यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 12
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - वाग्देवता
छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
2
सि॒ꣳह्यसि॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य॒स्यादित्य॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्यसि ब्रह्म॒वनिः॑ क्षत्र॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्यसि सुप्रजा॒वनी॑ रायस्पोष॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्यस्याव॑ह देवान् यज॑मानाय॒ स्वाहा॑ भू॒तेभ्य॑स्त्वा॥१२॥
स्वर सहित पद पाठसि॒ꣳही। अ॒सि॒। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ॒दित्य॒वनि॒रित्या॑दित्य॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। ब्र॒ह्म॒वनि॒रिति॑ ब्रह्म॒ऽवनिः॑। क्ष॒त्र॒वनि॒रिति॑ क्षत्र॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। सु॒प्र॒जा॒वनि॒रिति॑ सुप्रजा॒ऽवनिः॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनि॒रिति॑ रायस्पोष॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ। वह॒। दे॒वान्। यज॑मानाय। स्वाहा॑। भू॒तेभ्यः॑। त्वा॒ ॥१२॥
स्वर रहित मन्त्र
सिँह्यसि स्वाहा सिँह्यस्यादित्यवनिः स्वाहा सिँह्यसि ब्रह्मवनिः क्षत्रवनिः स्वाहा सिँह्यसि सुप्रजावनी रायस्पोषवनिः स्वाहा सिँह्यस्यावह देवान्यजमानाय स्वाहा । भूतेभ्यस्त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
सिꣳही। असि। स्वाहा। सिꣳही। असि। आदित्यवनिरित्यादित्यऽवनिः। स्वाहा। सिꣳही। असि। ब्रह्मवनिरिति ब्रह्मऽवनिः। क्षत्रवनिरिति क्षत्रऽवनिः। स्वाहा। सिꣳही। असि। सुप्रजावनिरिति सुप्रजाऽवनिः। रायस्पोषवनिरिति रायस्पोषऽवनिः। स्वाहा। सिꣳही। असि। आ। वह। देवान्। यजमानाय। स्वाहा। भूतेभ्यः त्वा॥१२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
अहं याऽऽदित्यवनिः सिंही स्वाहा(स्य)स्ति, या ब्रह्मवनिः सिंही स्वाहाऽ(स्य)स्ति, या क्षत्रवनिः सिंही स्वाहा(स्य)स्ति, या रायस्पोषवनिः सिंही स्वाहा(स्य)स्ति, या सुप्रजावनिः सिंही स्वाहा, या यजमानाय देवानां वह प्रापयति, तां भूतेभ्यो यज्ञान्निःसृजामि॥१२॥
पदार्थः
(सिंही) अविद्याहन्त्री (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (स्वाहा) वाक् (सिंही) क्रूरत्वादिदोषनाशिका (असि) अस्ति (आदित्यवनिः) या आदित्यान् मासान् वनति संभजति सा (स्वाहा) ज्योतिःशास्त्रसंस्कारयुक्ता वाणी (सिंही) बलेन जाड्यत्वविनाशिनी (असि) अस्ति (ब्रह्मवनिः) यया ब्रहाविदो मनुष्या ब्रह्म परमात्मानं वेदं वा वनन्ति संभजन्ति सा (क्षत्रवनिः) यया क्षत्रं राज्यं धनुर्विद्या शूरवीरान् पुरुषान् वा वनन्ति संभजन्ति सा (स्वाहा) अध्ययनाध्यापनराजव्यवहारकुशला वाक् (सिंही) चोरदस्य्वन्यायप्रलयकारिणी (असि) अस्ति (सुप्रजावनिः) यया शोभनाः प्रजा वनति संभजति सा (रायस्पोषवनिः) यया रायो विद्याधनसमूहस्य पोषं पुष्टि वनति संभजति सा (स्वाहा) व्यवहारेण धनप्रापिका (सिंही) सर्वदुःखप्रणाशिका (असि) अस्ति (आ) समन्तात् (वह) वहति प्रापयति (देवान्) विदुषो दिव्यगुणानृतून् भोगान् वा (यजमानाय) यजति विदुषः पूजयति सद्गुणान् संगच्छते ददाति वा तस्मै (स्वाहा) दिव्यविद्यासम्पन्ना (भूतेभ्यः) मनुष्यादिप्राणिभ्यः। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। २। ११-१३) व्याख्यातः॥१२॥
भावार्थः
अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (यज्ञात्) (निः) (सृजामि) इति पदत्रयमनुवर्त्तते। मनुष्यैरध्ययनादिनेदृग्-लक्षणां वेदादिवाणीं प्राप्यैतां सर्वेभ्यो मनुष्येभ्योऽध्याप्यानन्दयितव्याः॥१२॥
विषयः
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
अहं याऽऽदित्यवनिः या आदित्यान्मासान्वनति=संभजति सा, सिंही क्रूरत्वादिदोषनाशिका स्वाहा ज्योतिःशास्त्रसंस्कारयुक्ता वाणी असि=अस्ति, या ब्रह्मवनिः यया ब्रह्मविदो मनुष्याः ब्रह्म=परमात्मानं वेदं वा वनन्ति=संभजन्ति सा, सिंही बलेन जाड्यत्वविनाशिनी स्वाहा अध्ययनाध्यापनराजव्यवहारकुशला वाक् असि=अस्ति, या क्षत्रवनिः यया क्षत्रं=राज्यं धनुर्विद्यां शूरवीरान् पुरुषान्वा वनन्ति=संभजन्ति सा सिंही चोरदस्य्वन्यायप्रलयकारिणी स्वाहा अध्ययनाध्यापनराजव्यवहारकुशला वाक् असि=अस्ति, या रायस्पोषवनिः यया रायो=विद्याधनसमूहस्य पोषं=पुष्टिं वनति=सम्भजति सा सिंही सर्वदुःखप्रणाशिका स्वाहा व्यवहारेण धनप्रापिका असि=अस्ति, या सुप्रजावनिः यया शोभनां प्रजां वनति=सम्भजति सा सिंहीअविद्याहन्त्री स्वाहा दिव्य-विद्यासम्पन्ना, या यजमानाय यजति=विदुषः पूजयति, सद्गुणान् संगच्छते ददाति वा तस्मै देवान् विदुषो दिव्यगुणानृतून्भोगान्वा आवह=प्रापयतिसमन्ताद् वहति, तां भूतेभ्यः मनुष्यादिप्राणिभ्यः यज्ञान्नि:सृजामि ।। ५ । १२ ।। [अनुवृत्तिमाह--]
पदार्थः
(सिंही) अविद्याहन्त्री (असि) अस्ति । अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (स्वाहा) वाक् (सिंही) क्रूरत्वादिदोषनाशिका (असि) अस्ति (आदित्यवनिः) या आदित्यान्मासान्वनति=संभजति सा (स्वाहा) ज्योतिःशास्त्रसंस्कारयुक्ता वाणी (सिंही) बलेन जाड्यत्वविनाशिनी (असि) अस्ति (ब्रह्मवनिः) यया ब्रह्मविदो मनुष्या ब्रह्म=परमात्मानं वेदं वा वनन्ति=संभजन्ति सा (क्षत्रवनिः) यया क्षत्रं=राज्यं धनुर्विद्यां शूरवीरान्पुरुषान्वा वनन्ति=संभजन्ति सा (स्वाहा) अध्ययनाध्यापनराजव्यवहारकुशला वाक् (सिंही) चोरदस्य्वन्यायप्रलयकारिणी (असि) अस्ति (सुप्रजावनिः) यया शोभनाः प्रजा वनति=संभजति सा (रायस्पोषवनिः) यया रायो= विद्याधनसमूहस्य पोषं=पुष्टिं वनति=संभजति सा (स्वाहा) व्यवहारेण धनप्रापिका (सिंही) सर्वदुःखप्रणाशिका (असि) अस्ति (आ) समन्तात् (वह) वहति=प्रापयति (देवान्) विदुषो=दिव्यगुणानृतून्भोगान्वा (यजमानाय) यजति=विदुषः पूजयति सद्गुणान् संगच्छते ददाति वा तस्मै (स्वाहा) दिव्यविद्यासंपन्ना (भूतेभ्यः) मनुष्यादिप्राणिभ्यः॥ अयं मंत्रः शत० ३।५।२। ११-१३ व्याख्यातः ।।१२।।
भावार्थः
अत्र पूर्वस्यान्मन्त्रात् (यज्ञात्) (निः) (सृजामि) इति पदत्रयमनुवर्त्तते।
विशेषः
गोतमः। वाक्=वाणी।। भुरिग्ब्राह्मी पंक्तिः। पंचमः ।।
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
मैं जो (आदित्यवनिः) मासों का सेवन और (सिंही) क्रूरत्व आदि दोषों को नाश करने वाली (स्वाहा) ज्योतिःशास्त्र से संस्कारयुक्त वाणी (असि) है, जो (ब्रह्मवनिः) परमात्मा, वेद और वेद के जानने वाले मनुष्यों के सेवन और (सिंही) बल के जाड्यपन को दूर करने वाली (स्वाहा) पढ़ने-पढ़ाने व्यवहारयुक्त वाणी (असि) है, जो (क्षत्रवनिः) राज्य, धनुर्विद्या और शूरवीरों का सेवन और (सिंही) चोर, डाकू अन्याय को नाश करने वाली (स्वाहा) राज्य-व्यवहार में कुशल वाणी (असि) है, जो (रायस्पोषवनिः) विद्या धन की पुष्टि का सेवन और (सिंही) अविद्या को दूर करने वाली (स्वाहा) वाणी (असि) है, जो (सुप्रजावनिः) उत्तम प्रजा का सेवन और (सिंही) सब दुःखों का नाश और (स्वाहा) व्यवहार से धन को प्राप्त कराने वाली वाणी (असि) है और जो (यजमानाय) विद्वानों के पूजन करने वाले यजमान के लिये (स्वाहा) दिव्य विद्या सम्पन्न वाणी (देवान्) विद्वान् दिव्यगुण वा भोगों को (आवह) प्राप्त करती है (त्वा) उसको (भूतेभ्यः) सब प्राणियों के लिये (यज्ञात्) यज्ञ से (निःसृजामि) सम्पादन करता हूं॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (यज्ञात्) (निः) (सृजामि) इन तीनों पदों की अनुवृत्ति है। मनुष्यों को उचित है कि पढ़ना-पढ़ाना आदि से इस प्रकार लक्षणयुक्त वाणी प्राप्त कर, इसे सब मनुष्यों को पढ़ा कर सदा आनन्द में रहें॥१२॥
विषय
वेद व आश्रम चतुष्टय
पदार्थ
१. गत मन्त्र में वर्णित आचार्यकुल में पढ़ाई जानेवाली वेदवाणी का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ( सिंही असि ) = तू सब दोषों की हिंसा करनेवाली है और ज्ञान से सींचनेवाली है। ( स्वाहा ) = यह बात सचमुच ठीक कही गई है। तू ( सिंही असि ) = दोषों की हिंसा व ज्ञान का सेचन करनेवाली है और इस प्रकार ( आदित्यवनिः ) = प्रकाश का सेवन करानेवाली है। सब सद्गुणों का आदान करानेवाली है [ आदानात् ] ( स्वाहा ) = यह बात ठीक कही गई है।
२. हे वेदवाणि! तू ब्रह्मचर्याश्रम में ( सिंही ) = दोषहिंसक ज्ञानसेचक होकर ( ब्रह्मवनिः क्षत्रवनिः ) = ज्ञान का सेवन करानेवाली व बल को देनेवाली ( असि ) = है। ( स्वाहा ) = यह बात ठीक कही गई है। ज्ञान को तो यह देती ही है, व्यसनों से बचाकर शक्ति भी प्राप्त कराती है।
३. अब गृहस्थ में यह वेदवाणी ( सिंही असि ) = दोषहिंसक, ज्ञानसेचक होती हुई ( सुप्रजावनिः ) = उत्तम प्रजा को प्राप्त करानेवाली और ( रायस्पोषवनिः ) = धन का पोषण प्राप्त करानेवाली है। ( स्वाहा ) = यह बात ठीक ही कही गई है। ज्ञान से मनुष्य सद्गृहस्थ बनता है, सुन्दर सन्तान का निर्माण कर पाता है तथा यह ज्ञान उसे धन कमाने की योग्यता भी देता है।
४. अब जीवन के तृतीयाश्रम में इस वेदवाणी से कहते हैं कि तू ( सिंही असि ) = दोषनाशक, ज्ञानसेचक है। तू ( देवान् ) = त्यागमय, ज्ञानप्रधान जीवन बितानेवाले वनस्थों को ( यजमानाय ) = इस सृष्टि-यज्ञ के प्रवर्तक प्रभु के लिए ( आवह ) = ले-चल। ये वनस्थ लोग वेदवाणी का सदा अध्ययन करते हुए [ स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात् ] प्रभु के समीप पहुँचने का प्रयत्न करें। ( स्वाहा ) = कितनी सुन्दर यह बात है!
५. इस प्रभु के उपासक वनस्थ को अब संन्यासी बनना है और वह कहता है कि हे वेदवाणि! अब मैं ( त्वा ) = तुझे ( भूतेभ्यः ) = सब प्राणियों के हित के लिए उन्हें प्राप्त कराता हूँ। मैं तेरे ही प्रचार में जीवनयापन करता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ — वेदज्ञान को प्राप्त करके हम प्रथमाश्रम में विज्ञान व बल का, दूसरे में सुसन्तान व धन का, तीसरे में प्रभु-प्राप्ति व चौथे में लोकहित का साधन करें।
विषय
वाणी और राजव्यवस्था का वर्णन ।
भावार्थ
हे वाक् ! तू ( स्वाहा ) उत्तम रूप से अचारण करने योग्य और ( सिंही असि) अविद्या का नाश करनेवाली होने से 'सिंही' है । तू ( सिंही असि ) 'सिंही' क्रूरता अर्थात् अज्ञान का नाशक है तू ( आदित्य- चनिः ) बारह मासों को प्राप्त होनेवाली, उनका वर्णन करनेवाली ज्योतिष् विद्या जिस प्रकार उनका उत्तम वर्णन करती है । उसी प्रकार प्रजा के भीतर, कर- आदान करने वाले १२ प्रकार के राजाओं को उचित रीति से वर्णन करनेवाली ( स्वाहा ) वाणी है। तू भी ( सिंही असि ) उनके क्रूरता का नाश करती है। तू (ब्रह्मवनि: ) ब्राह्मणों को प्राप्त होती और ( क्षत्रवनिः ) क्षत्रियों को प्राप्त होती है। तू भी ( स्वाहा ) उत्तम उपदेशमयी वाणी है। और ( सिंही असि ) चोर दस्युओं के नाशक होने और अज्ञान का नाश करनेवाली होने से या शत्रुओं के परभव करनेवाली होने से नीतिरूप 'सिंही' है। तू ( सिंही ) प्रजा के समस्त दुःखदायी चोर आदि दुष्ट और रोगों के नाश के उपाय बतलाने वाली होने से सिंहीरूप से ही ( सुप्रजा- बनी : ) उत्तम प्रजाओं को प्राप्त कराने वाली ( असि ) है | तू ( स्वाहा ) उत्तम उपदेश देनेवाली होकर ( रायस्पोषवनिः ) ऐश्वर्य समृद्धि को प्राप्त करानेवाली है। (सिंही असि) तू सब दुःखों को नाश करनेवाली 'सिंही है। तू ( स्वाहा ) उत्तम ज्ञानोपदेश करनेवाली होकर ( यजमानाय ) विद्वानों के पूजा सत्कार करने हारे दानशील पुरुष के समीप ( देवान् ) विद्वान्, ज्ञानी, देव पुरुषों को प्राप्त कर । हे वाणि ! मैं तुझे ( भूतेभ्यः )समस्त प्राणियों के उपकार के लिये प्रयोग करूं ॥
राजशक्ति या व्यवस्था के पक्ष में-- तू शत्रु नाशक सिंही है । ( स्वाहा ) उत्तम रीति से प्रयोग की जाकर ( आदित्यवनिः ) तू आदित्य - विद्वानों या आदित्य अर्थात् धनसंग्रही वैश्यों को वृत्ति देनेवाली है । तू ( ब्रह्मवनिः क्षत्रवनिः ) ब्राह्मणों और क्षत्रियों की वृत्ति देती है । तू ( सुप्रजावनिः रायस्पोषवनिः) उत्तम प्रजाओं का वृत्ति देनेवाली, धन समृद्धि के देनेवाली है । तू सर्वदा नाशक 'सिंही' है । तू ( स्वाहा ) उत्तम रोति से प्रयोग की जाकर ही (यजमानाय ) दानशील राजा के पास (देव) विद्वानों विजयी सुयोद्धाओं को प्राप्त कराती है ( भूतेभ्यः त्वा) तेरा उत्तम उपयोग में समस्त प्राणियों के हित के लिये करूं । राज शासनव्यवस्था भी एक विद्या या दण्ड नीति है वही यहां सिंही, बाग में कही गई है ।।
यदसुराणां लोकानादत्त तस्मादादित्यः । ते० ३ । ७ । २१ । २ ॥ एष उद्यन् एव क्षत्रं वीर्यमादत्त तस्मादादित्यो नाम श० २।१।२ । १८ ॥
असौ वा आदित्यः पाप्मनोऽपहन्ता श० १३।७ । १ । ११ ॥ आदित्य लोकस्तद्दिव्यं क्षत्रम् | सा श्रीः । तद् ब्रध्नस्य विष्टपम् तत् स्वाराज्यमुच्यते ॥
टिप्पणी
टिप्पणी १२- भूतेभ्यः स्रुक् । सर्वा ० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।वाक् स्रुक् च देवते । भुरिग् ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
वह वाणी कैसी है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
मैं जो (आदित्यवनिः) आदित्य अर्थात् मासों का विभाग करने वाली (सिंही) क्रूरता आदि दोषनाशक (स्वाहा) ज्योतिः शास्त्र के संस्कारों से युक्त वाणी (असि) है, और जो (ब्रह्मवनिः) ब्रह्मवेत्ता मनुष्य जिस से ब्रह्म का वा वेद का सेवन करते हैं वह (सिंही) बल से मूर्खता को नष्ट करने वाली (स्वाहा) पठन-पाठन और राजव्यवहार में कुशल वाणी (असि) है, और जो (क्षत्रवनिः) राज्य, धनुर्विद्या अथवा शूरवीर पुरुषों का सेवन करने वाली (सिंही) चोर, डाकू और अन्याय को मिटाने वाली (स्वाहा) पठन-पाठन और राजव्यवहार में चतुर वाणी (असि) है, और जो (रायस्पोषवनिः) विद्या आदि उत्तम धनों की पुष्टि का सेवन करने वाली (सिंही) सब दुःखों का नाश करने वाली (स्वाहा) व्यवहार से धन प्राप्त कराने वाली वाणी है, और-- जो (सुप्रजावनि:) उत्तम प्रजा का सेवन करने वाली (सिंही) अविद्या का नाश करने वाली (स्वाहा) दिव्य विद्या से युक्त जो (यजमानाय) देवों के पूजक, उत्तम गुणों से संगति करने वाले, दानी यजमान के लिए (देवान्) विद्वान् के दिव्यगुणों को, ऋतुओं वा भोगों को (आवह) चहुँ ओर से प्राप्त कराती है, उस वाणी को (भूतेभ्यः) मनुष्य आदि प्राणियों के लिए (यज्ञात्) अध्ययन-अध्यापन आदि से (निः-सृजामि) सिद्ध करता हूँ ।। ५ । १२ ।। सब मनुष्य अध्ययन आदि से मन्त्रोक्त लक्षणों से युक्त वेद आदि की वाणी को प्राप्त करके और इसे सब मनुष्यों को पढ़ाकर सबको आनन्दित करें ।। ५ । १२ ।।
प्रमाणार्थ
(असि) इस मन्त्र में 'असि पद पर सर्वत्र व्यत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।५।२।११-१३) में की गई है ।। ५ । १२ ।।
भाष्यसार
वाणी कैसी है—ज्योतिःशास्त्र के संस्कारों से युक्त वाणी क्रूरता आदि दोषों को नष्ट करने वाली तथा मासों का विभाग करती है। अध्ययन-अध्यापत एवं राज-व्यवहार में कुशल वाणी बलपूर्वक जड़ता (मूर्खता) का विनाश करने वाली तथा परमात्मा और वेद को प्राप्त कराती है तथा चोर, दस्यु और अन्याय का प्रलय करती है, राज्य, धनुर्विद्या और शूरवीर पुरुषों की रक्षा करती है। व्यवहार से धन को प्राप्त कराने वाली वाणी सब दुःखों की नाशक तथा विद्या और धन को परिपुष्ट करती है। दिव्य विद्या से सम्पन्न वाणी अविद्या का नाशक और प्रजा को श्रेष्ठ बनाती है। यजमान के लिये दिव्यगुणों, ऋतुओं और दिव्य-भोगों को प्राप्त कराती है। अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ से सब मनुष्य इस वेदोक्त वाणी को प्राणियों के कल्याण के लिये सिद्ध करें तथा इसका नित्य उपदेश करें ।। ५ । १२ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील (यज्ञात्) (निः) (सृजामि) या तीन पदांची अनुवृत्ती आहे. माणसांनी अध्ययन व अध्यापनाद्वारे अनेक प्रकारच्या लक्षणांनी युक्त (वेद) वाणीची प्राप्ती करून घेऊन इतरांना शिकवावे व आनंदात राहावे.
विषय
पुनश्च, ती वाणी कशी आहे तिचे गुण वैशिष्यें पुढील मंत्रात सांगितली आहेत -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (याज्ञिक जन म्हणत आहे-) (आदित्यवनिः) बारा आदित्यांदवारे सेवनीय (वर्षाच्या बारा महिन्यात वापरली जाणारी, (सिंघी) क्रूरत्व आदी दोषांचा नाश करणारी व (स्वाहा) ज्योतिः शास्त्राने सुसंस्कारित केलेली वाणी आहे, मी त्या वाणीचा सर्व प्राण्यांसाठी वापर करीत (असि) आहे, तसेच जी (ब्रह्मवनिः) परमेश्वर परमात्म्याची वेदवाणी आणि वेदज्ञ विद्वांनांद्वारे प्रयुक्त होणारी वाणी आहे ती (सिंही) अज्ञानाला बलपूर्वक दूर करते आणि (स्वाहा) अध्ययन आणि अध्यापनासाठी प्रयुक्त होणारी व्यवहार्य वाणी (असि) आहे, तिचा मी सर्व प्राण्यांसाठी वापर करीत आहे. (क्षत्रवनिः) राज्य, धनुर्विद्या आणि शूरवीरजनांद्वारे प्रद्युक्त होणारी (सिंही) चोर -डाकू व अन्यायीजनाचा नाश करणारी व (स्वाहा) राज्य-व्यवहारात प्रयुक्त अशी जी समर्थ वाणी (असि) आहे, तिचा मी सर्व प्राण्यांसाठी प्रयोग करीत आहे. (रायस्पोषवनिः) विद्या व धनाचे पोषण करणारी (सिंही) अविद्येचा नाश करणारी जी वाणी (असि) आहे, त्या वाणीचा, तसेच (सुप्रजावनिः) प्रजाजनांचा उत्कर्ष करणारी आणि (सिंही) दुष्टांचा नाश करणारी व (सवाहा) कर्म, श्रम आणि व्यवहाराद्वारे प्राप्त होणारी जी वाणी (असि) आहे, तिचा मी सर्व प्राण्यांसाठी प्रयोग करीत आहे. (यजमानाय) विद्वज्जनांचे पूजन करणार्या यजमानाला जी वाणी (स्वाहा) दिव्यगुणांने संपन्न करते आणि (देवान्) विद्वानांना गुण व सुखभोग (आवह) प्राप्त करविते, (त्वा) त्या वाणीला मी याज्ञिकजन (भूतेभ्यंः) सर्व प्राण्यांसाठी (यज्ञात्) यज्ञाद्वारे (निःसृजामि) प्राप्त करतो. (यज्ञाद्वारे याज्ञिक जन अशी वाणी प्राप्त करू शकतो की जी अज्ञानाला दूर करते, (ज्ञानमयवाणी) अन्यायाचा नाश करते (उग्रवाणी), धन-संपदा प्राप्त करविते (मधुर व सत्य वाणी) तसेच गुणसंपन्न करते (विनयपूर्ण वाणी) ॥12॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रापासून (यज्ञात्) (निः) (मृजामि) या तीन शब्दांची अनुवृत्ती केली आहे. मनुष्यांनी अध्ययन, अध्यापन आदी द्वारे वर वर्णित वाणी प्राप्त करून सर्व मनुष्यांना तशी (ज्ञानमय, उग्र, धनदा आणि मधुर) वाणी शिकवावी आणि सर्वांना आनंदित असावे. ॥12॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O speech, thou art the dispeller of ignorance. O speech, hallowed by astronomy, remover of the weakness of ferocity, thou describest the twelve months of the year. Thou, attained to by the seekers after God and the Vedas, by the heroes expert in military science, art the remover of unwisdom. Thou art the remover of thieves and robbers, and the giver of noble offspring, and abundant wealth. Thou art the killer of all miseries. Endowed with knowledge, thou makest the worshipper obtain good qualities. I utilise thee through sacrifice (yajna) for the good of humanity.
Meaning
Language is sacred and it is power. It is the treasure of science, science of the stars and light especially of the sun in the zodiacs. It is the language of the Veda and eliminates ignorance. It is the language of governance, administration and military science and fights out injustice and crime. It is the language of economics, commerce, finance and management and removes poverty and suffering. It is the language of social science and human welfare and eliminates anti¬ social forces. For the yajamana it brings spiritual knowledge and noble virtues. I serve and develop this noble language through yajna for the enlightenment and happiness of all the living beings.
Translation
You are the killer lioness. Svaha. (1) You are the lioness pleasing to suns. Svaha. (2) You are the lioness, granter of intellect and granter of valour. Svaha. (3) You are the lioness, granter of good offsprings, wealth and nourishment. Svaha. (4) You are the lioness; bring the enlightened ones here for the sacrificer. Svaha. (5) You to all the creatures. (6)
Notes
Adityavanih, pleasing (o suns. Brahmavanih, granter of intellect. Bhütebhyah, fo all the creatures; to all the beings.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ সা কীদৃশীত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সে কেমন এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–(আদিত্যবনিঃ) মাংসগুলির সেবন এবং সিংহী ক্রূরত্বাদি দোষগুলির নাশকারিণী (স্বাহা) জ্যোতিঃশাস্ত্র দ্বারা সংস্কারযুক্ত যে বাণী (অসি) আছে (ব্রহ্মবনিঃ) পরমাত্মা বেদ ও বেদজ্ঞাতা মনুষ্যদিগের সেবন এবং (সিংহী) বলের জাড্যতা নিবারণকারী (স্বাহা) পঠন-পাঠন ব্যবহারযুক্ত যে বাণী (অসি) আছে, (ক্ষত্রবণিঃ) রাজ্য ধনুর্বিদ্যা ও শূরবীরদিগের সেবন এবং (সিংহী) চোর-ডাকাইত-অন্যায় নাশকারিণী (স্বাহা) রাজ্য ব্যবহারে যে কুশল বাণী (অসি) আছে, (রায়স্পোষবণিঃ) বিদ্যা ধনের পুষ্টির সেবন এবং (সিংহী) অবিদ্যা দূরকারিণী (স্বাহা) যে বাণী আছে, (সুপ্রজাবণিঃ) উত্তম প্রজার সেবন এবং (সিংহী) সকল দুষ্টদিগের নাশ এবং (স্বাহা) ব্যবহার দ্বারা ধন প্রাপ্ত করাইবার যে বাণী (অসি) আছে এবং (য়জমানায়) বিদ্বান্দিগের পূজনকারী যজমানের জন্য (স্বাহা) দিব্য বিদ্যা সম্পন্ন যে বাণী (দেবান্) বিদ্বান্ দিব্যগুণ বা ভোগসমূহকে (আবহ) প্রাপ্ত করে (ত্বা) উহাকে (ভূতেভ্যঃ) সকল প্রাণিদিগের জন্য (য়জ্ঞাৎ) যজ্ঞ দ্বারা (নিঃসৃজামি) আমি সম্পাদন করি ॥ ১২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে পূর্ব মন্ত্র দ্বারা (য়জ্ঞাৎ) (নিঃ) (সৃজামি) এই তিনটি পদের অনুবৃত্তি হইয়াছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, পঠন-পাঠনাদি দ্বারা এই প্রকার লক্ষণযুক্ত বাণী প্রাপ্ত করিয়া ইহা সব মনুষ্যকে পড়াইয়া সর্বদা আনন্দে থাকিবে ॥ ১২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সি॒ꣳহ্য᳖সি॒ স্বাহা॑ সি॒ꣳহ্য॒স্যাদিত্য॒বনিঃ॒ স্বাহা॑ সি॒ꣳহ্য᳖সি ব্রহ্ম॒বনিঃ॑ ক্ষত্র॒বনিঃ॒ স্বাহা॑ সি॒ꣳহ্য᳖সি সুপ্রজা॒বনী॑ রায়স্পোষ॒বনিঃ॒ স্বাহা॑ সি॒ꣳহ্য᳖স্যা ব॑হ দে॒বান্ য়জ॑মানায়॒ স্বাহা॑ ভূ॒তেভ্য॑স্ত্বা ॥ ১২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সিᳬंহ্যসীত্যস্য গোতম ঋষিঃ । বাগ্দেবতা । ভুরিগ্ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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