यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 32
ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
2
उ॒शिग॑सि क॒विरङ्घा॑रिरसि॒ बम्भा॑रिरव॒स्यूर॑सि दुव॑स्वाञ्छु॒न्ध्यूर॑सि मार्जा॒लीयः॑। स॒म्राड॑सि कृ॒शानुः॑ परि॒षद्यो॑ऽसि॒ पव॑मानो॒ नभो॑ऽसि प्र॒तक्वा॑ मृ॒ष्टोऽसि हव्य॒सूद॑नऽऋ॒तधा॑मासि॒ स्वर्ज्योतिः॥३२॥
स्वर सहित पद पाठउ॒शिक्। अ॒सि॒। क॒विः। अङ्घा॑रिः। अ॒सि॒। बम्भा॑रिः। अ॒व॒स्यूः। अ॒सि॒। दुव॑स्वान्। शु॒न्ध्यूः। अ॒सि॒। मा॒र्जा॒लीयः॑। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। अ॒सि॒। कृ॒शानुः॑। प॒रि॒षद्यः॑। प॒रि॒षद्य॒ इति॑ परि॒ऽसद्यः॑। अ॒सि॒। पव॑मानः। नभः॑। अ॒सि॒। प्र॒तक्वेति॑ प्र॒ऽतक्वा॑। मृ॒ष्टः। अ॒सि॒। ह॒व्य॒सूद॑न॒ इति॑ हव्य॒ऽसूद॑नः। ऋ॒तधा॒मेत्यृ॒तऽधा॑मा। अ॒सि॒। स्व॑र्ज्योति॒रिति॒ स्वः॑ऽज्योतिः॑ ॥३२॥
स्वर रहित मन्त्र
उशिगसि कविरङ्ङ्घारिरसि बम्भारिरवस्यूरसि दुवस्वाञ्छुन्ध्यूरसि मार्जालीयः सम्राडसि कृशानुः परिषद्यो सि पवमानो नभोसि प्रतक्वा मृष्टोसि हव्यसूदनऽऋतधामासि स्वर्ज्यातिः समुद्रोसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
उशिक्। असि। कविः। अङ्घारिः। असि। बम्भारिः। अवस्यूः। असि। दुवस्वान्। शुन्ध्यूः। असि। मार्जालीयः। सम्राडिति सम्ऽराट्। असि। कृशानुः। परिषद्यः। परिषद्य इति परिऽसद्यः। असि। पवमानः। नभः। असि। प्रतक्वेति प्रऽतक्वा। मृष्टः। असि। हव्यसूदन इति हव्यऽसूदनः। ऋतधामेत्यृतऽधामा। असि। स्वर्ज्योतिरिति स्वःऽज्योतिः॥३२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे भगवन्! यतस्त्वमुशिगस्यङ्घारिः कविरसि, बम्भारिरवस्यूरसि, दुवस्वान् शुन्ध्यूर्मार्जालीयोऽसि, पवमानः परिषद्योऽसि, यथा प्रतक्वा तथान्तरिक्षप्रकाशका नभोऽसि, यथा हव्यसूदनस्तथा मृष्टोऽसि, यथा स्वर्ज्योतिर्ऋतधामाऽसि तथा सत्यस्थायी वर्त्तसे, तथैव तत्तद्गुणेन प्रसिद्धो भवान् सर्वैरुपासनीयोऽस्तीति विजानीमः॥३२॥
पदार्थः
(उशिक्) कान्तिमान् (असि) (कविः) क्रान्तप्रज्ञः क्रान्तदर्शनो वा (अङ्घारिः) अङ्घस्य कुटिलगामिनो जीवस्यारिः शत्रुः (असि) (बम्भारिः) बन्धस्यारिः, अत्र वर्णव्यत्येन धस्य भः। (अवस्यूः) योऽवसीव्यति तारादितन्तून् सन्तानयति येन वा सः (असि) (दुवस्वान्) दुवः प्रशस्तं परिचरणं विद्यते यस्य सः (शुन्ध्यूः) शुद्धः (असि) (मार्जालीयः) शोधकः। स्थाचतिमृजेरालज्वालञालीयचः। (उणा॰१।११६) अनेन सूत्रेणात्र मृजूष् शुद्धौ इत्यस्मादालीयच् प्रत्ययः। (सम्राट्) यथा सम्यग्राजते तथा (असि) (कृशानुः) तनूकर्त्ता (परिषद्यः) परिषदि भवः (असि) (पवमानः) पवित्रकारकः (नभः) यो नभते हन्ति परपदार्थहर्त्तॄन् सः। नभत इति वधकर्मसु पठितम्। (निघं॰२।१९)। (असि) (प्रतक्वा) यथा प्रतकति प्रकर्षेण हर्षतीति। अत्र अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। [अष्टा॰३.२.७५] इति वनिप्, तथा (मृष्टः) यो मर्षति मार्षयति वा (असि) (हव्यसूदनः) यथा हव्यानि सूदते तथा (ऋतधामा) यथा सत्यं जलं वा दधाति तथा (असि) (स्वर्ज्योतिः) यथा स्वरन्तरिक्षलोकसमूहं द्योतते तथा॥३२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। येन जगदीश्वरेण यादृग्गुणं जगन्निर्मितं तादृग्गुणेन प्रसिद्धः स सर्वैर्मनुष्यैरुपासनीयः॥३२॥
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे भगवन् ! यतस्त्वम् उशिक् कान्तिमान् असि,अंघारिः अंघस्य=कुटिलगामिनो जीवस्यारि:=शत्रु : कविः क्रान्तप्रज्ञः क्रान्तदर्शनो वा असि, बम्भारिः बन्धस्यारि: अवस्यू: योऽवसीव्यति तारादितन्तून् सन्तानयति येन वा सः असि, दुवस्वान् दुवः=प्रशस्तं परिचरणं विद्यते यस्य सः शुन्ध्यू: शुद्ध: मार्जालीयः शोधकः असि, [सम्राट्] यथा सम्यग् राजते तथा [कृशानु:] तनूकर्त्ता [असि] पवमानः पवित्रकारक: परिषद्यः परिषदि भवः असि। यथा प्रतक्वा यथा प्रतकति=प्रकर्षेण हर्षतीति तथान्तरिक्षप्रकाशको नभः यो नभते=हन्ति परपदार्थहर्तृन् सः असि, यथा हव्यसूदनः यथा हव्यानि सूदते तथा मृष्टः यो मर्षति मर्षयति वा असि। यथा स्वर्ज्योतिः यथा स्वरन्तरिक्षलोकसमूहं द्योतते तथा,ऋतधामा यथा सत्यं जलं वा दधाति तथा, असि। तथा सत्यस्थायी वर्तसे तथैव तत्तद्गुणेन प्रसिद्धो भवान् सर्वैरुपासनीयोऽस्तीति विजानीमः॥५ । ३२ ॥ [हे भगवन्! यतस्त्वमुशिगसि........ऋतधामासि=तथासत्यस्थायी वर्तसे तथैव तत्तद्गुणेन प्रसिद्धो भवान् सर्वैरुपासनीयोऽस्ति]
पदार्थः
(उशिक्) कान्तिमान् (असि) (कवि:) क्रान्तप्रज्ञः कान्तदर्शनो वा (अंघारिः) अंघस्य=कुटिलगामिनो जीवस्यारि: शत्रु: (असि) (बम्भारिः) बन्धस्यारिः। अत्र वर्णव्यत्ययेन धस्य भः (अवस्यू:) योऽवसीव्यति तारादितन्तून् सन्तानयति येन वा सः (असि) (दुवस्वान्) दुवः=प्रशस्तं परिचरणं विद्यते यस्य सः (शुन्ध्यू:) शुद्ध: (असि) (मार्जालीयः) शोधकः। स्थाचतिमृजेरालचघालञालीयवः। उ० १ । ११६।अनेन सूत्रेणात्र मृजूष् शुद्धौ इत्यस्मादालीयच् प्रत्ययः (सम्राट्) यथा सम्यग्राजते तथा (असि) (कृशानु:) तमूकर्त्ता (परिषद्यः) परिषदि भवः (असि) (पवमानः) पवित्रकारकः (नभः) यो नभते=हन्ति परपदार्थहर्त्तृन् सः। नभत् इति वधकर्मसु पठितम् ॥ निघं० २। १९॥ (असि) (प्रतक्वा) यथा प्रतकति=प्रकर्षेण हर्षतीति । अत्रान्येभयोपि दृश्यन्त इति वनिप्, तथा (मृष्टः) यो मर्षति मर्षयति वा (असि) (ऋतधामा) यथा सत्यं जलं वा दधाति तथा (असि) (स्वर्ज्योतिः) यथा स्वरन्तरिक्षलोकसमूहं द्योतते तथा ।। ३२।।
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः ।। येन जगदीश्वरेण यादृग्गुणेन जगन्निर्मितं तादृग्गुणेन प्रसिद्धः स सर्वैर्मनुष्यैरुपासनीयः ।। ५ । ३२ ।।
विशेषः
मधुच्छन्दाः। अग्निः=ईश्वरो विद्वांश्च ॥ स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप्। धैवतः ॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे जगदीश्वर! जिस कारण आप (उशिक्) कान्तिमान् (असि) हैं, (अङ्घारिः) खोटे चलन वाले जीवों के शत्रु वा (कविः) क्रान्तप्रज्ञ (असि) हैं, (बम्भारिः) बन्धन के शत्रु वा (अवस्यूः) तारादि तन्तुओं के विस्तार करने वाले (असि) हैं, (दुवस्वान्) प्रशंसनीय सेवायुक्त स्वयं (शुन्ध्यूः) शुद्ध (असि) हैं, (मार्जालीयः) सब को शोधने वाले (सम्राट्) और अच्छे प्रकार प्रकाशमान (असि) हैं, (कृशानुः) पदार्थों को अति सूक्ष्म (पवमानः) पवित्र और (परिषद्यः) सभा में कल्याण करने वाले (असि) हैं, जैसे (प्रतक्वा) हर्षित और (नभः) दूसरे के पदार्थ हर लेने वालों को मारने वाले (असि) हैं, (हव्यसूदनः) जैसे होम के द्रव्य को यथायोग्य व्यवहार में लाने वाले और (मृष्टः) सुख-दुःख को सहन करने और कराने वाले (असि) हैं, जैसे (स्वर्ज्योतिः) अन्तरिक्ष को प्रकाश करने वाले और (ऋतधामा) सत्यधाम युक्त (असि) हैं, वैसे ही उक्त गुणों से प्रसिद्ध आप सब मनुष्यों को उपासना करने योग्य हैं, ऐसा हम लोग जानते हैं॥३२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिस परमेश्वर ने समस्त गुण वाले जगत् को रचा है, उन्हीं गुणों से प्रसिद्ध उसकी उपासना सब मनुष्यों को करनी चाहिये॥३२॥
विषय
ऋतधाम स्वर्ज्योतिः
पदार्थ
१. हे प्रभो! आप ( उशिक् असि ) = [ वष्टि ] सब जीवों का भला चाहनेवाले हैं, ( कविः ) = [ कौति सर्वा विद्याः ] सृष्टि के आरम्भ में ही सम्पूर्ण ज्ञानों के देनेवाले हैं। इस ज्ञान के द्वारा ही आप कल्याण करते हैं। देवों के रक्षण का प्रकार यह है कि जिसका हित चाहते हैं, उसे सद्बुद्धि प्राप्त कराते हैं।
२. ( अङ्घारिः असि ) = [ अंहसां अरिः ] आप पापों के शत्रु हैं और इस प्रकार ( बम्भारिः ) = [ बिभर्ति विश्वम् ] विश्व का पालन करनेवाले हैं। विश्व का सच्चा पालन तो पाप-नाश से ही होता है। किसी व्यक्ति का सच्चा भरण यही है कि उसकी पापवृत्ति को दूर कर दिया जाए।
३. ( अवस्यूः असि ) = [ अवः अन्नमिच्छति, रक्षणं वा ] आप सबके लिए अन्न चाहनेवाले हैं। इस अन्न के द्वारा सबका रक्षण चाहते हैं और ( दुवस्वान् ) = हविष्मान् हैं [ दुव इति हविर्नाम ]। वस्तुतः जब हम इन देवों से प्राप्त अन्नों को हविरूप बनाकर यज्ञ में आहुति देते हैं तब ये देव उन हवियों से भावित होकर हमें फिर अन्न प्राप्त कराते हैं। प्रभु हमें अन्न प्राप्त कराने के लिए हवि देनेवाला बनाते हैं।
४. ( शुन्ध्यूः असि ) = [ शुद्धः, शुन्धयति ] आप पूर्ण शुद्ध हैं, और अतएव ( मार्जालीयः ) = [ मार्ष्टि ] शुद्ध करनेवाले हैं।
५. ( सम्राट् असि ) = [ सम्यग्राजते ] आप अपनी शक्ति से देदीप्यमान हैं और ( कृशानुः ) = [ शत्रुं कर्शयति ] शत्रुओं के क्षीण करनेवाले तथा [ कृशम् आनयति ] दुर्बलों को प्राणित करनेवाले हैं। शक्ति के दो सुन्दर प्रयोग हैं। [ क ] शत्रुओं को कृश करना तथा [ ख ] निर्बलों को प्रोत्साहित करना।
६. ( परिषद्यः असि ) = [ परि सीदन्ति इति, तेषु साधुः ] चारों ओर होनेवालों में उत्तम हैं। दिशा-काल-आकाश आदि हमारे चारों ओर होनेवाले पदार्थों में प्रभु उत्तम हैं। ये हमारे चारों ओर होकर हमें मृत्यु से बचाते हैं, ( पवमानः ) = हमारे जीवनों को पवित्र करते हैं। जब उपासक अपने को प्रभु में अनुभव करता है तब उसकी पापवृत्ति शान्त हो जाती है।
७. ( नभः असि ) = [ नभ् = to kill, nip ] आप सब विघ्नों की हिंसा करनेवाले हैं और ( प्रतक्वा ) = प्रकृष्ट गतिवाले हैं। प्रभु उपासकों के मार्ग के विघ्नों को हिंसित करके उन्हें उन्नति-पथ पर आगे ले-चलते हैं।
८. ( मृष्टो असि ) = [ मृष् तितिक्षायाम् ] अत्यन्त सहनशील हैं और ( हव्यसूदनः ) = [ सूदः+पाचकः ] दानपूर्वक अदन के योग्य पदार्थों के पकानेवाले हैं। वस्तुतः हव्य पदार्थों के प्रयोग द्वारा हमें सहनशील बनना है।
८. ( ऋतधामा असि ) = ऋत के आप धारण करनेवाले हैं और ( स्वर्ज्योतिः ) = स्वयं देदीप्यमान ज्योति हैं। जो भी ऋत का पालन करता है वह ज्योतिर्मय जीवनवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ — हे प्रभो! ‘उशिग्’ आदि शब्दों से आपका स्मरण करता हुआ मैं भी वैसा ही बन पाऊँ।
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे सर्वप्रिय ! आप (उशिक् असि) कमनीय स्वरूप, अर्थात् सब लोग जिसको चाहते हैं, क्योंकि आप (कविः) पूर्ण विद्वान् हो तथा आप (अङ्घारिः असि) स्वभक्तों का जो अघ [पाप] उसके अरि [शत्रु] हो, अर्थात् सर्वपापनाशक हो तथा (बम्भारिः) स्वभक्तों और सर्वजगत् का पालन तथा धारण करनेवाले हो, (अवस्यूरसि दुवस्वान्) आप स्वभक्तों, धर्मात्माओं को अन्नादि पदार्थ देने की इच्छा सदा करते हो तथा परिचरणीय विद्वानों से [परिचारित] सेवनीयतम हो। (शुन्ध्युरसि, मार्जालीयः) शुद्धस्वरूप और सब जगत् के शोधक तथा पापों का मार्जन (निवारण) करनेवाले आप ही हो, अन्य कोई नहीं। (सम्राडसि कृशानुः) सब राजाओं के महाराज तथा कृश = दीनजनों के प्राणों के सुखदाता आप ही हो, "परिषद्योसि पवमानः " हे न्यायकारिन्! पवित्र सभास्वरूप, सभा के आज्ञापक, सभ्य, सभापति, सभाप्रिय, सभारक्षक- सभा से ही सुखदायक आप ही हो तथा पवित्रस्वरूप, पवित्रकारक, पवित्रताप्रिय आप ही हो। (नभोऽसि) हे निर्विकार ! आकाशवत् व्यापक, क्षोभरहित, अतिसूक्ष्म होने से आपका नाम (नभ) है तथा (प्रतक्का) सबके ज्ञाता, सत्यासत्यकारी जनों के कर्मों की साक्ष्य रखनेवाले कि जिसने जैसा पाप वा पुण्य किया हो, उसको वैसा फल मिले, अन्य का पुण्य वा पाप अन्य को कभी न मिले । (मृष्टोसि हव्यसूदनः) मृष्ट=शुद्धस्वरूप, सब पापों के मार्जक, शोधक तथा मिष्ट, सुगन्ध, रोगनाशक,पुष्टिकारक - इन द्रव्यों से वायु-वृष्टि की शुद्धि करनेकरानेवाले आप ही हो, अतएव सब द्रव्यों के विभागकर्ता भी आप ही हो, इससे आपका नाम (हव्यसूदन) है । (ऋतधामासि) हे भगवन् ! आपका ही धाम-स्थान सर्वगत सत्य और यथार्थ स्वरूप है, यथार्थ [सत्य] व्यवहार में ही आप निवास करते हो, मिथ्या में नहीं। (स्वः) आप सुखस्वरूप और सुखकारक हो तथा (ज्योतिः) स्वप्रकाश' और सबके प्रकाशक आप ही हो ॥ १७ ॥
टिपण्णी
१. स्वप्रकाश — अपने ही ज्ञान से प्रकाशित ।
विषय
राजा के कुछ उच्च अधिकारसूचक पद ।
भावार्थ
हे राजन् ! तू ( उशिग् ) सबका वश करने हारा एवं कान्ति- मानू. तेजस्वी और ( कविः ) कान्तदर्शी, मेधावी ( असि ) है। तू ( अंधारिः )अंघ अर्थात् पापी कुटिल जीवों या पापों का अरि शत्रु है । और ( बम्भारिः ) पापी दुष्ट पुरुषों का बांधने वाला या सबका भरण पोषण करने में समर्थ हौ
| तू ( अवस्यूः ) अपने नीचे के समस्त कार्य कर्त्ताओं को सिये रहता या परस्पर संयुक्त किये रहने में समर्थ या ( अवस्युः ) रक्षा करने में समर्थ है और (दुवस्वान् ) अन्न या सेवा करने योग्य ऐश्वर्य गुण से युक्त है। तू. ( शुन्घ्युः ) स्वयं शुद्ध, निष्पाप और ( मार्जालीयः )अन्यों का भी शोधन करने हारा पापों को पता लगाकर उनका दण्ड देकर पापों का शोधने हारा ( असि ) है । तू ( परिषद्यः ) परिषद् विद्वानों की सभा में विराजने हारा है, उस द्वारा राजा बनाया जाता है और तू ( पवमानः ) सत्या सत्य का निर्णय करके सत्य के बल से पवित्र करने वाला है । तू ( नभः ) सबको परस्पर बांधने, संगठित करने हारा या चोरादि को वध दण्ड देने वाला या उनको बांधने वाला और ( प्रतक्का ) ' उनको खूब अच्छी प्रकार पीड़ा देने वाला ( असि ) है । तू (मृष्टः २ ) सबको सेचन करने हारा, सबका पोषक या सहिष्णु और तितिक्षु और ( ह्व्यसूदनः ) * समस्त अनों और ऐश्वर्य के पदार्थों को क्षरित करने वाला, सबको प्रदान करने वाला ( अलि ) है । (ऋतधामासि ) सत्य का धारण करने वाला सत्य का आश्रय और और जलके धारण करने में समर्थ सूर्य के समान ( स्वज्योतिः ) आकाश में चमकने वाला साक्षात् सूर्य है या (स्वःज्योतिः ) शत्रुओं का उपताप देने हारे प्रचण्ड भानु के समान (असि ) है । ये ही सब विशेषण ईश्वर के भी हैं ।
टिप्पणी
३२ -- १ तकि कृच्छ्र जीवने भ्वादि । २. मृषु सेचने, सहने च भ्वादी । मृषति तिक्षियाम चुरादिः । ३ षूद्र क्षरणे चुरादिः । स्वादिश्व | अग्निदेवता ॥ द०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः। आहवनीयो वहिष्पवमानदेशा: चात्वालीः, शामित्रः, औदुम्बरीय अग्निर्वा देवताः । स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ।
विषय
फिर ईश्वर और विद्वान् कैसे हैं, इस विषय का उपदेश किया जाता है॥
भाषार्थ
हे भगवन्! [ईश्वर वा विद्वान्] आप (उशिक्) कान्तिमान् (असि) हो (अङ्घारिः) कुटिल गति वाले जीव के शत्रु तथा (कवि:) क्रान्तमति का क्रान्तदर्शी (असि) हो, (बम्भारि:) बन्धन से मुक्त करने वाले तथा (अवस्यू:) सुख के तन्तुओं को फैलाने वाले (असि) हो, (दुवस्वान्) पूजा करने के योग्य तथा (शुन्ध्यू:) शुद्ध और (मार्जालीयः) शुद्धि करने वाले (असि) हो [सम्राट्] सब के राजा तथा [कृशानु:] दुष्टों को निर्बल करने वाले [असि] हो (पवमानः) पवित्र करने वाले (परिषद्यः) सभासद् (असि) हो। क्योंकि आप (प्रतक्वा) अत्यन्त हर्षित करने वाले, आकाश के प्रकाशक (नभः) और पर पदार्थों के हर्ता अर्थात् चोरों के हनन करने वाले (असि) हो, (हव्यसूदनः) होम के द्रव्यों को शुद्ध करने वाले तथा (मृष्ट:) सहनशील एवं सहन शक्ति देने वाले (असि) हो। और-- (स्वर्ज्योतिः) अन्तरिक्ष को प्रकाशित करने वाले (ऋतधामा) सत्य वा जल को धारण करनेवाले (असि) हो । और--आप सत्य पर दृढ़ रहने वाले हो, उक्त गुणों से प्रसिद्ध आप सबके उपासनीय हो, ऐसा हम जानते हैं ।। ५। ३२ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है।। जिस जगदीश्वर ने जैसे गुणों वाला जगत् रचा है वैसे गुणों से प्रसिद्ध वह ईश्वर सब मनुष्योंके लिये उपासना के योग्य है ।। ५ । ३२ ।।
प्रमाणार्थ
(बम्भारिः) यहाँ वर्ण-व्यत्यय से धकार को भकार हो गया है। (मार्जालीयः) यह शब्द 'स्थाचतिमृ- जेरालज्वालञालीयचः' (उणा० १।११६) इस सूत्र से शुद्धि अर्थ वाली 'मृजूष्' धातु से 'आलीयच्’ प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है।(नभः) 'नभते पद निघं० (२ । १९) में वध-अर्थ वाली क्रियाओं में पढ़ा है। (प्रतक्वा) यहां 'तक्' धातु से 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते'] [अ० ३ ।२ ।७५] इस सूत्र से 'वनिप्' प्रत्यय है ।। ५ । ३२ ।।
भाष्यसार
१. अग्नि (ईश्वर) कैसा है--भगवान् कान्तिमान्, कुटिलगामी जीवों का शत्रु, क्रान्तप्रज्ञ, क्रान्तदर्शी, बन्धन से मुक्त, तार आदि तन्तुओं का विस्तारक, पूजा के योग्य, शुद्ध, शुद्धकरने वाला, सम्राट्, दुष्टों को निर्बल करने वाला, पवित्रकारक, जगत् रूप परिषद् में विद्यमान, सदा अत्यन्त प्रसन्न,आकाश का प्रकाशक, पर पदार्थों के हर्ता के हन्ता, सहनशील एवं सहनशक्ति के दाता, अन्तरिक्ष लोक समूह के समान प्रकाशित, सत्य को तथा जल आदि जगत् के पदार्थों को धारण करने वाला है। इन गुणों से प्रसिद्ध ईश्वर सबके लिये उपासनीय है। २. अग्नि (विद्वान्) कैसा है--ऐश्वर्यशाली विद्वान् विद्यादि गुणों से कान्तिमान्, कुटिलगामी जीवों का शत्रु, क्रान्तप्रज्ञ क्रान्तदर्शी कवि, बन्धन से मुक्त होने का अभिलाषी, तार आदि तन्तुओं का विस्तारक, सेवा के योग्य, स्वयं सत्यभाषा आदि से शुद्ध तथा उपदेश से सबको शुद्ध करने वाला सम्राट्, दुष्टों को क्षीण करने वाला, पवित्रकारक, सभ्य, सदा हर्षित, आकाश को प्रकाशित करने वाला, पर पदार्थों के हरण करने वाले चोर, डाकू आदि का हन्ता, होम के पदार्थों का शोधक, सहनशील, सूर्यके समान द्युतिमान्, सत्य को धारण करने वाला एवं लौकिक जल आदि पदार्थों से सम्पन्न होता है। इसलिए सबके लिये विद्वान् सत्कार के योग्य होता है। ३. अलङ्कार– इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे जिन-जिन गुणों से प्रसिद्ध है वैसे उन-उन गुणों से उपासनीय है।
अन्यत्र व्याख्यात
महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या आर्याभिविनय (द्वितीय प्रकाश ) में इस प्रकार की है—"हे सर्वप्रिय! आप 'उशिक्' कमनीयस्वरूप अर्थात् सब लोग जिसको चाहते हैं। क्योंकि आपकवि पूर्णविद्वान् हो तथा आप‘अङ्घारि’ हो अर्थात् स्वभक्तों का जो अघ (पाप) उसके अरि (शत्रु) हो। उस समस्त पाप के नाशक हो। तथा 'बम्भारि:' स्वभक्तों और सर्वजगत् के पालन तथा धारण करने वाले हो। 'अवस्युरसि दुवस्वान्' अन्नादि पदार्थ अपने भक्तों धर्मात्माओं को देने की इच्छा सदा करते हो तथा परिचरणीय विद्वानों से सेवनीयतम हो। 'शुन्ध्युरसि मार्जालीयः’शुद्ध स्वरूप और सब जगत् के शोधक तथा पापों का मार्जन (निवारण) करने वाले आप ही हो । अन्य कोई नहीं। 'सम्राडसिकृशानु' सब राजाओं के महाराज तथा कृश दीन जनों के प्राण के सुखदाता आप ही हो । 'परिषद्योऽसि पवमानः' हे न्यायकारिन्! पवित्र परमेश्वर! सभा के आज्ञापक, सभ्य, सभापति, सभाप्रिय, सभारक्षक, आप ही हो तथा पवित्रस्वरूप, पवित्रकारक सभा से ही सुखदायक पवित्रप्रिय आप ही हो । 'नभोऽसि प्रतक्वा' हे निर्विकार! आकाशवत् आप क्षोभरहित, अतिसूक्ष्म होने से आप का नाम ‘नभ’ है तथा 'प्रतक्वा' सबके ज्ञाता, सत्यासत्यकारी जनों के कर्मों को साक्ष्य रखने वाले कि जिसने जैसा पाप वा पुण्य किया हो उसको वैसा फल मिले, अन्य का पुण्य वा पाप अन्य को कभी न मिले । 'मृष्टोऽसि हव्यसूदनः' मृष्ट शुद्ध स्वरूप, सब पापों के मार्जक शोधक तथा 'हव्यसूदनः’ मिष्ट, सुगन्ध, रोगनाशक, पुष्टिकारक इन द्रव्यों से वायु वृष्टि की शुद्धि करने-कराने वाले हो। अतएव सब द्रव्यों के विभागकर्त्ता आप ही हो। इससे आप का नाम 'हव्यसूदन' है। 'ऋतधामासि स्वर्ज्योतिः' हे भगवन्! आपका ही धाम स्थान सर्वजगत् सत्य और यथार्थ स्वरूप है। यथार्थ (सत्य) व्यवहार में ही आप निवासकरते हो । 'स्वः' आप सुखस्वरूप और सुखकारक हों तथा 'ज्योतिः’ स्वप्रकाश और सुख के प्रकाशक आप ही हैं" ।। १७ ।।
मराठी (3)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या परमेश्वराने निरनिराळ्या प्रकारची गुणवैशिष्ट्ये असलेल्या जगाची निर्मिती केलेली आहे. ती ती गुणवैशिष्ट्ये त्या परमेश्वराची आहेत. हे जाणून सर्व माणसांनी त्याची उपासना केली पाहिजे.
विषय
पुनश्च, तो ईश्वर कसा आहे, पुढील मंत्रात याविषयी उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे जगदीश्वर, आपण (उशिक्) कान्तिमान, कीर्तीमान (असि) आहेत, (अंघारिः) कपटपूर्ण आचरण करणार्या प्राण्यांचे वैरी व (कविः) क्रान्तप्रज्ञ (असि) आहेत. (बम्भारिः) बन्धनाचे शत्रू आणि वारा आदी तन्तूंचे विस्तार करणारे (असि) आहात. (दुवस्वान्) प्रशंसनीय व सेवनीय तसेच (सम्राट) उत्तम प्रकाशमान (कीर्तिमान) (असि) आहात. (कृशानुः) पदार्थांना अतिसूक्ष्म करणारे व (पवमानः) पवित्र वा शुद्ध करणारे आहात. (परिषद्यः) सभेमधे-कल्याण कारी (असि) आहात. (विद्वानांना सभा, परिषद आदीमधे ज्ञान व प्रेरणा देणारे आहात) (प्रतक्वा) हर्ष व नित्य आनन्दयुक्त आहात आणि (नभः) दुसर्याच्या पदार्थांचे हरण करणार्या चोर, दुष्ट आदींचा नाश करणारे (असि) आहात. (हव्यसूदनः) होम करण्यास योग्य अशा द्रव्यादीचे प्रदाता, उत्पत्तिकर्ता आणि (मृष्टः) आम्हास सुख आणि दुःख सहन करण्याची शक्ती देणारे (असि) आहात,(स्वज्यातिः) अंतरिक्षाला प्रकाशित करणारे (ऋतधामा) सत्य धामयुक्त (असि) आहात. या सर्व गुणांनी युक्त असे आपणच सर्व मनुष्यांकरिता एकमेव उपास्यदेव आहात. आम्ही आपणांस याच प्रकारे जाणतो व मानतो. ॥32॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ज्या परमेश्वराने संपूर्ण गुणांनी समृद्ध अशा जगाची रचना केली आहे, सर्व मनुष्यांनी संपूर्ण गुणवान अशा त्या परमेश्वराची उपासना केली पाहिजे ॥32॥
विषय
स्तुती
व्याखान
हे सर्व प्रिय ईश्वरा! (उशिक्) तू कमनीय स्वरूप आहेस, अर्थात सर्व लोक ज्याची कामना करतात असा तू (कविः) पूर्ण विद्वान आहेस. तू (अङ्घारिः) आहेस, स्वतःच्या शक्तांच्या पापाचा शत्रू आहेस, सर्व पापनाशक आहेस. (बम्भारिः) स्वतःच्या भक्ताचा व सर्व जगाचा पालनकर्ता आहेस. (अवस्यूरसि दुवस्वान्) आपल्या भक्तांना व धर्मात्मा लोकांना अन्न इत्यादीची कधीच उणीव भासू देत नाहीस. तर त्यांना दान करण्याची इच्छाच बाळगतोस, तू तुझ्या अनुयायी विद्वानांकडून अनुसरण योग्य आहेस. (शुन्ध्यूरसि, मार्जालीयः) तू शुद्ध स्वरूप असून जगाला पवित्र करून पापाचे निवारण करणारा आहेस असा दुसरा कोणीही नाही. (सम्राडसि कृशानुः) तू सर्व राजांमध्ये सम्राट असून दीन दुबळ्यांना प्राणदाता आहेस. (परिषद्योसि पवमानः) हे न्यायी पवित्र परमेश्वरा त सभ्य, सभापती, समाप्रिय समेला आज्ञा करणारा व सभेचा रक्षक आहेस. पकिन स्वरूप असून पवित्र करणारा आहेस, सभेद्वारे सुख देणारा पवित्र ब प्रिय आहेस. (नभोऽसि प्रतक्वा) हे निर्विकार ईश्वरा ! तू आकाशाप्रमाणे (प्रतक्वा) सर्वाच्या सर्व गोष्टी जाणणारा आहेस. सत्यासत्य कर्म करणाऱ्या लोकांचा साक्षीदार आहेस, ज्याने जसे कर्म केले त्याला तसेच फळ मिळणार दुसऱ्याचे मिळणार नाही, हा तुझा नियम आहे. (मृष्टोसि हव्यसूदनः) तू शुद्धस्वरूप सर्व पापांचे मार्जन करणारा व शोधक आहेस. (हव्यसूदनः) तू सुगंधित रोगनाशक, पुष्टिनाशक अशा द्रव्यांनी वायू वृष्टीची शुद्धी करणारा ब करविणारा आहेस सर्व द्रव्यांचे विभाजन करणाराही तूच आहेस त्यामुळे तुझे नाव (हव्यसूदन) आहे. (ऋतधामासि स्वर्ज्योतिः) हे भगवंता ! तुझेधागे सर्वव्यापक सत्य व यथार्थस्वरूप आहेत. यथार्थ सत्य व्यवहारातच तू निवास करतोस. (स्वः) तू सुखस्वल्प व सुखकारक आहेस. (ज्योतिः) तू स्वप्रकाशित असून सर्वाना प्रकाशित करणारा आहेस ॥१७॥
इंग्लिश (4)
Meaning
O God, Thou art Effulgent, Wise, hostile to the sinners, enemy of thraldom, the Unifier and Protector of all. Thou art fit for service by us. Thou art Pure and Purifier. Thou art a Just Ruler ; and the Prop of the weak. Thou art adored in Assemblies. Thou art the Giver of holiness, the Chastiser of thieves and robbers and Bestower of joy. Thou givest us strength to endure pleasure and pain ; and grantest us splendour. Thou art the abode of Truth, and Giver of lustre to the sky.
Meaning
Agni, you are the lord of light, eternal poet of vision and creation, enemy of sin and evil, deliverer from bondage, protector from suffering, adorable, edifying purifier and sanctifier. Self-refulgent, you burn away the dirt, wash away and dry up pollution; centre- presence of the assembly, you emanate joy; light of the sky, you refine the yajna and carry it in space. Light of heaven and abode of the eternal law of Dharma, you are the spirit of patience and the power of endurance.
Purport
O God I Dear to all I You are most desirable by your very nature i.e. everyone wishes to have a vision of yours, because you are the most learned-possessor of infinite Attributes. You are the foe of the sins of your devotees i.e. You are the destroyer of all their sins. You are the Sustainer and Protector of your devotees and all the universe. You are always desirous of providing commodities like corn etc. to righteous and venerable devotees. You are worthy of being served by the learned. You are Holy by nature, purifier of the whole world, and the destroyer of the sins, none else. You are the King of the kings and bestower of happiness to the souls of the to the souls of the poor and weak.
O Dispenser of Justice, the holy guide of the world assembly, Ordainer of the assembly, Trustworthy head of the assembly, Beloved of the assembly, Protector of the assembly, and Bestower of happiness through the and lover assembly. You are also Pure by nature, of purity. O the unchangeable You are with agitation [unperturbable], envolping like the sky. Being most subtle your name is 'Nabha'. You are knower of all. You are witness of the actions of right and wrong-doers, so that whatever good or bad deed one has committed, he should get the same reward. The reward of one's action should not accrue to anyone else.
You are pious by nature and cleanser of sins, the Purifier of air-currents and rainfall by spreading in the atmosphere sweet fragrant, disease-preventive and nutritive materials. You are the decomposor [splitting in atoms] of all kinds of material and therefore, your
name is 'Havyesudana'. O God Almighty! Your abode-dwelling place is truth and truth alone. You dwell in your real nature. You dwell in truthful behaviour not in falsehood. You are Absolute bliss by nature and Bestower of bliss in the world. You are Self-Effulgent by nature and illuminator of all.
Translation
О Lord, you are the yearning one, the sage. (1) You are the enemy of the sin, the nourisher. (2) You are the bestower of food, the possessor of supplies. (3) You are the cleanser, the cleansing place. (4) You are a sovereign, the glowing fire. (5) You are a member of the assembly, the рuге one. (6) You are the sky, the pleasure-showering. (7)
Notes
Usik, one who yearns. anghagh, enemy of the sin. Bambharih, nourisher, sustainer. Avasyuh, bestower of food. Marjaliyeh, cleaning place. Pratakva, pleasure-showering. Mrstah, cleansed; swept clean. Svarjyotih, light and lustre of heaven.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তৌ কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় তাহারা কেমন, এই বিষয়ে উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে জগদীশ্বর! যে কারণে আপনি (উশিক্) কান্তিমান (অসি) হন, (অন্ধারি) নিম্নচলন সম্পন্ন জীবদিগের শত্রু বা (কবিঃ) স্থিতপ্রজ্ঞ (অসি) হন, (বম্ভারিঃ) বন্ধনের শত্রু অথবা তারাদি তন্তুসকলের বিস্তারকারী (অসি) হন, (দুবস্বান্) প্রশংসনীয় সেবাযুক্ত স্বয়ং (শুন্ধূ্যঃ) শুদ্ধ (অসি) হন, (মার্জালীয়ঃ) সকলের শোধনকারী (সম্রাট্) এবং ভাল প্রকার প্রকাশমান (অসি) হন, (কৃশানুঃ) পদার্থগুলিকে অতি সূক্ষ্ম (পবমানঃ) পবিত্র ও (পরিষদ্যঃ) সভায় কল্যাণকারী (অসি) হন, যেমন (প্রতক্বা) হর্ষিত এবং (নভঃ) অন্যের পদার্থ হরণকারীর বধকারী (অসি) হন, (হব্যসূদনঃ) যেমন হোমের দ্রব্যকে যথাযোগ্য ব্যবহারকারী এবং (মৃষ্টঃ) সুখ দুঃখ সহন করিবার এবং করাইবার (অসি) হন, যেমন (স্বর্জ্যোতিঃ) অন্তরিক্ষের প্রকাশকারী এবং (ঋতধামা) সত্যধামযুক্ত (অসি) হন, সেইরূপ উক্ত গুণে প্রসিদ্ধ আপনি সকল মনুষ্যের উপাসনা করিবার যোগ্য এইরূপ আমরা জানি ॥ ৩২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যে পরমেশ্বর সমস্ত গুণযুক্ত জগৎকে রচিয়াছেন সেই সব গুণ দ্বারা প্রসিদ্ধ তাঁহার উপাসনা সকল মনুষ্যদিগকে করা উচিত ॥ ৩২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উ॒শিগ॑সি ক॒বিরঙ্ঘা॑রিরসি॒ বম্ভা॑রিরব॒সূ্যর॑সি দুব॑স্বাঞ্ছু॒ন্ধূ্যর॑সি মার্জা॒লীয়ঃ॑ । স॒ম্রাড॑সি কৃ॒শানুঃ॑ পরি॒ষদ্যো॑ऽসি॒ পব॑মানো॒ নভো॑ऽসি প্র॒তক্বা॑ মৃ॒ষ্টো᳖ऽসি হব্য॒সূদ॑নऽঋ॒তধা॑মাসি॒ স্ব᳖র্জ্যোতিঃ ॥ ৩২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উশিগসীত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । স্বরাড্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे सर्वप्रिय ! तपाईं उशिक् असिः =कमनीयस्वरूप अर्थात् सम्पूर्ण जनता ले जसलाई चाहन्छन् किनकि तपाईं कविः = पूर्ण विद्वान् हुनुहुन्छ तथा तपाईं अङ्घारिः असिः = स्वभक्तजन हरु को जुन् अघः [पाप] छ तेसका अरि [शत्रु] हुनुहुन्छ, अर्थात् सर्व पाप -नाशक हुनुहुन्छ तथा वम्भारिः = स्वभक्त हरु र सर्वजगत् का पालन र धारणकर्ता हुनुहुन्छ । अव स्यूरसि दुवस्वान् = तपाईं सदा स्वभक्तजन र धर्मात्मा हरु लाई सदा अन्नादि पदार्थ दिने इच्छा गर्नु हुन्छ तथा परिचरणीय विद्वान् हरु द्वारा [ परिचारित] सेवनीयतम् हुनुहुन्छ । शुन्ध्यूरसि मार्जालीयः = शुद्धस्वरूप र समस्त जगत् का शोधक तथा पाप हरु लाई मार्जन [निवारण] गर्नुहुने प्रभु नै हुनुहुन्छ, अर्को कुनै छैन । सम्राडसि कृशानुः = सम्पूर्ण राजा हरु का महाराज तथा कृश= दीनजन हरु का प्राण का सुख दाता तपाईं नै हुनुहुन्छ, परिषद्योसि पवमानः = हे न्यायकारिन् ! पवित्र सभास्वरूप, सभा का आज्ञापक [आज्ञा दिने] सभ्य, सभापति, सभारक्षक, सभा बाट नै सुखदिने तपाईं नै हुनुहुन्छ, तथा पवित्रस्वरूप, पवित्रकारक र पवित्रता प्रिय पनि तपाईं नै हुनुहुन्छ नभोऽसि = हे निर्विकार ! आकाशवत् व्यापक क्षोभ रहित, अतिसूक्ष्म हुनका कारण तपाईंको नाम 'नभ' हो तथा प्रतक्वा = सबैका ज्ञाता, सत्यासत्यकारी मानिस हरु का कर्म हरु को साक्ष राखने जसले जसतो पाप वा पुण्य गरेको छ तेसलाई तेस्तै फल नमिल्ने । अर्का को पुण्य वा पाप को फल अर्का लाई कहिल्यै नमिल्ने । मृष्टोऽसि हव्यसूदनः= मृष्ट सबै पाप हरु शुद्धस्वरूप, का मार्जक, शोधक तथा मिष्ट, सुगन्धित, रोगनाशक, पुष्टिकारक ई द्रव्य हरु द्वारा वायु एवं वृष्टि लाई शुद्धि गर्ने गराउने तपाईं नै हुनुहुन्छ, एस कारण तपाईं को नाम “हव्यसूदन" हो । ऋतधामासि= हे भगवन् ! तपाईंको धाम = स्थान नै सर्वगत सत्य र यथार्थ स्वरूप, हो, यथार्थ (सत्य) व्यवहार मा नै तपाईं निवास गर्नु हुन्छ, मिथ्या मा गर्नुहुन्न । स्वः = तपाईं सुखस्वरूप र सुखकारक हुनुहुन्छ तथा ज्योतिः - स्वप्रकाश र सबैका प्रकाशक पनि तपाईं नै हुनुहुन्छ ॥१७॥
टिप्पणी
१ शतपथः ४।३।४।१५
१ स्वप्रकाश= आफ्नै ज्ञानले प्रकाशित |
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