Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 5

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 33
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    3

    स॒मु॒द्रोऽसि वि॒श्वव्य॑चाऽअ॒जोऽस्येक॑पा॒दहि॑रसि बु॒ध्न्यो वाग॑स्यै॒न्द्रम॑सि॒ सदोऽ॒स्यृत॑स्य द्वारौ॒ मा मा॒ सन्ता॑प्त॒मध्व॑नामध्वपते॒ प्र मा॑ तिर स्व॒स्ति मे॒ऽस्मिन् प॒थि दे॑व॒याने॑ भूयात्॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रः। अ॒सि॒। वि॒श्वव्य॑चा॒ इति॑ वि॒श्वऽव्य॑चाः। अ॒जः। अ॒सि॒। एक॑पा॒दित्येक॑ऽपात्। अहिः॑। अ॒सि॒। बु॒ध्न्यः᳖। वाक्। अ॒सि॒। ऐ॒न्द्रम्। अ॒सि॒। स॒दः॑। अ॒सि॒। ऋत॑स्य। द्वा॒रौ॒। मा। मा॒। सम्। ता॒प्त॒म्। अध्व॑नाम्। अ॒ध्व॒प॒त॒ इत्य॑ध्वऽपते। प्र। मा॒। ति॒र। स्व॒स्ति। मे॒। अ॒स्मिन्। प॒थि। दे॒व॒यान॒ इति॑ देव॒ऽयाने॑। भू॒या॒त् ॥३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्रोसि विश्वव्यचाऽअजो स्येकपादहिरसि बुध्न्यो वागस्यैन्द्रमसि सदोस्यृतस्य द्वारौ मा मा सन्ताप्तमध्वनामध्वपते प्र मातिर स्वस्ति मेस्मिन्पथि देवयाने भूयान्मित्रस्य मा॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रः। असि। विश्वव्यचा इति विश्वऽव्यचाः। अजः। असि। एकपादित्येकऽपात्। अहिः। असि। बुध्न्यः। वाक्। असि। ऐन्द्रम्। असि। सदः। असि। ऋतस्य। द्वारौ। मा। मा। सम्। ताप्तम्। अध्वनाम्। अध्वपत इत्यध्वऽपते। प्र। मा। तिर। स्वस्ति। मे। अस्मिन्। पथि। देवयान इति देवऽयाने। भूयात्॥३३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 33
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनर्यथेश्वरो वर्त्तते तथा विद्वद्भिरपि भवितव्यमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यथेश्वरः समुद्रो विश्वव्यचा अस्ति, स एकपादजोऽस्ति, अहिर्बुध्न्योऽसि। हे अध्वपदे! यथैन्द्रसदोऽस्ति यथा स ऋतस्य द्वारौ संतापयति, तथा मा संतापयेः। यथा चास्मिन् देवयाने पथि स्वस्ति भूयात् तथा त्वं सततं प्रयतस्व॥३३॥

    पदार्थः

    (समुद्रः) समुद्द्रवन्ति भूतानि यस्मात् सः (असि) (विश्वव्यचाः) यथा विश्वस्मिन् व्यचो व्याप्तिर्यस्यास्ति तथा (अजः) यः कदाचिन्न जायते (असि) (एकपात्) एकस्मिन् पादे विश्वं यस्यास्ति (अहिः) समस्तविद्यासु व्यापनशीलः (असि) (बुध्न्यः) बुध्नेऽन्तरिक्षे भवः। बुध्नमन्तरिक्षं भवति। (निरु॰१०।४४) (वाक्) यथा वक्ति सा (असि) (ऐन्द्रम्) परमैश्वर्य्यस्येदम् (असि) (सदः) सीदन्ति यस्मिंस्तत् (असि) (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य व्यवहारस्य वा (द्वारौ) बाह्याभ्यन्तरस्थे मुखे (मा) माम् (मा) निषेधे (सम्) सम्यगर्थे (ताप्तम्) तपेः, अत्र लिङर्थे लुङ्। (अध्वनाम्) यथा विद्याधर्मशिल्पमार्गाणाम् (अध्वपते) धर्मव्यवहारमार्गपालयितः (प्र) प्रकृष्टार्थे (मा) माम् (तिर) तारय (स्वस्ति) सुखम् (मे) मम (अस्मिन्) प्रत्यक्षे (पथि) मार्गे (देवयाने) यथा विदुषां गमनागमनाधिकरणे तथा (भूयात्) भवतु॥३३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा कृपायमाण ईश्वरोऽस्मिन् संसारे सर्वेषां जीवानां शिक्षादिकर्मसु प्रवर्त्तते तथा विद्वद्भिरपि वर्त्तितव्यम्। यथेश्वरस्य जगत्कारणस्य जीवानां वाऽनादित्वाज्जन्मराहित्येनाविनाशित्वं वर्त्तते, तथा स्वस्य बोध्यं यथा परमेश्वरस्य कृपोपासनासृष्टिविद्यापुरुषार्थैः सहैव वर्त्तमानानां मनुष्याणां विद्वन्मार्गप्राप्तिस्तत्र सुखं च जायते तथा नेतरेषामिति॥३३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    पुनर्यथेश्वरो वर्त्तते तथा विद्वद्भिरपि भवितव्यमित्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    यथेश्वरः समुद्रः समुद्द्रवन्ति भूतानि यस्मात् सः, विश्वव्यचाः विश्वस्मिन् व्यचो=व्याप्तिर्यस्यास्ति सः [असि]= अस्ति, स एकपाद् एकस्मिन् पादे विश्वं यस्यास्ति, अजः यः कदाचिन्न जायते [असि]=अस्ति, अहिः समस्तविद्यासु व्यापनशीलः बुध्न्यः बुध्ने=अन्तरिक्षे भवः [असि]=अस्ति, [वाग्] यया वक्ति सा [असि]=अस्ति । हे [अध्वनाम्] यथा विद्याधर्मशिल्पमार्गाणां अध्वपते! धर्मव्यवहारमार्गपालयितः! यथैन्द्रं परमैश्वरस्येदं सदः सीदन्ति यस्मिँस्तत् [असि]=अस्ति, यथा स ऋतस्य सत्यस्य=कारणस्य व्यवहारस्य वा द्वारौ बाह्याभ्यन्तरस्थे मुखे न सन्तापयतितथा [मा] मां मा [सं ताप्तम्]=सन्तापयेः न सन्तपे:, [मा] मां [प्र।तिर] प्रकृष्टं तारय । यथा चास्मिन् प्रत्यक्षेदेवयाने विदुषां गमनागमनाधिकरणे पथि मार्गेस्वस्ति सुखंभूयात् भवतु तथा त्वं सततं प्रयतस्व ।। ५ । ३३ ।। [यथेश्वर:......अहिः [असि]=अस्ति, [वाग्] [असि]=अस्ति]

    पदार्थः

    (समुद्रः) समुद्द्रवन्ति भूतानि यस्मात् सः (असि) (विश्वव्यचाः) यथा विश्वस्मिन् व्यचोव्याप्तिर्यस्यास्ति तथा (अजः) यः कदाचिन्न जायते (असि) (एकपात्) एकस्मिन् पादे विश्वं यस्यास्ति (अहिः) समस्तविद्यासु व्यापनशीलः (असि) (बुध्न्यः) बुध्नेऽन्तरिक्षे भवः। बुध्नमन्तरिक्षं भवति ।। निरु० १० । ४४ ॥ (वाक्) यथा व्यक्ति सा (असि) (ऐन्द्रम्) परमैश्वर्य्यस्येदम् (असि) (सदः) सीदन्ति यस्मिँस्तत् (असि) (ॠतस्य) सत्यस्य कारणस्य व्यवहारस्य वा (द्वारौ) बाह्याभ्यन्तरस्थे मुखे (मा) माम् (मा) निषेधे (सम्) सम्यगर्थे (ताप्तम्) तपेः। अत्र लिङर्थे लुङ् (अध्वानम्) यथो विद्याधर्मशिल्पमार्गाणाम् (अध्वपते) धर्मव्यवहारमार्गपालयितः (प्र) प्रकृष्टार्थे (मा) माम् (तिर) तारय (स्वस्ति) सुखम् (मे) मम (अस्मिन्) प्रत्यक्षे (पथि) मार्गे (देवयाने) यथा विदुषां गमनागमनाधिकरणे तथा (भूयात्) भवतु ।। ३३।।

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः ॥ यथा कृपयमाण ईश्वरोऽस्मिन् संसारे सर्वेषां जीवानां शिक्षादिकर्मसु प्रवर्त्तते तथा विद्वद्भिरपि वर्त्तितव्यम्। [यथा स ऋतस्य द्वारौ न सन्तायपति तथा [मा] मा [सं ताप्तम्]] यथेश्वरस्य जगत्कारणस्य जीवानां वाऽनादित्वाज्जन्मराहित्येनाविनाशित्वं वर्त्तते तथा स्वस्य बोध्यम् । [यथा चास्मिन् देवयाने पथि स्वस्ति भूयात्, तथा त्वं सततं प्रयतस्व] यथा परमेश्वरस्य कृपोपासनासृष्टिविद्यापुरुषार्थैः सहैव वर्तमानानां मनुष्याणां विद्वन्मार्गप्राप्तिस्तत्र सुखं च जायते; तथा नेतरेषा- मिति ।। ५ । ३३ ।।

    विशेषः

    मधुच्छन्दाः । अग्नि:=ईश्वरः।। ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर जैसा ईश्वर है वैसा विद्वानों को भी होना अवश्य है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जैसे परमेश्वर (समुद्रः) सब प्राणियों का गमनागमन कराने हारे (विश्वव्यचाः) जगत् में व्यापक और (अजः) अजन्मा (असि) है, (एकपात्) जिसके एक पाद में विश्व है (अहिः) वा व्यापनशील (बुध्न्यः) तथा अन्तरिक्ष में होनेवाला (असि) है और (वाक्) वाणीरूप (असि) है, (ऐन्द्रम्) परमैश्वर्य्य का (सदः) स्थान रूप है और (ऋतस्य) सत्य के (द्वारौ) मुखों को (मा संताप्तम्) संताप कराने वाला नहीं है (अध्वपते) हे धर्म-व्यवहार के मार्गों को पालन करने हारे विद्वानो! वैसे तुम भी संताप न करो। हे ईश्वर! (मा) मुझ को (अध्वनाम्) धर्मशिल्प के मार्ग से (प्रतिर) पार कीजिये और (मे) मेरे (अस्मिन्) इस (देवयाने) विद्वानों के जाने-आने योग्य (पथि) मार्ग में जैसे (स्वस्ति) सुख (भूयात्) हो, वैसा अनुग्रह कीजिये॥३३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर, जगत् का कारण तथा जीव इनका अनादि होने के कारण जन्म न होने से अविनाशीपन है। परमेश्वर की कृपा, उपासना, सृष्टि की विद्या वा अपने पुरुषार्थ के साथ वर्त्तमान हुए मनुष्यों को विद्वानों के मार्ग की प्राप्ति और उस में सुख होता है और आलसी मनुष्यों को नहीं होता॥३३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ऋत के दो द्वार

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! आप ( समुद्रः असि ) = [ समुद्द्रवन्ति भूतानि यस्मात्—द० ] सब भूतों के उत्पत्तिस्थान हैं ( विश्वव्यचाः ) = [ विश्वस्मिन् व्यचो व्याप्तिर्यस्य—द० ] आप सर्वत्र व्याप्तिवाले हैं। अथवा [ सर्वे देवाः सम्यग् उत्कर्षेण द्रवन्ति अत्र—म० ] सब देवता उत्कर्ष से आपमें ही सम्यग् गति करते हैं और [ विश्वं यज्ञं व्यचति गच्छति ] सब यज्ञों को आप ही प्राप्त होनेवाले हैं अथवा [ सह मुद्रया ] आप सदा आनन्दसहित हैं, क्योंकि आप सर्वव्यापक हैं। ‘जितनी-जितनी व्यापकता उतना-उतना आनन्द’ यही नियम है। 

    २. ( अजो असि ) = हे प्रभो! आप अज हैं [ यो न जायते ] आप कभी उत्पन्न नहीं होते अथवा [ अज गतिक्षेपणयोः ] गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर फेंकनेवाले हैं। ( एकपात् ) = आप ही मुख्य गति देनेवाले हैं अथवा [ एकस्मिन् पादे विश्वं यस्य—द० ] आपके एक ही चरण में यह सारा विश्व है। 

    ३. ( अहिः असि ) = [ अह व्याप्तौ ] आप समस्त विद्याओं में व्यापनशील हैं, ( बुध्न्यः ) = और सब संसार के मूल में है, अर्थात् सर्वाधार हैं। ( वाक् असि ) = आप ही वाणी हैं अथवा [ वक्ति ] सब ज्ञानों का उपदेश देनेवाले हैं। ( ऐन्द्रम् असि ) = इन्द्र—जीव—का हित करनेवाले हैं ( सदः ) =  सबके अधिष्ठान ( असि ) = हैं। आपमें अधिष्ठित होकर ही सब चराचर अपना-अपना कार्य कर रहे हैं। हे प्रभो! आप ऐसी कृपा करो कि ( ऋतस्य द्वारौ ) = ऋत के द्वार ( मा ) = मुझे ( मा सन्ताप्तम् ) = सन्तप्त न होने दें। ‘विद्या+श्रद्धा’ ये दो ऋत के द्वार हैं। अकेली विद्या लङ्गड़ी है तो अकेली श्रद्धा अन्धी है। ये दोनों अलग-अलग अनृत हैं—मनुष्य के सन्ताप का कारण बनती हैं। दोनों एक दूसरे की पूर्ति करती हुई ये ‘ऋत’ बन जाती हैं। ये उस ‘ऋत’ परमात्मा का द्वार हो जाती हैं और मनुष्य को किसी भी प्रकार सन्तप्त नहीं होने देती। ( अध्वपते ) = हे मार्गों के रक्षक प्रभो! ( अध्वनाम् ) = [ अध्वनां मध्ये वर्त्तमानम्—म० ] मार्गों पर चलनेवाले ( मा ) = मुझे ( प्रतिर ) = सब विघ्नों से पार कीजिए। ( अस्मिन् देवयाने पथि ) = इस देवयान मार्ग पर चलते हुए ( मे ) = मेरा ( स्वस्ति ) = कल्याण व उत्तम जीवन ( भूयात् ) = हो।

    भावार्थ

    भावार्थ — मेरा प्रत्येक कार्य श्रद्धा और विद्या से हो। मैं देवयान मार्ग पर चलता हुआ कल्याण प्राप्त करूँ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    (समुद्रोऽसि विश्वव्यचा:) हे द्रवणीय स्वरूप ! सब भूतमात्र आप ही में द्रवै हैं, क्योंकि कार्य कारण में ही मिलै हैं, आप सबके कारण हो तथा आपने व्याज-सहज से ही सब जगत् को विस्तृत किया है, इससे आप (विश्वव्यचाः) हैं (अजोऽस्येकपात्) आपका जन्म कभी नहीं होता और यह सब जगत् आपके किञ्चिन्मात्र एक देश में है। आप अनन्त हो । (अहिरसि बुध्न्यः)  आपकी हीनता अ कभी नहीं होती तथा सब जगत् के मूलकारण हो और अन्तरिक्ष में भी सदा आप ही पूर्ण रहते हो "वागस्यैन्द्रमसि सदोसि " सब शास्त्र के उपदेशक, अनन्तविद्यास्वरूप होने से आप वाक् हो, परमैश्वर्यस्वरूप सब विद्वानों में अत्यन्त शोभायमान होने से आप ऐन्द्र हो । सब संसार आपमें ठहर रहा है, इससे आप सदः=सभास्वरूप हो (ऋतस्य द्वारौ मा मा सन्ताप्तम्) सत्यविद्या और धर्म—ये दोनों मोक्षस्वरूप आपकी प्राप्ति के द्वार हैं, उनको सन्तापयुक्त हम लोगों के लिए कभी मत रक्खो, किन्तु सुखस्वरूप ही खुले रक्खो, जिससे हम लोग सहज से आपको प्राप्त हों (अध्वनामित्यादि) हे अध्वपते ! परमार्थ और व्यवहार मार्गों में मुझको कहीं क्लेश मत होने दे, किन्तु उन मार्गों में मुझको स्वस्ति [आनन्द] आपकी कृपा से रहे, किसी प्रकार का दुःख हमको न रहे ॥ १८ ॥

    टिपण्णी

    १. अजमेरीय संस्करण में मन्त्र १६, १७ और १८ इकट्ठे छपे हैं,उनके अर्थ भी एक साथ ही छपे हैं। हमने पाठकों की सरलता और मुद्रण के सौन्दर्य के लिए अलग-अलग कर दिया है। 
    २. मिलै = मिलते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा के कुछ उच्च अधिकारसूचक पद ।

    भावार्थ

     हे विद्वन् ! और हे ईश्वर ! तू ( विश्वव्यचा ) समस्त विश्व में व्यापक अपने समस्त राष्ट्रवासी जनों में व्यापक, उनको प्राप्त, और ( समुद्रः असि ) समुद्र के समान, अगाध ज्ञान और ऐश्वर्य से सम्पन्न . और समुद्र के समान गंभीर और अक्षय है। हे ईश्वर ! तू ( एकपात् ) एकस्वरूप, एकमात्र अद्वितीय, या अपने एक चेतन रूप में ही समस्त विश्वको धारण करने हारा और ( अजः असि ) कभी शरीर में बद्ध होकर उत्पन्न न होने वाला, अनादि है। हे राजन् ! तू भी ( एकपात् अजः असि ) एकछत्र राजा के रूप में ज्ञात और राष्ट्र में व्यापक है । हे ईश्वर ! सू ( बुध्न्यः ) सब के मूल आश्रय में विराजमान और ( अहिः यसि ) अवि- नाशी कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता । हे सेनापते ! तू राष्ट्र का (बुध्न्यः ) आश्रय और (अहिः) किसी से न मारने योग्य, सब से अधिक बलवान् है । हे ईश्वर ! तू (ऐन्द्रम् असि, वाग् असि ) इन्द्र, ऐश्वर्यमय है और तू वाणी, ज्ञान  मन वेदरूप है । हे विद्वन् ! तू इन्द्र के पद का स्वामी और वाक्, सबका उपदेष्टा आज्ञापक है । हे ईश्वर ! तू ( सदः ) सबका आश्रय स्थान है । हे विद्वत्सभे ! तू भी ( सद: असे ) स्वयं परिषद् या विद्वानों का आश्रय स्वरूप है | हे ( ऋतस्य ) सत्य व्यवहार के ( द्वारौ ) द्वार भूत दण्ड कर्त्ता और न्यायकर्त्ता ! तुम दोनों ! ( मा ) मुझ सत्यवादी प्रजाजन को ( मा संताप्तम् ) कष्ट मत दो, पीड़ित मत करो। है ( अध्वपते ) समस्त मार्गों के स्वामिन् ! ( मा ) मुझको (अध्वनाम् ) सब मार्गों के ( प्र तिर ) पार उतार दे । ( अस्मिन् ) इस ( देवयाने ) देव विद्वानों के चलने योग्य ( पथि ) मोक्ष मार्ग में (मे) मेरा ( स्वस्ति भूयात् ) सदा कल्याण हो । हे राजन् ! तेरे इस ( देवयान ) विद्वानों के जाने योग्य सदाचार रूप मार्ग में या राजोचित मार्ग में चलते हुए मेरा सदा कल्याण हो।

    टिप्पणी

      ३३- “ बुध्न्यः सम्राडसि० ० सूदनः [३२] समूझोसिविश्ववेदा उठातिरिक्तस्य प्रतिष्ठा ।' इति० काण्व० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिःऋषिः।ब्रह्मासनं, शालाद्वार्यः, प्राजहितः, सदः, द्वार्ये, सूर्यश्व अग्निर्वा देवता । ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जैसा ईश्वर है वैसा विद्वानों को भी होना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया जाता है॥

    भाषार्थ

    ईश्वर (समुद्रः) सब भूतों को गति देने वाला (विश्वव्यचाः) विश्व में व्यापक [असि] है, उसके [एकपाद्] एक चरण में सारा विश्व है, वह (अजः) अजन्मा [असि] है, वह (अहिः) सब विद्याओं से भरपूर तथा (बुध्न्यः) आकाश के समान सर्वव्यापक [असि] है और वह [वाक्] वेदवाणी स्वरूप है [असि] है। हे [अध्वनाम्] विद्या, धर्म और शिल्प मार्गों के (अध्वपते) धर्मपूर्वक पालन करने वाले विद्वान्! जैसा वह ईश्वर (ऐन्द्रम्) परम-ऐश्वर्य का (सदः) घर [असि] है और जैसे वह (ऋतस्य) जगत् के कारण-कार्य रूप (द्वारौ) बाह्य और आन्तरिकसुखों को दुःखयुक्त नहीं करता वैसे आप [मा] मुझे (मा[सन्ताप्तम्]) सन्ताप-युक्त न करो अपितु भवसागर से [मा] मुझे [प्र तिर] सुखपूर्वक पार करो। और--जैसे (अस्मिन्) इस (देवयाने) विद्वानों के गमनागमन के (पथि) मार्ग में (स्वस्ति) सुख (भूयात्) हो वैसे आप सदा प्रयत्न करो ॥ ५ । ३३ ।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है॥जैसे कृपालु ईश्वर इस संसार में सब जीवों के शिक्षा आदि कर्मों में प्रवृत्त होता है वैसे विद्वान् लोग भी प्रवृत्त हों। जैसे ईश्वर, जगत् का कारण व जीव अनादि और अजन्मा होने से अविनाशी हैं वैसे अपने आपको भी समझें। जैसे परमेश्वर की कृपा, उपासना, सृष्टि विद्या और पुरुषार्थ के साथ वर्तमान मनुष्यों को विद्वानों के मार्ग की प्राप्ति और उसमें सुख उत्पन्न होता है वैसे अन्यों को नहीं ।। ५ । ३३ ।।

    प्रमाणार्थ

    (बुध्न्यः) निरु० (१०। ४४) में 'बुध्न' शब्द का अर्थ अन्तरिक्ष है। (ताप्तम्) तपेः। यहाँ लिङ् अर्थ में लुङ् लकार है ॥ ५ । ३३ ।।

    भाष्यसार

    १. ईश्वर के समान विद्वान् भी हों-- ईश्वर सब भूतों को गति देने वाला विश्व में व्यापक है। उसके एक चरण में समस्त विश्व है। वह अजन्मा, समस्त विद्याओं से भरपूर, अन्तरिक्ष में विद्यमान एवं वेदवाणी रूप है। जैसे परम ऐश्वर्य का धाम, ईश्वर है तथा जैसे उसने कारण-कार्य रूप जगत् के द्वारों को सबके लिये खोल रखा है, वैसे विद्या, धर्म और शिल्प मार्गों के धर्मपूर्वक पालन करने वाले विद्वान् पुरुष भी विद्या, धर्म और शिल्प के मार्गों को सबके लिये खुले रखें, उन्हें सन्तापयुक्त न करें, विद्यादि मार्गों से सब मनुष्यों को दुःखों से पार करें, भवसागर को तरें तथा अन्यों को भी तारें। सब मनुष्य ऐसा प्रयत्न करें कि विद्वानों के मार्ग सदा सुखयुक्त हों। विद्वान् पुरुष भी ईश्वर के समान शिक्षा आदि कार्यों में प्रवृत्त रहें। ईश्वर, प्रकृति और जीव के समान अपने को अविनाशी समझें। ईश्वर की कृपा प्राप्ति, उपासना करने, सृष्टिविद्या को सीखने और पुरुषार्थ करने में सदा प्रवृत्त रहें ।। ५ । ३३ ।। २. अलङ्कार-- उपमा यह है कि विद्वान् भी ईश्वर के समान हों।

    अन्यत्र व्याख्यात

    महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या आर्याभिविनय (द्वितीय प्रकाश) में इस प्रकार की है —"'समुद्रोऽसि विश्वव्यचा:' हे द्रवणीयस्वरूप! सब भूत मात्र आप ही में द्रवै हैं, क्योंकि कार्य कारण में ही मिले हैं। आप सबके कारण हो तथा सहज से सब जगत् को विस्तृत किया है। इससे आप 'विश्वव्यचाः' हैं। 'अजोऽस्येकपात्’ आपका जन्म कभी नहीं होता और यह सब जगत् आपके किञ्चिन्मात्र एक देश में है, आप अनन्त हो। 'अहिरसि बुध्न्यः' आपकी हीनता कभी नहीं होती तथा सब जगत् के मूल कारण और अन्तरिक्ष में भी सदा आप ही पूर्ण रहते हो। 'वागस्यैन्द्रमसिसदोऽसि’ सब शास्त्र के उपदेशक अनन्त विद्यास्वरूप होने से आप 'वाक्' हो । परमैश्वर्यस्वरूप सब विद्वानों में अत्यन्त शोभायमान होने से आप 'ऐन्द्र' हो। सब संसार आप में ठहर रहा है इससे आप सदः (सभास्वरूप) हो 'ऋतस्य द्वारौ मा मा सन्ताप्तम्’ सत्य विद्या और धर्म ये दोनों मोक्षस्वरूप आपकी प्राप्तिके द्वार हैं, उनको सन्ताप युक्त हम लोगों के लिये कभी मत रखो, किन्तु सुखस्वरूप ही खुले रखो, जिससे हम लोग सहज से आपको प्राप्त हों। 'अध्वनामित्यादि' हे अध्वपते! परमार्थ और व्यवहार मार्गों में मुझ को कहीं क्लेश मत होने दे किन्तु उन मार्गों में मुझको स्वस्ति (आनन्द) ही आप की कृपा से रहे, किसी प्रकार का दुःख न रहे" ।। १८ ।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (3)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ईश्वर, प्रकृती व जीव हे तीन अनादी व अविनाशी आहेत. परमेश्वराची उपासना व त्याची कृपा तसेच सृष्टिविद्येचे ज्ञान किंवा आपला पुरुषार्थ यांनी युक्त होऊन जी माणसे विद्वानांच्या मार्गाने जातात त्यांना सुख प्राप्त होते. आळशी लोकांना हे सुख प्राप्त होत नाही.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यानंतर पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे की ईश्‍वर जसा आहे, विद्वानांनानीदेखील त्याप्रमाणे व्हायला पाहिजे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - परमेश्‍वर (समुद्रः) सर्व प्राण्यांना या जगात गमन-आगमन करविणारा आहे (प्राण्यांना जन्म देऊन जगात पाठविणारा आणि मृत्यूद्वारे जगातून घेऊन जाणारा आहे) आणि (विश्‍वव्यचाः) जगात व्यापक असून (अजः) अजन्मा (असि) आहे, त्याच्या (एकपात्) एका पायामधे समस्त विश्‍व आहे (समस्त विश्‍व ज्याची एका पायाची समता करू शकत नाही अथवा जो एकमेव असा आहे की ज्याची शक्ती अपद्विमित असून त्याच्या केवळ अल्पशा आधाराने देखील समस्त जग स्थिर व संचालित आहे) तो (अहिः) व्यापनशील असून (बुध्न्यः) अंतरिक्षाहून पुढे व विशालतम (असि) आहे. तो (वाक्) साक्षात वाणीरूप (असि) आहे. (ऐन्द्रं) उत्तम ऐश्‍वर्याचे (सदः) स्थान म्हणजे ऐश्‍वर्यप्रदाता आहे आणि (ऋतस्य) सत्याच्या (द्वारौ) मुखांनो (मासंताप्तम्) तप्त वा दूषित करणारा नाहीं (सत्यभाषण व सत्यवर्तन करण्यासाठी प्रेरक आहे) हे (अध्वपते) धर्ममार्गावर अनुसरण करण्यार्‍या विद्वज्जनहो, तुम्ही देखील त्या परमेश्‍वराप्रमाणे मुखास वा आपल्या वाणीस शांत ठेवा, तप्त वा कटु होऊ देऊ नका. हे परमेश्‍वर, (मा) मला (अध्वनम्) धर्माच्या मार्गावरून ना विद्या-शिल्पादींच्या अध्ययनापासून (प्रतिर्) दूर करू नका वा या विद्या-शिल्पसागरातून पैलतीरास न्या. (मे) माझा (अस्मिन्) हा मार्ग (देवयाने) विद्वानांच्या आवागमनास योग्य तसेच (पथि) या निर्भय व निष्कंटक होईल अशा प्रकारचा (स्वस्ति) सुखमय (भूयात्) व्हावा, अशी कृपा करा. (धर्ममार्गावर चालतांना विघ्न-भय आदींचा उपद्रव होऊ नये, ही प्रार्थना आहे) ॥33॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ईश्‍वर तसेच जगाचा कारणरूप जीव अनादी आहेत आणि त्यांचा जन्म होत नसल्यामुळे दोघे अविनाशी आहेत. परमेश्‍वराची कृपा प्राप्त करून जे लोक त्याची उपासना करतात आणि सृष्टी-विद्येचे ज्ञान संपादित करून स्वपुरुषार्थाने यत्न करतात, तेच विद्वज्जनांच्या मार्गाचे अनुगमन करतात व सुखी होतात. आळशी व निरोद्योगी जनांना कदापी विद्वत्-संगती आणि सुख प्राप्त होत नाही. ॥33॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    (समुद्रोऽसि विश्वव्यचाः) हे दयार्द्रस्वरूपा ! सर्व भूतमात्रां मध्ये तूच द्रबित होत आहेस किवा सर्व भूतमात्र तुझ्या मध्ये द्रवित होत आहेत. कारण कार्य कारणात मिसळलेले आहेत. तू सर्वाचे कारण आहेस व सहजतेने सर्व जगाला विस्तारित केलेले आहेस, म्हणून तूला (विश्वव्यचाः) म्हटले जाते (अजोऽस्येकपात्) तू अजन्मा आहेस व हे सर्व जग तुझ्या किंचित मात्र एका भागात वसलेले आहे. तू अनंत आहेस (अहिरसि बुध्न्यः) तुझ्यामध्ये कोणत्याही प्रकारचे हिनत्य नाही. तू सर्व जगाचे मूळ कारण असून अंतरिक्षामध्येही सदा पूर्णपणे भरलेला आहेस. (वागस्यैन्द्रमसि सदोसि) सर्व शाखांचा उपदेशक व अनंत विद्या स्वरूप असल्यामुळे तू वाक् [वाणी] आहेस. तू परम ऐश्वर्यस्वरूप असून सर्व विद्वानांमध्ये प्रतिष्ठित असा (ऐन्द्र) इंद्र आहेस. आणि सर्व विश्व तुझ्यात बसल्यामुळे तू सदा (सदः) सभास्वरूप आहेस. (ऋतस्य द्वारौ मा मा सन्ताप्तम्) सत्यविद्या व धर्म हे दोन्ही तुझ्या मोक्षस्वरूप प्राप्तीचे द्वार आहेत. हे द्वार आमच्यासाठी संतापयुक्त असू नये तर ते सदैव सखस्वरूप बनून आमच्यासाठी उघडे असू दे. त्यामुळे तू आम्हाला सहजतेने प्राप्त व्हावास. (अध्वनमित्यादि) हे मार्गदर्शका परमार्थ व व्यवहार मार्गात मला कधी क्लेशा होऊ देऊ नकोस, परन्तु तुझ्या कृपेने त्या मार्गात माझे कल्याण होईल असा आनंद मिळू दे. कोणत्याही प्रकारे दुःख आम्हाला होता कामा नये. ॥१८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Meaning

    O God, Thy knowledge is fathomless. Thou art Omnipresent, and Unborn. Thou boldest the universe with a part of Thy Energy. Thou art the Master of all forms of knowledge; and the Source of Universe. Thou art the highest Teacher; and full of splendour, Thou art the asylum of all. Ye two gates of knowledge do not distress me. O Lord of religious paths, lead me onward, through religious ways. May I be happy in this God-reaching path.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Agni, vast and deep as the ocean, unfathomable as space, immanent and omnipresent, you are the original power and motion of existence. Unborn and eternal, spirit of all knowledge, the world is but one vibration of this eternal consciousness, and the Veda is just one Word of its articulation. Man of wisdom and learning, path-maker and guardian of advancement in knowledge, Dharma and science, Agni, Lord of Life, is the lord of knowledge and power. He opens the doors of internal and external knowledge. You too keep the doors open, extend the paths, do not cause any suffering, help us cross the hurdles and lead us on in this noble pilgrimage of divine life on earth. Lord of life, knowledge and action, bless us that we may succeed.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Purport

    O the Overflowing Ocean of Mercy! All the elements meltdown and merge in You, because the effects always merge in the cause. You are the cause of the whole creation. You have with ease expanded the whole universe. You are never born and this whole universe is Infinite. a very small portion of your infinite Self. You are In You are never at fault, and are the primitive cause of the whole universe. You also pervade the middle region completely. You are the preacher of the Vedas, and being the source of Infinite knowledge are the element of speech. You are Supreme Bounteous by n nature. Among the learned you shine gloriously. The whole world rests in You; therefore, You are like an assembly. True knowledge and righteousness-are the two gates for the realisation of Your final Beatitude. Never shut them for us-we miserable people. Kindly keep them open and bestow Your bliss, so that we you easily. O the Cast 2 Protector and Master of the path of happiness! No misery, mishap or tormentation should fall upon us in the path of worldy life and life here-after. By your grace we may enjoy peace, prosperity and bliss in these paths and may not feel any kind of misery and trouble at all.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    О Lord, you are an ocean, the far stretched one. (1) You are unborn, the one-footed. (2) You are a cloud, the cover of mid-space. (3) You are the speech; you pertain to the aspirant, and you are the abode. (4) May the doors of truth not distress mе. (5) O Lord of highways, make me flourish on highways. May I be safe and secure on this path of the enlightened ones. (6)

    Notes

    Ajo’ syekpad, unborn the one-footed; also, the unborn, who alone protects the world. Ahih, the cloud. Also, a serpant. Budhnyah, T of the midspace. Adhvapate, O Lord of highways. Pra tira, make me flourish.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্য়থেশ্বরো বর্ত্ততে তথা বিদ্বদ্ভিরপি ভবিতব্যমিত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় যেমন ঈশ্বর তেমন বিদ্বান্দিগকেও অবশ্যই হইতে হইবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–যেমন পরমেশ্বর (সমুদ্রঃ) সকল প্রাণিদিগের গমনাগমনকারী (বিশ্বব্যচাঃ) জগতে ব্যাপক ও (অজঃ) অজন্মা (অসি) হন, (একপাৎ) যাহার একপাদে বিশ্ব (অহিঃ) বা ব্যাপনশীল (বুধ্নঃ) তথা অন্তরিক্ষে ঘটিত (অসি) হয় এবং (বাক্) বাণীরূপ (অসি) হয়, (ইন্দ্রম্) পরমৈশ্বর্য্যের (সদঃ) স্থান রূপ হয় এবং (ঋতস্য) সত্যের (দ্বারৌ) মুখগুলিকে (মা সন্তাপ্তম্) সন্তাপকারক নহে । (অধ্ব্বপতে) হে ধর্ম-ব্যবহারের মার্গকে পালনকারী বিদ্বান্গণ । সেইরূপ তোমরাও সন্তাপ করিও না । হে ঈশ্বর! (মা) আমাকে (অধ্ব্বনাম) ধর্মশিল্পের মার্গ হইতে (প্রতির) উদ্ধার করুন এবং (মা) আমার (অস্মিন্) এই (দেবয়ানে) বিদ্বান্দিগের যাতায়াতের (পথি) পথে যেমন (স্বস্তি) সুখ (ভুয়াৎ) হয় সেইরূপ অনুগ্রহ করুন ॥ ৩৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । ঈশ্বর বা জগতের কারণরূপী জীবকে অনাদিত্ব হওয়ায় বা জন্ম না হওয়ায় অবিনাশিত্ব আছে । পরমেশ্বরের কৃপা, উপাসনা, সৃষ্টি বিদ্যা বা স্বীয় পুরুষকার সহ বর্ত্তমান মনুষ্যদিগকে বিদ্বান্দিগের মার্গ প্রাপ্তিতে এবং তাহাতে সুখ হয় এবং অলস মনুষ্যের হয়না ॥ ৩৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স॒মু॒দ্রো᳖ऽসি বি॒শ্বব্য॑চাऽঅ॒জো᳕ऽস্যেক॑পা॒দহি॑রসি বু॒ধ্ন্যো᳕ বাগ॑স্যৈ॒ন্দ্রম॑সি॒ সদোऽ॒সৃ্যত॑স্য দ্বারৌ॒ মা মা॒ সং তা॑প্ত॒মধ্ব॑নামধ্বপতে॒ প্র মা॑ তির স্ব॒স্তি মে॒ऽস্মিন্ প॒থি দে॑ব॒য়ানে॑ ভূয়াৎ ॥ ৩৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সমুদ্রোऽসীত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषय

    व्याखान

    समुद्रोऽसि विश्वव्यचाः = हे द्रवणीयस्वरूप ! समस्त भूतमात्र तपाईंमा नै द्रवेका छन्, किनभने कार्य कारण मा नै मिलेका छन्, तपाईं सबैका कारण हुनुहुन्छ तथा आफ्नो व्याज =सहज क्रियाद्वारा नै सबै जगत् लाई विस्तृत गर्नुभएको छ, एसकारण तपाईं विश्वव्यचाः हुनुहुन्छ अजोऽस्येकपात् = तपाईंको जन्म कहिल्यै हुँदैन अरू यो सबै जगत् किञ्चिन्मात्र एक देश मा छ । तपाईं अनन्त हुनुहुन्छ । अहिरसि बुध्न्यः तपाईंलाई हीनता कहिल्यै हुँदैन । तथा तपाईं जगत्का मूलकारण हुनुहुन्छ । अरू अन्तरिक्ष मा पनि तपाईं सर्वदा नै पूर्ण रहनु हुन्छ । वागस्यैन्द्रमसि सदोसि = सकल शास्त्र का उपदेशक, अनन्त विद्यास्वरूप हुनाले तपाईं 'वाक्' हुनुहुन्छ, परमैश्वरर्यस्वरूप समस्त विद्वान् हरु मा अत्यन्त शोभायमान हुना ले तपाईं 'ऐन्द्र' हुनुहुन्छ । सम्पूर्ण संसार तपाईंमा टिकेको छ वा तपाईं मा वास बसेको छ, एस कारण तपाईं 'सदः = सभारूप' हुनुहुन्छ । ऋतस्य द्वारौ मा मा सन्ताप्तम् = 'सत्यविद्या' र 'धर्म' ई दुवै मोक्षस्वरूप तपाईंलाई प्राप्त गर्ने द्वार हुन् । तिनलाई हामीहरुका लागी कहिल्यै पनि सन्तापयुक्त न राख्नु होला किन्तु सुखस्वरूप ले खुल्लै राख्नु होला, जसले हामी हरु तपाईसंग सहजै प्राप्त हुन सकौं । अध्वना मित्यादि = हे अध्वपते ! परमार्थ र व्यवहार का बाटा मा मलाई कहिं क्लेश न दिनु होला, किन्तु ती बाटा हरु मा मलाई स्वस्ति वा आनन्द रहोस् कुनै प्रकार को दुःख न होस् ॥१८॥ 

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top