, South, West and North. Parāvataḥ, even beyond those. Mahidhara interprets it as distant ones and explains that mahaḥ, janaḥ, tapaḥ and satyam are the four distant worlds beyond the three worlds. Dhanasātau, in the process of obtaining wealth; or, in the distribution of wealth.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ বিদ্বান্ প্রজাশ্চ কথং বর্ত্তেরন্নিত্যাহ ॥
    এখন বিদ্বান্ ও প্রজাগণ কীরকম আচরণ করিবে এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বান্গণ! যেমন (বিশ্বৈঃ) সমস্ত (দেবৈঃ) বিদ্বান্গণের সঙ্গে (বাজঃ) অন্নাদি (ইহ) এই লোকে (ধনসাতৌ) ধনের বিভাগ করিতে (নঃ) আমাদিগকে (অবতু) প্রাপ্ত হউক (বা) অথবা (নঃ) আমাদিগের (বাজঃ) শাস্ত্রজ্ঞান ও বেগ (সপ্ত) সাত (প্রদিশঃ) যাহার উত্তম প্রকার উপদেশ করা হয় সেই সব লোক-লোকান্তরের অথবা (পরাবতঃ) দূরে দূরে যাহা (চতস্রঃ) পূর্বাদি চারি দিক তাহাদেরকে পালন করে অর্থাৎ উক্ত সব পদার্থ সমূহের রক্ষা করে সেইরূপ ইহাদের রক্ষা তোমরাও নিরন্তর করিতে থাক ॥ ৩২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, বহু অন্ন দ্বারা নিজের রক্ষা তথা এই পৃথিবীর উপর সকল বিদ্যায় সুকীর্ত্তি হয় এই ভাবে সৎপুরুষদের সম্মান করিতে থাক ॥ ৩২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বাজো॑ নঃ স॒প্ত প্র॒দিশ॒শ্চত॑স্রো বা পরা॒বতঃ॑ ।
    বাজো॑ নো॒ বিশ্বৈ॑র্দে॒বৈর্ধন॑সাতাবি॒হাব॑তু ॥ ৩২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বাজো ন ইত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । অন্নবান্ বিদ্বান্ দেবতা । নিচৃদার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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