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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 59
    ऋषिः - विश्वकर्मा ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    3

    ए॒तꣳ स॑धस्थ॒ परि॑ ते ददामि॒ यमा॒वहा॑च्छेव॒धिं जा॒तवे॑दाः। अ॒न्वा॒ग॒न्ता य॒ज्ञप॑तिर्वो॒ऽअत्र॒ तꣳ स्म॑ जानीत पर॒मे व्यो॑मन्॥५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तम्। स॒ध॒स्थेति॑ सधऽस्थ। परि॑। ते॒। द॒दा॒मि॒। यम्। आ॒वहादित्या॒ऽवहा॑त्। शे॒व॒धिमिति॑ शेव॒ऽधिम्। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। अ॒न्वा॒ग॒न्तेत्य॑नुऽआऽग॒न्ता। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। वः॒। अत्र॑। तम्। स्म॒। जा॒नी॒त॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन् ॥५९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतँ सधस्थ परि ते ददामि यमावहाच्छेवधिञ्जातवेदाः । अन्वागन्ता यज्ञपतिर्वो अत्र तँ स्म जानीत परमे व्योमन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एतम्। सधस्थेति सधऽस्थ। परि। ते। ददामि। यम्। आवहादित्याऽवहात्। शेवधिमिति शेवऽधिम्। जातवेदा इति जातऽवेदाः। अन्वागन्तेत्यनुऽआऽगन्ता। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। वः। अत्र। तम्। स्म। जानीत। परमे! व्योमन्निति विऽओमन्॥५९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 59
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे ईश्वरं जिज्ञासवो मनुष्याः! हे सधस्थ! च जातवेदा यज्ञपतिर्ये शेवधिमावहादेतमत्र परमे व्योमन् व्याप्तं परमात्मानमहं ते तथा परिदादाम्यन्वागन्ताऽहं यं वो युष्मभ्यमुपदिशानि स्म, तं यूयं विजानीत॥५९॥

    पदार्थः

    (एतम्) पूर्वोक्तम् (सधस्थ) समानस्थान (परि) सर्वतः (ते) तुभ्यम् (ददामि) (यम्) (आवहात्) समन्तात् प्राप्नुयात् (शेवधिम्) शेवं सुखं धीयते यस्मिँस्तं निधिम् (जातवेदाः) जातप्रज्ञो वेदार्थवित् (अन्वागन्ता) धर्ममन्वागच्छति (यज्ञपतिः) यज्ञस्य पालक इव वर्त्तमानः (वः) युष्मभ्यम् (अत्र) (तम्) (स्म) एव (जानीत) (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) व्योम्न्याकाशे॥५९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्वनुकूलमाचरन्ति, ते सर्वव्यापिनमन्तर्यामिणमीश्वरं प्राप्तुमर्हन्ति॥५९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे ईश्वर के ज्ञान चाहने वाले मनुष्यो! और हे (सधस्थ) समान स्थान वाले सज्जन! (जातवेदाः) जिसको ज्ञान प्राप्त है, वह वेदार्थ को जानने वाला (यज्ञपतिः) यज्ञ की पालना करने वाले के समान वर्त्तमान पुरुष (यम्) जिस (शेवधिम्) सुखनिधि परमेश्वर को (आवहात्) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे, (एतम्) इसको (अत्र) इस (परमे) परम उत्तम (व्योमन्) आकाश में व्याप्त परमात्मा को मैं (ते) तेरे लिये जैसे (परि, ददामि) सब प्रकार से देता हूं, उपदेश करता हूं, (अन्वागन्ता) धर्म्म के अनुकूल चलनेहारा मैं (वः) तुम सबों के लिये जिस परमेश्वर का (स्म) उपदेश करूं, (तम्) उसको तुम (जानीत) जानो॥५९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्वानों के अनुकूल आचरण करते हैं, वे सर्वव्यापी अन्तर्यामी परमेश्वर के पाने को योग्य होते हैं॥५९॥

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    विषय

    विद्वानों के समक्ष राजा को राष्ट्र के कोष का समर्पण । अध्यात्मरहस्य ।

    भावार्थ

    हे ( सधस्थ ) एकत्र बैठने के स्थान, सभाभवन, एवं सभा में विराजमानं विद्वान्, शासक जनो ! ( जातवेदाः ) ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले समृद्ध पुरुष, ( यम ) जिस ( शेवधिम् ) धन-कोश को ( आव- हात्) राष्ट्र से या व्यापारादि से प्राप्त करके राजकोष में जमा कराते हैं ( एतम् ) उसको (ते) तेरे अधीन (परिददामि ) प्रदान करता हूँ । ( यज्ञपतिः ) यज्ञरूप राष्ट्रव्यवस्था का पालन करने वाला राजा ( वः अनु आगन्ता ) आप लोगों के अनुकूल ही चलेगा । ( अत्र ) यहां, अब (तम् ) उसको ही ( परमे व्योमन् ) परम, सर्वोत्कृष्ट विविध राष्ट्र कार्यों के रक्षक पद पर स्थित हुआ ( जानीत स्म ) जानो । शत० ९ ।५।१।४६॥ अध्यात्म में - जिस ज्ञान के खजाने को परमेश्वर या विद्वान् धारण करता है वह मैं जिज्ञासु जन को प्राप्त करता हूँ । यज्ञपतिः निष्ठ पुरुष तुमको परमात्मा के विषय में उचित उपदेश करे उसका ज्ञान करो ।

    टिप्पणी

    ५९ – 'सधस्थं' इति उवटाभिमतः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    सुख का निधि 'यज्ञ'

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि (एतम्) = इस यज्ञ को (सधस्थ) = मिलकर बैठने के स्थान में प्रातः-सायं उपस्थित होनेवाले (ते) = तेरे लिए (परि ददामि) = देता हूँ। वेद के अनुसार प्रत्येक घर में मुख्य कमरा 'हविर्धानम्' = अग्नि में हविर्द्रव्यों के डालने का, अर्थात् यज्ञ करने का होना चाहिए। इस 'अग्निहोत्र' का प्रातः - सायं घर में होना आवश्यक है। इस यज्ञवेदि में घर के सभी व्यक्तियों का उपस्थित होना आवश्यक है, अतः इस यज्ञवेदि को 'सधस्थ ' कहा जाता है। इसमें आकर नियम से बैठनेवाले व्यक्तियों को भी यहाँ 'सधस्थ' शब्द से सम्बोधन किया गया है। प्रभु कहते हैं कि हे सधस्थ ! इस यज्ञ को मैं तुझे देता हूँ। २. वस्तुत: यह यज्ञ क्या है? यह एक सर्वोत्तम निधि है (यम् शेवधिम्) = जिस सुख के कोश को (जातवेदाः) = सर्वज्ञ प्रभु [मैं]-ने (आवहात्) = तेरे लिए प्राप्त कराया है। अपनी अल्पदृष्टि के कारण तू सम्भवतः यज्ञ के लाभ को न देख सके, परन्तु प्रभु जानते हैं कि यह तेरे लिए 'इष्टकामधुक्' है। तू इस यज्ञ के द्वारा इहलोक व परलोक दोनों में अपना कल्याण सिद्ध कर पाएगा। ३. इस यज्ञ को जीवन का अङ्ग बनाने पर तू अपने पिता प्रभु की उपासना कर रहा होता है। प्रभु आदेश के पालन से उसका पूजन होता है। इसी बात को यहाँ मन्त्र के शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि (वः) = तुम्हें (अत्र) = यहाँ इस यज्ञशील जीवन में (यज्ञपतिः) = यज्ञों की रक्षा करनेवाला प्रभु अन्वागन्ता यज्ञों के सिद्ध होने पर प्राप्त होगा। यज्ञपति प्रभु की वस्तुतः यज्ञों से ही उपासना होती है, ('यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः') । ५. (तम्) = उस प्रभु को (परमे व्योमन्) = इस उत्कृष्ट हृदयदेश में स्थित तथा इस विस्तृत आकाश में व्याप्त हुआ हुआ (जानीत स्म) = निश्चय से जानो। यज्ञ के द्वारा जहाँ 'वायु-शुद्धि, नीरोगता व उत्तम अन्न की प्राप्ति' होती है, वहाँ 'सौमनस्य' का भी लाभ होता है और इस उत्तम निर्मल मन में ही प्रभु का दर्शन होता है। उस निर्मल मन में प्रभु का आभास मिलने पर उसकी महिमा सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है, कण-कण में प्रभु का दर्शन होने लगता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु ने जीव को सृष्टि के प्रारम्भ में ही यज्ञ को प्राप्त कराया है। यह यज्ञ जीव के लिए सुख की निधि है। इसके अपनाने पर ही वह उस प्रभु को प्राप्त कर पाता है जो प्रभु सर्वत्र होते हुए प्रसाद-युक्त मन में ही देखे जाते हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्वानांच्या अनुकूल आचरण करतात ती सर्वव्यापी परमेश्वराला प्राप्त करण्यायोग्य बनतात.

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    विषय

    पुनष्च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - ईश्वराच्या स्वरूपाविषयी जिज्ञासा असणार्‍या मनुष्यांनो आणि हे (सधस्थ) त्यांच्याच योग्यतेचे विद्वज्जनहो, एक (जातवेदा:) ज्ञानी आणि वेदवित् विद्वान (यज्ञपति:) यज्ञ करणारी व्यक्ती (यम्) ज्या (शेवधिम्) सुखानिधी परमेश्वराला (आवहात्) प्राप्त करते, (एतम्) त्या (अत्र) इथे (परमे) (व्योमन्) आकाशात वा सर्वत्र व्याप्त परमेश्वराविषयी मी (ते) तुम्हाला (परि, ददामि) पूर्णत: उपदेश करतो (अन्वागन्ता) धर्माप्रमाणे वागणारा मी (एक वेदज्ञ विद्वान) (व:) तुम्हा सर्व लोकांकरिता ज्या परमेश्वराविषयी (स्म) सांगत आहे (तम्) त्याला तुम्ही (जानीत) नीट जाणून घ्या. ॥59॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा जे लोक विद्वानाप्रमाणे सत्याचरण करतात, तेच सर्वव्यापी परमेश्वराला जाणण्यास वा प्राप्त करण्यास पात्र ठरतात ॥59॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ye seekers after God, and common run of mankind, I, the knower of the meanings of the Vedas, and guardian of sacrifice, having realised God, the treasure of happiness, preach unto ye, the true nature of God pervading this highest heaven. Know Him about Whom, I, the follower of religion, instruct thee.

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    Meaning

    Lovers of Divinity sitting in this heavenly home of yajna, I pass on to you this supreme treasure of knowledge and joy which Jataveda, Agni, and the devoted scholar of the Veda brought down hitherward from the highest heavens, and to which the yajamana also attains following upon the yajna. Know him, and know and experience that supreme presence and that supreme joy which abides in the highest heavens.

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    Translation

    O place of sacrifice, I hand over to you this treasure of happiness, which the ominscient one has brought. The sacrificer is to follow it here. Do not fail to recognize him in the highest celestial region. (1)

    Notes

    There are three variations of the text with the word सधस्य, सधस्थं and सधस्थाः (the last one in the Atharva veda, VI. 123. I). Sadhastha, O place of sacrifice. Also, O Sevadhim, सुखनिधिं, treasure of happiness. sacrificer. Anvägantā, अनु आगंता, coming just after you; following you. Yajnapatiḥ, यजमान:, the sacrificer. Jānita, recognize (him). Parame vyoman, उत्कृष्टे व्योम्नि, in the celestial region; in heaven.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ– হে ঈশ্বরের জ্ঞান কামনাকারী মনুষ্যগণ! এবং হে (সধস্থ) সমান স্থান যুক্ত সজ্জনগণ (জাতবেদাঃ) যাহারা জ্ঞান প্রাপ্ত করিয়াছে তাহারা বেদার্থের জ্ঞাতা (য়জ্ঞপতিঃ) যজ্ঞকে পালনকারীর সমান বর্ত্তমান পুরুষ (য়ম্) যে (শেবধিম্) সুখনিধি পরমেশ্বরকে (আবহাৎ) উত্তম ভাবে প্রাপ্ত হইবে (এতম্) ইহাকে (অত্র) এই (পরমে) পরম উত্তম (ব্যোমন্) আকাশে ব্যাপ্ত পরমাত্মাকে আমি (তে) তোমার জন্য যেমন (পরি, দদামি) সকল প্রকারে দিতেছি, উপদেশ করিতেছি (অন্বাগন্তা) ধর্ম্মানুকূল গমনশীল আমি (বঃ) তোমাদের সকলের জন্য যে পরমেশ্বরের (স্ম) উপদেশ করি, উহা তোমরাও (জানীত) জানিও ॥ ৫ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্র বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য বিদ্বান্দিগের অনুকূল আচরণ করে তাহারা সর্বব্যাপী অন্তর্যামী পরমেশ্বর লাভ করার যোগ্য হইয়া থাকে ॥ ৫ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    এ॒তꣳ স॑ধস্থ॒ পরি॑ তে দদামি॒ য়মা॒বহা॑চ্ছেব॒ধিং জা॒তবে॑দাঃ ।
    অ॒ন্বা॒গ॒ন্তা য়॒জ্ঞপ॑তির্বো॒ऽঅত্র॒ তꣳ স্ম॑ জানীত পর॒মে ব্যো॑মন্ ॥ ৫ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    এতমিত্যস্য বিশ্বকর্মা ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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