यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 14
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - स्वराट् आर्षी जगती,
स्वरः - निषादः
3
यु॒ञ्जते॒ मन॑ऽउ॒त यु॑ञ्जते॒ धियो॒ विप्रा॒ विप्र॑स्य बृ॒ह॒तो वि॑प॒श्चितः॑। वि होत्रा॑ दधे वयुना॒विदेक॒ऽइन्म॒ही दे॒वस्य॑ सवि॒तुः परि॑ष्टुतिः॒ स्वाहा॑॥१४॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जते॑। मनः॑। उ॒त। यु॒ञ्ज॒ते॒। धियः॑। विप्राः॑। विप्र॑स्य। बृ॒ह॒तः। वि॒प॒श्चित॒ इति॑ विपः॒ऽचितः॑। वि। होत्राः॑। द॒धे॒। व॒यु॒ना॒वित्। व॒यु॒न॒विदिति॑ वयुन॒ऽवित्। एकः॑। इत्। म॒ही। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। परि॑ष्टुतिः। परि॑स्तुति॒रितिः॒। स्वाहा॑ ॥१४॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जते मनऽउत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः । वि होत्रा दधे वयुनाविदेकऽइन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
युञ्जते। मनः। उत। युञ्जते। धियः। विप्राः। विप्रस्य। बृहतः। विपश्चित इति विपःऽचितः। वि। होत्राः। दधे। वयुनावित्। वयुनविदिति वयुनऽवित्। एकः। इत्। मही। देवस्य। सवितुः। परिष्टुतिः। परिस्तुतिरितिः। स्वाहा॥१४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ योगीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
यथा विहोत्रा विप्राः सन्ति ते या बृहतो विप्रस्य विपश्चितः सवितुर्देवस्य यस्य महेश्वरस्य मही परिष्टुतिस्वरूपा स्वाहास्ति, तां विज्ञायैतस्मिन्निदेव मनो युञ्जत उतापि धियो युञ्जते, तथैवैतां विदित्वास्मिन् वयुनाविदेकोऽहं मनो युञ्जे धियं च॥१४॥
पदार्थः
(युञ्जते) समादधते (मनः) चित्तम् (उत) अपि (युञ्जते) स्थिराः कुर्वते (धियः) बुद्धीः कर्माणि वा (विप्राः) मेधाविनः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰३।१५) (विप्रस्य) अनन्तप्रज्ञाकर्मणो जगदीश्वरस्य। (बृहतः) व्यापकस्य वा (विपश्चितः) अनन्तविद्यस्य परमविद्यस्य परमविदुषो वा (वि) विविधार्थे (होत्राः) ये जुह्वत्याददति वा ते (दधे) धरे वृणोमि कथयामि वा (वयुनावित्) यो वयुनानि प्रशस्तानि कर्माणि वेत्ति सः। वयुनमिति प्रशस्यनामसु पठितम्। (निघं॰३। ८) अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा॰६.३.१३७] इति दीर्घः। (एकः) असहायः (इत्) एव (मही) महती (देवस्य) सर्वप्रकाशकस्य (सवितुः) सकलोत्पादकस्य (परिष्टुतिः) परितः सर्वतः स्तूयते यया सा (स्वाहा) सत्यां वाचम्। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। ३। ११-१२) व्याख्यातः॥१४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। परमेश्वर एव मनो धियश्च समाधाय विदुषां सङ्गेन विद्यां प्राप्यान्येभ्य एवमेवोपदेष्टव्म्॥१४॥
विषयः
अथ योगीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥
सपदार्थान्वयः
यथा विहोत्राःविविधं ये जुह्वत्याददति वा ते विप्राः मेधाविनः सन्ति, ते या बृहतः व्यापकस्य वा वित्रस्य अनन्त प्रज्ञाकर्मणो जगदीश्वरस्य विपश्चितः अनन्तविद्यस्य परमविदुषो वा सवितुः सकलोत्पादकस्य देवस्य=यस्य महेश्वरस्य सर्वप्रकाशकस्य मही महती [परिष्टुतिः] परिष्टुतिस्वरूपा=परितः=सर्वतः स्तूयते यया सा स्वाहा सत्या वाग् अस्ति, तां विज्ञायैतस्मिन् इत्=एव मनः चित्तंयुञ्जते समादधते, उत=अपिधियः बुद्धी कर्माणि वा युञ्जते स्थिराः कुर्वते, तथैवैतां विदित्वास्मिन् वयुनावित्यो वयुनानि=प्रशस्तानि कर्माणि वेत्ति सः एकः असहायंअहं मनः चित्तं युञ्जे धियं च [दघे] धरे=वृणोमि कथयामि वा ।। ५ । १४ ।। [यथा विप्राः सन्ति ते या........देवस्य=यस्य महेश्वरस्य........स्वाहाऽस्ति तां विज्ञायैतस्मिन्निदेव मनो युञ्जते, उत=अपि धियोयुञ्जते, तथैवैतां विदित्वास्मिन् .......अहं मनो युञ्जे, धियं च [दघे]]
पदार्थः
(युञ्जते) समादधते (मनः) चित्तम् (उत) अपि (युञ्जते) स्थिराः कुर्वते (धियः) बुद्धी: कर्माणि वा (विप्राः) मेधाविनः। विप्र इति मेधाविनामनु पठितम् ॥ निघं० ३। १५ ॥ (विप्रस्य) अनन्तप्रज्ञाकर्मणो जगदीश्वरस्य (बृहतः) व्यापकस्य वा (विपश्चितः) अनन्तविद्यस्य परमविदुषो वा (वि) विविधार्थे (होत्राः) ये जुह्वत्याददति वा ते (दधे) धरे=वृणोमि कथयामि वा (वयुनावित्) यो वयुनानि=प्रशस्तानि कर्माणि वेत्तिः सः । वयुनमिति प्रशस्यनामसु पठितम् ॥ निघं० ३।८ ॥ अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः (एक:) असहायः (इत्) एव (मही) महती (देवस्य) सर्वप्रकाशकस्य (सवितुः) सकलोत्पादकस्य (परिष्टुतिः) परितः=सर्वतः स्तूयते यया सा (स्वाहा) सत्यां वाचम्॥ अयं मन्त्रः शत० ३।५ । ३ । ११-१२ व्याख्यातः ॥ १४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ परमेश्वर एव मनो धियश्च समाधाय, विदुषां संगेन विद्यां प्राप्यान्येभ्य एवमेवोपदेष्टव्यम्।। ५ । १४ ।।
विशेषः
गोतमः। सविता=ईश्वर:॥ स्वराडार्षी जगती। निषादः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में योगी और ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥
पदार्थ
जैसे जो (विहोत्राः) देने-लेने वाले (विप्राः) बुद्धिमान् मनुष्य हैं, वे जिस (बृहतः) सब से बड़े (विप्रस्य) अनन्त ज्ञानकर्मयुक्त (विपश्चितः) सब विद्या सहित (सवितुः) सकल जगत् के उत्पादक (देवस्य) सब के प्रकाश करने वाले महेश्वर की (मही) बड़ी (परिष्टुतिः) सब प्रकार की स्तुतिरूप (स्वाहा) सत्यवाणी को जान उस में (मनः) मन को (युञ्जते) युक्त करते हैं (उत) और (धियः) बुद्धियों को भी (युञ्जते) स्थिर करते हैं, वैसे (वयुनावित्) उत्तम कर्मों को जानने वाला (एकः) सहाय रहित मैं उस को जान उसमें अपना मन और बुद्धि को (विदधे) सदा निश्चल विधान कर रखता हूं॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि परमेश्वर में ही मन, बुद्धि को युक्त कर विद्वानों के सङ्ग से विद्या को पा सुखी हो, अन्य मनुष्यों को भी इसी प्रकार आनन्दित करें॥१४॥
विषय
प्रभु में मन का [ योग ] लगाना
पदार्थ
१. गत मन्त्र में ‘ध्रुव, ध्रुवक्षित् व अच्युतक्षित्’ बनने के लिए मन्त्र का ऋषि ‘गोतम’ ( मनः ) = मन को ( युञ्जते ) = उस प्रभु में लगाते हैं ( उत ) = और ( विप्रस्य ) = विशेषरूप से पूर्ण, ( बृहतः ) = वर्धमान ( विपश्चितः ) = ज्ञानी उस प्रभु की ( धियः ) = बुद्धियों को ( विप्राः ) = अपना पूरण करनेवाले ये लोग ( युञ्जते ) = अपने साथ जोड़ते हैं। ‘मन को प्रभु में केन्द्रित करना और उस हृदयस्थ प्रभु की ज्ञानवाणियों को सुनकर अपने ज्ञान को बढ़ाना’, ‘विप्र’ बनने का यही मार्ग है। इससे भिन्न मार्ग से हम अपना पूरण नहीं कर सकते। यदि इस ज्ञान से हम अपने को युक्त करेंगे तो हम भी ‘विप्र, बृहत् व विपश्चित’ बनेंगे।
२. हम उस प्रभु में अपने मनों को केन्द्रित करते हैं और ( वयुनावित् ) = सब प्रज्ञानों को जाननेवाले [ वयुनं प्रज्ञानं—नि० ३।९ ] ( एकः इत् ) = वह एक प्रभु ही ( होत्राः ) = सब वेदवाणियों को [ होत्रा वाङ्नाम—नि० १।११ ] ( विदधे ) = अग्नि आदि ऋषियों के हृदयों में स्थापित करते हैं।
३. ( सवितुः देवस्य ) = उस सबके उत्पादक देव की ( परिष्टुतिः ) = संसार में चारों ओर विद्यमान स्तुति ( मही ) = महान् है। सूर्य, चन्द्र, तारे, बादल, विद्युत्, भिन्न-भिन्न दिशाओं में बहती हुई नदियाँ, पर्वत, समुद्र, वन व रेगिस्तान—सभी उस प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर रहे हैं। ( स्वाहा ) = यह कितनी सुन्दर बात है! हमें उस प्रभु की प्राप्ति के लिए ‘स्व’ का ‘हा’ करनेवाला बनना है, अर्थात् स्वार्थत्याग [ सु+आह ] करना है।
भावार्थ
भावार्थ — हम मन को कन्द्रित करें, प्रभु की वाणी को सुनें और ज्ञानी बनकर सर्वत्र प्रभु की महिमा का दर्शन करें, स्वार्थमुक्त जीवन-यापन करें।
विषय
योगाभ्यास ।
भावार्थ
( बृहत ) उस महान् ( विपश्चितः ) सर्वज्ञ, अनन्त विद्या के भण्डार, ( विप्रस्य ) मेधावी, विविध कामों को पूर्ण करने वाले नाना- फलप्रदाता, परमेश्वर के ध्यान में ( विप्राः ) मेधावी, (होत्रा : ) अपने आत्मा की उसमें आहुति करने वाले, या प्राणापान की आहुति देने वाले पुरुष उसमें अपने ( मनः युञ्जते ) मन को योग द्वारा युक्त करते हैं 1 ( उत ) और ( धियः) अपने बुद्धियों वाणियों और समस्त कर्मों या चेष्टाओं या क्रियाओं को ( युञ्जते ) उधर ही लगा देते हैं । वे उसका ( विदधे ) विशेष रूप से वर्णन करते हैं। या मैं उसका ( विदधे ) विशेष रूप से या नाना प्रकार से वर्णन करूं । वह ( वयुनावित् ) समस्त उत्तम कर्मों और विज्ञानों का ज्ञाता ( एकः इत् ) एक ही है उस (सवितुः ) सब के उत्पादक, सर्वप्रेरक ( देवस्य ) देव, सर्वद्रष्टा, सर्व- प्रदाता परमेश्वर की ( मही परिस्तुतिः ) बड़ी भारी स्तुति, या महिमा है । ( स्वाहा ) वह सत्य वाणी का उपदेष्टा है, या सत्यवाणीस्वरूप है॥
राजपक्ष में - सब विद्वान अपने में सबसे अधिक विद्वान् ब्राह्मण, मेधावी के प्रति अपने और कर्मों को जोड़ें, उसके अधीन रहे । वह सबशासन कार्यों का ज्ञाता होकर रहे। उसी सब के प्रेरक, देव, विद्वान राजा की आज्ञा सर्वोत्तम रीति से पालन हो॥
यज्ञ में मुख्य ब्रह्मा को करके सब ऋत्विज अपना ध्यान उसकी और रखें । वह सबका ज्ञाता, सबका आज्ञापक रहे । यज्ञो वै प्रजापतिः ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।श्यावाश्व ऋषिः । सविता देवता । स्वराडार्षी जगती । निषादः ॥
विषय
अब योगी और ईश्वर के गुणों का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
जैसे (विहोत्राः) विविध हवन करने वाले (विप्राः) मेधावी लोग हैं, वे जो (बृहतः) व्यापक (विप्रस्य) अनन्त ज्ञान और कर्म वाले जगदीश्वर की तथा (विपश्चितः) अनन्त विद्या वाले परम विद्वान् की तथा (सवितुः) सबके उत्पादक (देवस्य) सबके प्रकाशक महेश्वर की जो (मही) महान् (परिष्टुतिः) स्तुतिरूपा (स्वाहा) सत्यवाणी है उसे जानकर उसी परमेश्वर में (इत्) ही (मनः) चित्त को (युञ्जते) लगाते हैं [समाधिस्थ करते हैं](उत) और (धियः) बुद्धियों और अपने कर्मों को (युञ्जते) स्थिर करते हैं, वैसे ही उस सत्यवाणी को जानकर इस परमेश्वर में (वयुनाविद्) प्रशंसनीय कर्मों को जानने वाला (एक:) अकेला मैं (मनः) चित्त को और बुद्धि को [दधे] समाधिस्थ करता हूँ उस वाणी को धारण करके उसका उपदेश करता हूँ ।। ५ । १४ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है।।परमेश्वर में ही मन और बुद्धि को समाहित करके, विद्वानों के संग से विद्या को प्राप्त करके, दूसरों के लिये इसी प्रकार उपदेश करें ।। ५ । १४ ।।
प्रमाणार्थ
(विप्राः) 'विप्र' शब्द निघं० (३ । १५) में मेधावी नामों में पढ़ा है (वयुनावित्) 'वयुन' शब्द निघं० (३ ।८) में प्रशस्य (उत्तम) नामों में पढ़ा है। 'अन्येषामपि दृश्यते' [अ० ६।३।१३५] इस सूत्र से दीर्घ है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।५।३।११-१२) में की गई है ।। ५ । १४ ॥
भाष्यसार
१. योगी के गुण--विविध होम करने वाला, मेधावी, महान्, प्रज्ञा और कर्म से सम्पन्न, परम विद्वान् होता है। वह परमेश्वर की महान् स्तुति रूप वेदवाणी को जानकर परमेश्वर में अपने चित्त को, बुद्धि और कर्म को स्थिर करता है। उत्तम कर्मों को समझने वाला व्यक्ति योगी का अनुकरण करके इसी प्रकार अपने चित्त, बुद्धि और कर्म वेद की सत्यवाणी में स्थिर करते हैं। २. ईश्वर के गुण-- सर्वव्यापक, अनन्त प्रज्ञा और अनन्त कर्म वाला, जगत् का स्वामी, परम विद्वान्, सकल जगत् का उत्पादक, सब का प्रकाशक है। जिसकी महान् स्तुति रूप सत्य वेदवाणी को योगी लोग जानकर परमेश्वर में ही अपने मन, बुद्धि और कर्मों को स्थिर करते हैं। उत्तम कर्मों को जानने वाले व्यक्ति भी अपने मन और बुद्धि को स्थिर करते हैं। उसका उपदेश करते हैं ।। ३. अलङ्कार–मन्त्र में उपमावाचक शब्द लुप्त है, अतः वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि योगी जनों के समान अन्य भी अपने मन और बुद्धि को परमेश्वर में स्थिर करें।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी मन व बुद्धी परमेश्वरातच युक्त करून विद्वानांच्या संगतीने विद्या प्राप्त करावी व सुखी व्हावे आणि इतरांनाही सुखी करावे.
विषय
पुढील मंत्रात योगी आणि परमेश्वर यांच्याविषयी कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - जे (विहोत्राः) ज्ञानाचे आदान-प्रदान करणारे (विप्राः) बुद्धिमान मनुष्य आहेत, ते (बृहतः) सर्वांहून महान् (विप्रस्थ) अनन्त ज्ञानकर्मवान (विपरिचतः) सर्व विद्यावान (सवितुः) सर्व जगदुत्पादक (देवस्य) सर्वांना ज्ञान व प्रेरणा देऊन प्रकाशित करणार्या महेश्वराची (मही) मोठीच (परिष्टुतिः) विशेषत्वाने स्तुती करतात आणि (स्वाहा) परमेश्वराच्या वेदवाणीला सत्य मानून त्यात (मनः) आपल्या (मनः) मनाला (युञ्जते) संयुक्त करतात (उत) आणि (धिय!) आपल्या बुद्धींना देखील त्या परमेश्वराच्या स्तुतीत (युञ्जते) स्थिर करतात, (वयुवावित्) उत्तमकर्मांना जाणण्याची इच्छा असणारा मी देखील (एकः) असहाय मनुष्य (आधारासाठी व सहाय्य मिळविण्यासाठी) त्या विद्वान लोकांप्रमाणे आपल्या मनाला व बुद्धीला (विदधे) निश्चल रूपाने त्या परमेश्वराच्या स्तुती-उपासनेत स्थिर करतो, (कारण त्यातच माझे कल्याण आहे, हे मी जाणतो) ॥14॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्यांसाठी उचित आहे की परमेश्वरास मनाला आणि बुद्धीला संयुक्त करावे व विद्वज्जनांच्या संगतीत राहून स्वतः सुखी व्हावे आणि इतरांनाही त्याचप्रमाणे आनंदित करावे ॥14॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The sages, who consecrate their soul to Him, concentrate their mind and intellect upon God, who is Omnipresent, Omnipotent, and Omniscient. They sing His praises in various ways. He is the sole Knower of all good acts, and self-existing. Great is the praise of Him, the Creator and Seer of all. He is the preacher of Truth.
Meaning
Great are the songs of celebration in praise of Savita, the Creator, Omnipresent Lord Supreme of infinite knowledge and Karma. Wise and dedicated men of multiple orders of yajna concentrate their mind and intelligence on that One Universal Presence. Knowing that language of celebration and Karma I meditate on the presence of the Lord all alone by myself.
Translation
Discerning intellectuals harness their minds as well as their intellect towards the supreme learned intellectual. ‘Cognizant of all the deeds, He alone accomplishes the cosmic sacrifice. Great is the glory of the creator God. Svaha. (1)
Notes
Viprah, discerning intellectuals. Yuüjate, harness. Vayunavid, cognizant of all deeds or actions. Маји, great. Paristutih, glory; praise.
बंगाली (1)
विषय
অথ য়োগীশ্বরগুণা উপদিশ্যন্তে ।
এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে যোগী ও ঈশ্বরের গুণের উপদেশ করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–যেমন যাহারা (বিহোত্রাঃ) আদান-প্রদানকারী (বিপ্রাঃ) বুদ্ধিমান মনুষ্য তাহারা যে (বৃহতঃ) সর্ববৃহৎ (বিপ্রস্য) অনন্ত জ্ঞান কর্মযুক্ত (বিপশ্চিতঃ) সকল বিদ্যা সহিত (সবিতুঃ) সকল জগতের উৎপাদক (দেবস্য) সকলের প্রকাশক মহেশ্বরের (মহী) বৃহৎ (পরিষ্টুতিঃ) সর্ব প্রকারের স্তুতিরূপ (স্বাহা) সত্যবাণীকে জানিয়া উহাতে (মনঃ) মন (য়ুঞ্জতে) যুক্ত করেন (উত) এবং (ধিয়ঃ) বুদ্ধিগুলিকেও (য়ুঞ্জতে) স্থির করেন সেইরূপ (বয়ুনবিৎ) উত্তম কর্ম সকলের জ্ঞাতা (একঃ) সহায় রহিত আমি তাহাকে জানিয়া তাহাতে স্বীয় মন ও বুদ্ধিকে (বিদধে) সর্বদা নিশ্চল বিধান করিয়া রাখি ॥ ১৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, পরমেশ্বরেই মন, বুদ্ধি যুক্ত করিয়া বিদ্বান্দিগের সঙ্গ দ্বারা বিদ্যা প্রাপ্ত করিয়া সুখী হও, অন্য মনুষ্যকেও এই প্রকার আনন্দিত কর ॥ ১৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ু॒ঞ্জতে॒ মন॑ऽউ॒ত য়ু॑ঞ্জতে॒ ধিয়ো॒ বিপ্রা॒ বিপ্র॑স্য বৃ॒হ॒তো বি॑প॒শ্চিতঃ॑ । বি হোত্রা॑ দধে বয়ুনা॒বিদেক॒ऽইন্ম॒হী দে॒বস্য॑ সবি॒তুঃ পরি॑ষ্টুতিঃ॒ স্বাহা॑ ॥ ১৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ুঞ্জতে মন ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । সবিতা দেবতা । স্বরাডার্ষী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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