यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 20
ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - विराट् आर्ची त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
2
प्र तद्विष्णु॑ स्तवते वी॒र्य्येण मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः। यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेष्वधिक्षि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥२०॥
स्वर सहित पद पाठप्र। तत्। विष्णुः॑। स्त॒व॒ते॒। वी॒र्ये᳖ण। मृ॒गः। न। भी॒मः। कु॒च॒रः। गि॒रि॒ष्ठाः। गि॒रि॒स्था इति॑ गिरि॒ऽस्थाः। यस्य॑। उ॒रुषु॑। त्रि॒षु। वि॒क्रम॑णे॒ष्विति॑ वि॒ऽक्रम॑णेषु। अ॒धि॒क्षि॒यन्तीत्य॑धिऽक्षि॒यन्ति॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥२०॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तद्विष्णु स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः । यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र। तत्। विष्णुः। स्तवते। वीर्येण। मृगः। न। भीमः। कुचरः। गिरिष्ठाः। गिरिस्था इति गिरिऽस्थाः। यस्य। उरुषु। त्रिषु। विक्रमणेष्विति विऽक्रमणेषु। अधिक्षियन्तीत्यधिऽक्षियन्ति। भुवनानि। विश्वा॥२०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेषु विश्वानि भुवनान्यधिक्षियन्ति, यश्चासौ विष्णुर्वीर्येण भीमः कुचरो गिरिष्ठा मृगो न सिंह इव विचरन्नुपदिशति, तत् तस्मात् स नैव कदापि विस्मरणीयः॥२०॥
पदार्थः
(प्र) प्रकृष्टार्थे (तत्) तस्मात् (विष्णुः) व्यापकेश्वरः (स्तवते) स्तौत्युपदिशति। अत्र बहुलं छन्दसि। [अष्टा॰२.४.७३] इति शपो ह्यलुक्। (वीर्येण) पराक्रमेण (मृगः) यो मार्ष्ट्यन्विच्छति वधाय जीवानिति ईश्वरपक्षे तु मार्ष्टि व्यवस्थापनाय जीवानिति (न) इव (भीमः) बिभ्यति जीवा अस्मादिति व्याघ्रः। भीमादायोऽपादाने। [अष्टा॰३.४.७५] इति निपातनात्। (कुचरः) यः कुत्सितं प्राणिवधं चरति। (गिरिष्ठाः) गिरौ तिष्ठतीति। क्विबन्तोऽयं प्रयोगः। (यस्य) (उरुषु) बहुषु (त्रिषु) त्रिविधेषु जगत्सु (विक्रमणेषु) विविधक्रमेषु (अधिक्षियन्ति) निवसन्ति (भुवनानि) लोकजातानि (विश्वा) सर्वाणि। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। ३। २३) व्याख्यातः॥२०॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा सिंहः स्वपराक्रमेण यथेष्टं विक्रमते, तथैव जगदीश्वरः खलु पराक्रमेण सर्वान् लोकान् नियच्छति॥२०॥
विषयः
पुनः स कथंभूत इत्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
यस्योरुषु बहुषु त्रिषु त्रिविधेषु जगत्सु विक्रमणेषु विविधक्रमेषु [विश्वा]=विश्वानि सर्वाणिभुवनानि लोकजातानि (अधिक्षियन्ति) निवसन्ति, यश्चासौ विष्णुः व्यापकेश्वरः वीर्येण पराक्रमेण भीमः बिभ्यति जीवा अस्मादिति व्याघ्र कुचरः यः कुत्सितं प्राणिवधं चरति गिरिष्ठा: गिरौ तिष्ठतीति मृगो न=सिंह इव, मार्ष्ट्यन्विच्छति वधाय जीवानिति, ईश्वरपक्षे तु मार्ष्टि व्यवस्थापनाय जीवानिति विचरन् [प्रस्तवते]=उपदिशति प्रकृष्टतयास्तौति=उपदिशति [तत्]=तस्मात् स नैव कदापि विस्मररणीयः ।। ५ । २० ।। [यस्य.......त्रिषु विक्रमणेषु [विश्वा]=विश्वानि भुवनान्यधिक्षियन्ति, यश्चासौ विष्णुर्वीर्येण........मृगो न=सिंहइव विचरन् [प्रस्तवते]=उपदिशति]
पदार्थः
(प्र) प्रकृष्टार्थे (तत्) तस्मात् (विष्णु) व्यापकेश्वर: (स्तवते) स्तौत्युपदिशति। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो ह्यलुक् (वीर्येण) पराक्रमेण (मृगः) यो मार्ष्ट्यन्विच्छति बधाय जीवानिति ईश्वरपक्षे तु मार्ष्टि व्यवस्थापनाय जीवानिति (न) इव (भीमः) बिभ्यति जीवा अस्मादिति व्याघ्रः। भीमादयोऽपादान इति निपातनात् (कुचरः) यः कुत्सितं प्राणिवधं चरति। (गिरिष्ठाः) गिरौ तिष्ठतीति। क्विबन्तोऽयं प्रयोगः (यस्य) (उरुषु) बहुषु (त्रिषु) त्रिविधेषु जगत्सु (विक्रमणेषु) विविधक्रमेषु (अधिक्षियन्ति) निवसन्ति (भुवनानि) लोकजातानि (विश्वा) सर्वाणि ॥ अयं मंत्रः शत० ३। ४। ३। २३ व्याख्यातः ।। २०।।
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः॥ यथा सिंहः स्वपराक्रमेण यथेष्टं विक्रमते तथैव जगदीश्वरः खलु पराक्रमेण सर्वान् लोकान् नियच्छति।। ५ । २० ।।
विशेषः
औतथ्यो दीर्घतमाः। विष्णु:=ईश्वरः॥ विराडार्षी त्रिष्टुप्। पञ्चमः।
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(यस्य) जिसके (उरुषु) अत्यन्त (त्रिषु) (विक्रमणेषु) विविध प्रकार के क्रमों में (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक (अधिक्षियन्ति) निवास करते हैं. और वह (विष्णुः) व्यापक ईश्वर (वीर्येण) अपने पराक्रम से (भीमः) भय करने वाले (कुचरः) निन्दित प्राणिवध को करने और (गिरिष्ठाः) पर्वत में रहने वाले (मृगः) सिंह के (न) समान पापियों को घोर दुःख देता हुआ (प्रस्तवते) उपदेश करता है, (तत्) इससे उसको कभी न भूलना चाहिये॥२०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सिंह अपने पराक्रम से अपनी इच्छा के समान अन्य पशुओं का नियम करता फिरता है वैसे जगदीश्वर अपने पराक्रम से सब लोकों का नियम करता है॥२०॥
विषय
विष्णु के तीन विक्रमण
पदार्थ
वह ( विष्णुः ) = सर्वव्यापक प्रभु ( मृगः ) = [ मार्ष्टि ] हमारे जीवन का शोधन करनेवाले हैं। प्रभु के स्मरण से वासनाओं का विनाश हो जाता है।( न भीमः ) = वे प्रभु हमारे लिए भयंकर नहीं हैं, वे तो पुत्रों के लिए पिता के समान हैं। ( कुचरः ) = [ कौ चरति ] वे प्रभु सम्पूर्ण पृथिवी पर विचरण करनेवाले हैं [ क्वायं चरतीति ]। सर्वव्यापक होते हुए भी न जाने कहाँ हैं। अदृश्य होने से ऐसा ही कहना पड़ता है। ( गिरिष्ठाः ) = वे प्रभु वेदवाणी में स्थित हैं। सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति = सारे वेद उस प्रभु का प्रतिपादन कर रहे हैं। [ देहोऽपि गिरिरुच्यते—उ० ] वे प्रभु ‘इस शरीर में स्थित हैं। आश्चर्य तो यही है कि समीप-से-समीप हमारे ही शरीर में होते हुए दूर-से-दूर हैं—अदृश्य हैं। ये विष्णु वे हैं ( यस्य ) = जिनके ( त्रिषु ) = तीन ( उरुषु ) = विस्तृत ( विक्रमणेषु ) = विक्रमरूप लोकों में ( विश्वानि ) = सब ( भुवनानि ) = [ भूतजातानि ] प्राणी ( अधिक्षियन्ति ) = निवास करते हैं। ( तत् ) = [ तस्मात् ] अतः वे विष्णु ( वीर्येण प्रस्तवते ) = अपने वीरतापूर्ण कर्मों के कारण स्तुत किये जाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ — वे प्रभु हमारे जीवनों को शुद्ध बनाते हैं। क्या भूपृष्ठ पर, क्या पर्वतशिखर पर वे सर्वत्र विद्यमान हैं। ये तीनों लोक प्रभु के ही तीन विक्रमण हैं। इन्हीं में सब प्राणियों का निवास है।
विषय
व्यापक ईश्वर की महान् शक्ति ।
भावार्थ
( यस्य ) जिसके ( उरुष ) महान् (त्रिषु विक्रमणेषु ) तीन प्रकार के विक्रम, तीन लोक या सत्व, रजस, तमस् त्रिगुणात्मक सर्ग में ( विश्वा भुवनानि ) समस्त उत्पन्न होने वाले पदार्थ और लोक ( अधि- क्षियन्ति ) निवास करते हैं । (तद् ) वह ( विष्णु: ) व्यापक परमेश्वर अपने महान् ( वीर्येण ) सामर्थ्य के कारण ( कुचरः ) बनादि में विचरने वाले ( गिरिष्ठा: ) पर्वतों के वासी ( भीमः मृगः न ) भयानक व्याघ्र या सिंह के समान ( कुचरः ) पृथिव्याकाशादि में व्यापक ( गिरिष्ठा: ) समस्त वेदवाणियों में प्रतिपाद्यरूप से स्थित ( प्र स्तवते ) सबसे उत्कृष्टरूप से वर्णन किया जाता है या वह (प्रस्तवते ) सबको उपदेश देता है ॥
राजा के पक्ष में जिस राजा के महान् प्रज्ञा, उत्साह और शक्ति तीन प्रकार के विक्रमों के वश में समस्त लोक प्राणी बसते हैं यह वनचरगिरिगुहावासी सिंह के समान भया वह अपने वीर्य के कारण ही स्तुति को प्राप्त होता है ।
टिप्पणी
१९- २१ दीर्घतमा ऋषिः । द० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः । विष्णुर्देवता । विराड् आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
जिस जगदीश्वर के (उरुषु ) विशाल (त्रिषु ) तीन प्रकार के जगत् के (विक्रमणेषु) चरणों में [विश्वा] सब (भुवनानि) लोक (अधिक्षियन्ति) निवास करते हैं, और जो वह (विष्णुः) व्यापक ईश्वर (वीर्येण) अपने बल से (भीमः) भयंकर (कुचर:) निन्दित प्राणिवध करने वाले (गिरिष्ठाः) पर्वत में रहने वाले (मृगो न) वध के लिये जीवों को ढूंढने वाले सिंह के समान, विचरण करता हुआ [प्रस्तवते] उत्तम उपदेश करता है (तत्) इसलिये उसे कभी नहीं भूलना चाहिये ।। ५ । २० ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है । जैसे सिंह अपने पराक्रम से यथेष्ट विचरण करता है वैसे ही जगदीश्वर भी अपने पराक्रम से सब लोकों को नियम में रखता है ।। ५ । २० ।।
प्रमाणार्थ
(स्तवते) यहाँ'बहुलं छन्दसि [अ० २।४।७३] सूत्र से 'शप्' का लुक् नहीं है। (भीमः) यह शब्द 'भीमादयोऽपादाने' [ अ० ३।४।७४] इस सूत्र द्वारा निपातित है। (गिरिष्ठाः) यह प्रयोग क्विवबन्त है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।५।३।२३) में की गई है ।। ५ । २० ।।
भाष्यसार
१. विष्णु (ईश्वर) कैसा है-- विष्णु अर्थात् व्यापक ईश्वर के रचे हुए तीन प्रकार के जगत् में सब लोक निवास करते हैं। जैसे अपने पराक्रम से जीवों को डराने वाला, प्राणियों का वध करने वाला, पर्वत में रहने वाला, जीवों को वध के लिए ढूंढने वाला सिंह वन में विचरण करताहै वैसे पराक्रमशाली ईश्वर सब लोकों का नियमन करता है। जीवों की व्यवस्था करता है। उन्हें उपदेश करता है। इसलिए उसे कभी न भूलें । जो ईश्वर को भूल जाते हैं वह उनके लिये सिंह के समान भयङ्कर होता है। २. अलङ्कार—यहाँ‘न’पद उपमावाचक है इसलिये उपमा अलङ्कार है। यहाँ ईश्वर की सिंह के साथ उपमा की गई है ।। ५ । २० ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा पराक्रमी सिंह आपल्या इच्छेप्रमाणे सर्व प्राण्यांवर नियंत्रण ठेवतो. तसे परमेश्वर आपल्या सामर्थ्याने सर्व लोकांवर नियंत्रण ठेवतो.
विषय
पुनश्च, तो ईश्वर कसा आहे, हे पुढील मंत्रात विशद केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (यस्य) ज्या ईश्वराच्या (उरूषु) विस्तृत व व्यापक अशा (त्रिषु) (विक्रमणेषु) नियम, व्यवस्था आणि निश्चित क्रमाप्रमाणे (विश्वा) सर्व (भुवनानि) पृथ्वी आदी लोक-लोकान्तर (अधिक्षियन्ति) चालतात, (नियमात राहून परिक्रमण, संचलन, गती आदी कार्यें करतात) आणि (वीर्येण) आपल्या बल-पराक्रमाने (भीमः) भयानक (कुचरः) हिंसा रूप निंदनीय कर्म करणार्या प्राण्यांना ज्याप्रमाणे (गिरिष्ठा) पर्वतांमधे राहणार्या (मृगः) वनराज सिंह आपल्या बल पराक्रमाने वश करतो, (न) त्याप्रमाणे जो ईश्वर पापी व दुष्टजनांचा शोध घेऊन त्यांना दंडित करतो आणि (प्रस्तवते) सर्वांना हितकारी उपदेश देतो, सर्व लोकांनी (तत्) त्या परमेश्वराला कधीही विसरू नये ॥20॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा हा शब्दालंकार वापरला आहे. जसे सिंह स्वेच्छेप्रमाणे पराक्रम गाजवीत अन्य पशूंचे नियमन, निर्बंधन करून सर्वांना राज्य करतो, तसे तो जगदीश्वर देखील स्वबल-सामर्थ्याने सर्व लोकांचे नियंत्रण, निमंत्रण, संचालवादी कर्मे करतो ॥20॥
इंग्लिश (3)
Meaning
God, in whose three-fold world reside all created objects, is praised for His power, like a dreadful, mountain-roaming tiger, that kills the despicable beings. He punishes the sinners, and preaches to all the vedic knowledge.
Meaning
Like an awful mountain lion that roams around in his sole majesty, Vishnu, the omnipresent Lord of tremendous power and glory rules the world and commands the homage of His creatures. All the regions of the world rest in the vast spaces of the three orders of His wonderful creation — the earth, the sky and the heavens.
Translation
May that sun-divine be praised for his might, fierce as а wild beast, terrible in movement, living in mountains: he, in whose three wide strides all these worlds are traversed. (1)
Notes
Viryena, for his might. Kucarah, terrible in movement. Vikramanesu, in wide strides; also, movements.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় তিনি কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–(য়স্য) যাহার (উরুষু) অত্যন্ত (ত্রিষু) (ত্রিবিক্রমণেষু) বিবিধ প্রকার ক্রমের দ্বারা (বিশ্বা) সকল (ভুবনানি) ভুবন (অধিক্ষিয়ন্তি) নিবাস করে এবং (বীর্য়্যেণ) স্বীয় পরাক্রম দ্বারা (ভীমঃ) ভয়কারী (কুচরঃ) নিন্দিত প্রাণিবধকারী এবং (গিরিষ্ঠাঃ) পর্বতে নিবাসকারী (মৃগঃ) সিংহের (ন) সমান পাপীদেরকে খোঁজ করিয়া দুঃখ দিয়া (প্রস্তবতে) উপদেশ প্রদান করে (তৎ) এই জন্য তাহাকে কখনও বিস্মৃত হওয়া উচিত নহে ॥ ২০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যেমন সিংহ নিজ পরাক্রম বলে নিজ ইচ্ছা মত অন্যান্য পশুদের নিয়মন করে সেইরূপ জগদীশ্বর স্বীয় পরাক্রম অনুযায়ী সকল ভুবনের নিয়মন করেন ॥ ২০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
প্র তদ্বিষ্ণু॑ স্তবতে বী॒র্য়্যে᳖ণ মৃ॒গো ন ভী॒মঃ কু॑চ॒রো গি॑রি॒ষ্ঠাঃ ।
য়স্যো॒রুষু॑ ত্রি॒ষু বি॒ক্রম॑ণেষ্বধিক্ষি॒য়ন্তি॒ ভুব॑নানি॒ বিশ্বা॑ ॥ ২০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
প্র তদ্বিষ্ণুরিত্যস্যৌতথ্যো দীর্ঘতমা ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । বিরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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