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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - विष्णुर्यज्ञो देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः, धैवतः
    3

    अ॒ग्नेर्ज॒नित्र॑मसि॒ वृष॑णौ स्थऽउ॒र्वश्य॑स्या॒युर॑सि पुरू॒रवा॑ऽअसि। गा॒य॒त्रेण॑ त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ त्रैष्टु॑भेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ जाग॑तेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः। ज॒नित्र॑म्। अ॒सि॒। वृष॑णौ। स्थः॒। उ॒र्वशी॑। अ॒सि॒। आ॒युः। अ॒सि॒। पु॒रू॒रवाः॑। अ॒सि॒। गा॒य॒त्रेण॑। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। त्रैष्टु॑भेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। जाग॑तेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒ ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेर्जनित्रमसि वृषणौ स्थऽउर्वश्यस्यायुरसि पुरूरवाऽअसि गायत्रेण त्वा छन्दसा मन्थामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा मन्थामि जागतेन त्वा छन्दसा मन्थामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। जनित्रम्। असि। वृषणौ। स्थः। उर्वशी। असि। आयुः। असि। पुरूरवाः। असि। गायत्रेण। त्वा। छन्दसा। मन्थामि। त्रैष्टुभेन। त्वा। छन्दसा। मन्थामि। जागतेन। त्वा। छन्दसा। मन्थामि॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः स यज्ञः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या! यथाऽहं यदग्नेर्जनित्रमसि भवति, यौ वृषणौ स्थो भवतो या उर्वश्यसि भवति, यः पुरूरवाः असि भवति, त्वा तं गायत्रेण छन्दसा मन्थामि, त्वा तं त्रैष्टुभेन छन्दसा मन्थामि, त्वा तं जागतेन छन्दसा मन्थामि तथैव यूयमप्येतत्सर्वमनुष्ठायैतानि निष्पादयत॥२॥

    पदार्थः

    (अग्नेः) आग्नेयास्त्रादेः सिद्धिकरस्य पावकस्य (जनित्रम्) जनकं हविः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (वृषणौ) वर्षयितारौ (स्थः) भवतः (उर्वशी) ययोरूणि बहूनि सुखान्यश्नुवते सा यज्ञक्रिया। उर्वशीति पदनामसु पठितम्। (निघं॰५। ५) उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰३। १) तस्मिन्नुपपदे अशूङ् धातोः सम्पदादिभ्यः क्विप्। [अष्टा॰वा॰३.३.९४] ततः शार्ङ्रवाद्यन्तर्गन्तत्वान्ङीन्। (असि) भवति (आयुः) एति जीवनं येन तत् (असि) वर्त्तते (पुरूरवाः) पुरूणि बहूनि शास्त्राण्युपदिशति येनाध्ययनाध्यापनेन यज्ञेन सः। पुरूरवा इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰५। ४) पुरूरवाः। (उणा॰४। २३२) अयमनेन पुरूपपदाद् रुधातोरसिप्रत्ययान्तेन निपातितः। (असि) भवति (गायत्रेण) गायत्री प्रगाथोऽस्य तेन (त्वा) तमग्निम् (छन्दसा) चन्दन्त्यानन्दन्ति येन तेन (मन्थामि) विलोडनादिक्रियया निष्पादयामि (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् प्रगाथोऽस्य तेन (त्वा) तं सोमाद्योषधीसमूहम् (छन्दसा) सुखकारकेण (मन्थामि) (जागतेन) जगती प्रगाथोऽस्य तेन (त्वा) तं सामग्रीसमूहं शत्रुदुःखसमूहं वा (छन्दसा) सुखसम्पादकेन (मन्थामि) विलोड्य निवारयामि। अयं मन्त्रः (शत॰३। ४। २०-२३) व्याख्यातः॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैरेवं रीत्योक्तेन यज्ञेन परोपकारकरणं सम्पादनीयम्॥२॥

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    विषयः

    पुनः स यज्ञः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या ! यथाहं यदग्नेः आग्नेयास्त्रादेः सिद्धिकरस्य पावकस्य जनित्रं जनकं हविः असि=भवति, यौ वृषणौ वर्षयितारौ स्थो=भवतः, या उर्वशी ययोरूणि=बहूनि सुखान्यश्नुवते सा यज्ञक्रिया असि=भवति, यः [आयुः] एति जीवनं येन तत् (असि) वर्तते, यः पुरूरवाः पुरूणि=बहूनि शास्त्राण्युपदिशति येनाध्ययनाध्यापनेन यज्ञेन सः असि=भवति, त्वा=तम् अग्निं गायत्रेण गायत्री प्रगाथोऽस्य तेन छन्दसा चन्दन्त्यानन्दन्ति येन तेन मन्थामि विलोडनादिक्रियया निष्पादयामि। त्वा=तं तं सोमाद्योषधीसमूहं त्रैष्टुभेन त्रिष्टुप् प्रगाथोऽस्य तेन छन्दसा सुखकारकेण मन्थामि। त्वा=तं तं सामग्री-समूहं शत्रु दुःखसमूहं वा जागतेन जगतीप्रगाथोऽस्य तेन छन्दसा सुखसम्पादकेन मन्थामि विलोड्य निवारयामि तथैव यूयमप्येतत्सर्वमनुष्ठायैतानि निष्पादयत॥ ५। २॥ [हे मनुष्या! यथाऽहं यदग्नेर्जनित्रमसि=भवति........त्वा=तं गायत्रेण, त्रैष्टुभेन, जागतेन छन्दसा मन्थामि, तथैव यूयमप्येतत्सर्वमनुष्ठायैतानि निष्पादयत]

    पदार्थः

    (अग्नेः) आग्नेयास्त्रादेः सिद्धिकरस्य पावकस्य (जनित्रम्) जनकं हविः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (वृषणौ) वर्षयितारौ (स्थः) भवतः (उर्वशी) ययोरूणि=बहूनि सुखान्यश्वनुवते सा यज्ञक्रिया। उर्वशीति पदनामसु पठितम् ॥ निघं० ५। ५॥ उर्विति बहुनामसु पठितम् ॥ निघं० ३ । १ ॥ तस्मिन्नुपपदे ‘अशूङ्' धातोः संपदादिभ्यः क्विप्। ततः शार्ङ्गरवाद्यन्तर्गतत्वान्ङीन्(असि) भवति (आयुः) एति जीवनं येन तत् (असि) वर्त्तते (पुरूरवाः) पुरूणि=बहूनि शास्त्राण्युपदिशति येनाध्ययनाध्यापनेन यज्ञेन सः। पुरूरवा इति पदनामसु पठितम् ॥ निघं० ५ । ४ ॥ पुरूरवाः॥ उ० ४। २३२ ॥ अयमनेन पुरूपपदादुरुधातोरसिप्रत्ययान्तेन निपातितः (असि) भवति (गायत्रेण) गायत्री प्रगाथोऽस्य तेन (त्वा) तमग्निम् (छन्दसा) चन्दन्त्यानन्दन्ति येन तेन (मन्थामि) विलोडनादिक्रियया निष्पादयामि (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् प्रगाथोऽस्य तेन (त्वा) तं सोमाद्योषधीसमूहम् (छन्दसा) सुखकारकेण (मन्थामि) (जागतेन) जगतीप्रगाथोऽस्य तेन (त्वा) तं सामग्रीसमूहं शत्रुदुःखसमूहं वा (छन्दसा) सुखसम्पादकेन (मन्थामि) विलोड्य निवारयामि ॥ अयं मन्त्रः शत० ३।४ । १ । २०-२३ व्याख्यातः॥ २॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ सर्वैर्मनुष्यैरेवं रीत्योक्तेन यज्ञेन परोपकारकरणं सम्पादनीयम् ॥ ५ । २ ॥

    विशेषः

    गोतमः। विष्णुर्यज्ञः=स्पष्टम् ॥ पूर्वस्यार्षी गायत्री। षड्जः। गायत्रेत्युत्तरस्यार्ची त्रिष्टुप्। धैवतः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह यज्ञ कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य लोगो! जैसे मैं जो (अग्नेः) आग्नेय अस्त्रादि की सिद्धि करने हारे अग्नि के (जनित्रम्) उत्पन्न करने वाला हवि (असि) है, (वृषणौ) जो वर्षा कराने वाले सूर्य्य और वायु (स्थः) हैं, जो (उर्वशी) बहुत सुखों के प्राप्त कराने वाली क्रिया (असि) है, जो (आयुः) जीवन (असि) है, जो (पुरूरवाः) बहुत शास्त्रों के उपदेश करने का निमित्त (असि) है, (त्वा) उस अग्नि (गायत्रेण) गायत्री (छन्दसा) आनन्दकारक स्वच्छन्द क्रिया से (मन्थामि) विलोडन करता हूं (त्वा) उस सोम आदि ओषधीसमूह (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् (छन्दसा) छन्द से (मन्थामि) विलोडन करता हूँ (त्वा) और उस शत्रु दुःखसमूह को (जागतेन) जगती (छन्दसा) छन्द से (मन्थामि) ताड़न करके निवारण करता हूं, वैसे ही तुम भी किया करो॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को योग्य है कि इस प्रकार की रीति से प्रतिपादन वा सेवन किये हुए यज्ञ से दूसरे मनुष्यों के लिये परोपकार करें॥२॥

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    विषय

    प्रभु की गोतम को प्रेरणा

    पदार्थ

    १. प्रभु आत्मार्पण करनेवाले गोतम को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि ( अग्नेः जनित्रम् असि ) = तू अपने में अग्नि का उत्पन्न करनेवाला है—अर्थात् तेरा जीवन उत्साहमय और अतएव अग्रगतिवाला है। 

    २. घर में पति-पत्नी तुम दोनों ही ( वृषणौ स्थः ) = शक्तिशाली होओ। पिछले मन्त्र में ‘अग्नेः तनूः असि’ के बाद ‘सोमस्य तनूः असि’ यह क्रम था। प्रस्तुत मन्त्र में भी अग्नि के बाद शक्ति का उल्लेख हुआ है। सोम की रक्षा करके ही ये ( वृषन् ) =  शक्तिशाली बनते हैं। 

    ३. हे पत्नि! तू ( उर्वशी असि ) = [ उरुवशी ] अपने पर खूब ही नियन्त्रण रखनेवाली है। ( आयुः असि ) = मन को वश में रखने के लिए ही [ इ = गतौ ] निरन्तर गतिशील है और ( पुरुरवा असि ) = खूब ही प्रभु के गुणों का गान [ रु शब्दे ] करनेवाली है, अथवा [ पॄ पालनपूरणयोः ] उस प्रभु का गुणगान करनेवाली है जो पालन व पूरण करनेवाला है, जिस गुणगान से जीवन में वासनाओं का आक्रमण नहीं होता और न्यूनताओं का सदा दूरीकरण होता रहता है। 

    ४. ( त्वा ) = तुझे ( गायत्रेण छन्दसा ) = गायत्र छन्द से [ गयाः प्राणाः, त्र =  रक्षण, छन्द = इच्छा ] प्राणशक्ति के रक्षण की इच्छा से ( मन्थामि ) = आलोडित करता हूँ। तेरा हृदय-सरोवर इस प्राणशक्ति के रक्षण की इच्छा से आलोडित हो उठता है, अर्थात् मैं तेरे हृदय में प्राणशक्ति-रक्षण की प्रबल भावना को पैदा करता हूँ। 

    ५. ( त्वा ) = तुझे ( त्रैष्टुभेन छन्दसा ) = त्रैष्टुभ छन्द से [ त्रि स्तुभ ] काम-क्रोध व लोभ को रोकने की भावना से ( मन्थामि ) = आलोडित करता हूँ। तेरे हृदय में इन तीनों को रोकने की प्रबल भावना को जन्म देता हूँ। 

    ६. ( त्वा ) = तुझे ( जागतेन छन्दसा ) = जागत छन्द से ( मन्थामि ) = आलोडित करता हूँ। तेरे अन्दर जगती के हित की प्रबल भावना को उत्पन्न करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम अपने को उत्साहमय व शक्तिशाली बनाएँ। प्राणशक्ति की वृद्धि करें, काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठें और लोकहित में प्रवृत्त हों।

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    विषय

    अग्नि के दृष्टान्त से राजा और प्रजा की उत्पत्ति ।

    भावार्थ

    -हे राष्ट्र ! तू ( अग्नेः जनित्रम् अस ) जिस प्रकार अग्नि को उत्पन्न करने के लिये नीचे काष्ठखण्ड रक्खा होता है, उस पर अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार तू भी ( अग्नेः ) आग्नि के समान शत्रुतापक राजा का (जनित्रम्) उत्पन्न करने वाला, उसका भोग्य रूप अन्न है। हे शत्रुहिंसक सेनापति और मन्त्रिन् ! तुम दोनों (वृषणौ स्थः ) जिस प्रकार पुत्र को उत्पन्न करने वाले माता पिता दोनों वीर्य सेचन क्रिया में समर्थ होते हैं उसी प्रकार तुम दोनों भी ( वृषणौ ) सूर्य वायु के समान राजा के समस्त कार्यों में बल प्रदान करने वाले हो । हे राजसभे ! ( उर्वशी असि ) तू उस विशाल राष्ट्र को वश करने में समर्थ है। हे राजन् या सभापते ! तू ( पुरूरवाः असि ) बहुत से पुरुषों तक अपना ज्ञानमय उपदेश पहुंचाने में समर्थ सुवक्ता, उपदेष्टा है । हे राजन् ! (त्वा ) तुझको ( गायत्रेण छन्दसा ) ब्राह्मणों विद्वान् पुरुषों के रक्षा बल से ( मन्थामि ) मथता हूँ | (त्रैष्टुभेन छन्दसा ) त्रिष्टुप् अर्थात् क्षात्र बल से मथता हूँ । ( त्वा जागतेन छन्दसा मन्थामि ) तुझको जागत अर्थात् वैश्य के बल से मथता हूं ॥
     
    पुत्रोत्पत्ति पक्ष में -- जिस प्रकार हे वीर्य रूप हवि ! तू अग्नि चेतना का उत्पत्तिस्थान है, शरीर में ( वृषणौ स्थः ) सेचन समर्थ स्त्री पुरुष हैं । उर्वशी स्त्री है, पुरुरवा पुरुष पति है । उसी प्रकार यह सूर्य का तेज ही विद्युत का उत्पत्ति स्थान है। सूर्य और वायु जल को आकाश में सेचन करते हैं, उर्वशी विद्युत् है। उसका पालक मेघ दुरुरवा महान् गर्जन करता है ।
     गायत्री आदि पृथिवी, अन्तरिक्ष द्यौः लोक के भिन्न २ व्यापार से वह मंधित होती है ॥ 

    टिप्पणी

     २. विष्णुर्यज्ञो देवता । द० ॥ १ अग्नेर्जनित्रम्। २ गायत्रेण। 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     प्रजापतिःऋषिः।शकलं दर्भतृणे, अधरोत्तराण्यौ, अग्निश्च, विष्णुर्यज्ञो वा देवता । ( १) आर्षीगायत्री षड्जः (२) आर्षी त्रिष्टुप्। धैवतः ॥

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    विषय

    फिर वह यज्ञ कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे मैं जो (अग्नेः) आग्नेय अस्त्र की सिद्धि करने वाले अग्नि का (जनित्रम्) उत्पादक हवि (असि) है, और जो (वृषणौ) वर्षा कराने वाले सूर्य और वायु (स्थः) हैं, और जो (उर्वशी) नाना सुखों को प्राप्त कराने वाली यज्ञ क्रिया, और जो (आयुः) जीवन-साधन (असि) है, और जो (पुरुरवाः) सब शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ से उपदेश करने वाला (असि) है (त्वा) उस अग्नि को (गायत्रेण) गायत्री प्रगाथ वाले (छन्दसा) आनन्दित करने वाले छन्द से (मन्थामि) विलोडन आदि क्रिया से सिद्ध करता हूँ, और (त्वा) उस सोम आदि औषधियों को (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् प्रगाथ वाले (छन्दसा) सुखकारक छन्द से (मन्थामि) मथता हूँ । (त्वा) उस सामग्री को वा शत्रुजन्य दुःखों को (जागतेन) जगती प्रगाथ वाले (छन्दसा) सुख के साधक छन्द से (मन्थामि) विलोडित करके हटाता हूँ, वैसे तुम भी इन सबका अनुष्ठान करके इन्हें सिद्ध करो ॥ ५ । २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है॥ सब मनुष्य इस रीति से उक्त यज्ञ द्वारा परोपकार को सिद्ध करें ॥ ५ । २ ॥

    प्रमाणार्थ

    (असि) अस्ति । इस मन्त्र में 'असि' पद पर सर्वत्र पुरुष-व्यत्यय है। (उर्वशी) यह शब्द निघं० (५ । ५) में पद नामों में पढ़ा है । (उरु) शब्द निघं० (३।१) में बहुवाचक नामों में है। 'उरु'-पूर्वक 'अशूङ्' धातु से 'सम्पदादिभ्यः क्विप्' [अ० ३।३।१०८] इस वार्त्तिक से 'क्विप्' प्रत्यय और शार्ङ्गरवादि के अन्तर्गत इसका पाठ मान कर [शार्ङ्गरवाद्यञ्जोङीन्, अ. ४।१।७३ ] इस सूत्र से 'ङीन्' प्रत्यय करने पर 'उर्वशी' शब्द सिद्ध होता है। (पुरुरवाः) यह शब्द निघं० (५ । ४) में पद-नामों में पढ़ा है। 'पुरुरवाः' (उणा. ४।२३२) सूत्र से 'पुरु' पूर्वक 'रु' धातु से 'असि' प्रत्ययान्त होने से निपातितहै। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।४।१।२०-२३) में की गई है ॥ ५ ॥२॥

    भाष्यसार

    १. यज्ञ कैसा है—यज्ञ आग्नेय अस्त्र आदि को सिद्ध करने वाली अग्नि का उत्पादक है, वर्षा का निमित्त है, नाना सुखों को प्राप्त कराने वाला है, अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ बहुत से शास्त्रों का उपदेश करने वाला है। यज्ञ की अग्नि गायत्री प्रगाथ वाले आनन्दकारक वेदमन्त्र से विलोडनआदि क्रिया से उत्पन्न की जाती है। इसकी सोम आदि औषधियाँ त्रिष्टुप्-प्रगाथ वाले सुखकारक वेदमन्त्र से मथी जाती हैं। यह जगती प्रगाथ वाले सुखसाधक वेदमन्त्र से शत्रुओं से उत्पन्न दुःखों को हटाता है। २. अलङ्कार-- मन्त्र में उपमावाचक ‘इव’ आदि शब्द लुप्त हैं इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि विद्वानों के समान सब मनुष्य उक्त रीति से यज्ञ के द्वारा परोपकार करें ।। ५ ।२ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी या प्रकारे केलेल्या यज्ञाने दुसऱ्या माणसांवर उपकार करावा.

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    विषय

    पुनश्‍च, तो यज्ञ कसा आहे, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    पदार्थ- हे मनुष्यांनो, जो अग्नी (अग्ने) आग्नेय आदी अस्त्र यांच्या निर्मितीचे स्थान आहे, जो (जनित्रम्) जो अग्नी उत्पन्न करण्यासाठी आवश्यक हवी (असि) आहे, (वृषणौ) वृष्टी करणारे जे सूर्य आणि वायु (स्थ:) आहेत, तसेच यज्ञाची जी (उर्वशी) अत्यंत सुखप्रदायिनी क्रिया (असि) आहे, जो अग्नी (पुरूखा) अनेक शास्त्रांच्या उपदेशाचे निमित्त (असि) आहे, अशा (त्वा) त्या अग्नीचे मी (गायत्रेण) गायत्रीमंत्राने (छन्दसा) आनंददायक क्रियेद्वारे (मन्थामि) विलोडन मन्थन करीत आहे. (त्वा) त्या अग्नीचा सोम आदी औषधी समूहाद्वारे व (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् (छन्दसा) छंदातील मंत्राद्वारे (मन्थामि) विलोडन करीत आहे. तसेच (त्वा) त्या दुःखसमूहाला व शत्रूला (जागतेन) जगती (छन्दसा) छंदातील मंत्राद्वारे (मन्थामि) वाडम करून निवारित करीत आहे. (दूर सारीत आहे) हे मनुष्यांनो, तुम्हीही याप्रमाणे करा अथवा करीत जा (अग्नीपासून आग्नेय अस्त्राची निर्मिती, वृष्टीचे नियंत्रण, सुखप्राप्ती आदीसाठी गायत्री, त्रिष्टुप् व जगती या वैदिक छंदातील मंत्राचे पठन करून यज्ञादी प्रज्वलित करावा व दुःख दूर करावेत) ॥2॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमा अलंकार आहे. सर्व मनुष्यांकरिता हे उचित कर्म आहे की त्यांनी वर्णित रीतीने यज्ञाचे अनुष्ठान करावे व त्यापासून लाभ घ्यावेत आणि अशा प्रकारे अन्य मनुष्यांकरिता परोपकारमय कर्म करावे ॥2॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Yajna, thou art the creator of fire. Ye (sun and air) are the cause of rain. Thou art the source of manifold comforts, the giver of life, and the instrument for preaching the shastras. O fire I kindle thee with the verses in Gayatri metre, with the verses in Trishtup metre, and with the verses in Jagati metre.

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    Meaning

    Yajna (yajna materials), you are the birth-place of fire, source power of fire-arms. You are the food of the cosmic agents of rain, air and the sun. You are the producer and provider of various comforts of life. You are the secret of the knowledge of the Shastras through learned gatherings. I refine and kindle the fire with the inspiring chant of the Gayatri verses. I invigorate you and raise the fire with the exhilarating chant of the Trishtubh verses. I boost you and rouse the fire with the ecstatic chant of the jagati verses.

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    Translation

    You are the birth place of fire. (1) You two are the showerers. (2) One of you is the mother. (3) One of you is the child. (4) One of you is the father. (5) I rub you against each other with the gayatri metre. (6) I rub you against each other with the tristubh metre. (7) І rub you against each other with the jagati metre. (8)

    Notes

    Janitram, birth-place. Vrsanau, the two showeret Urvasi, the mother. Ayuh, the child. _ Purürava, the father. In legend, Ayu was the son of Purürava and Urvasi. Manthami, rub against each other. The priest rubs two агат», fire-producing sticks, to produce fire.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স য়জ্ঞঃ কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সেই যজ্ঞ কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যাহা (অগ্নে) আগ্নেয় অস্ত্রাদির সিদ্ধিকারক অগ্নির (জনিত্রম্) উৎপন্নকারী হবি (বৃষণৌ), যাহা বর্ষাকারী সূর্য্য ও বায়ু (স্থঃ) হয়, যাহা (উর্বশী) বহু সুখ প্রাপ্তকারী ক্রিয়া (অসি) হয়, যাহা (আয়ুঃ) জীবন, যাহা (পুরূরবা) বহু শাস্ত্রের উপদেশ করিবার নিমিত্ত (অসি) হয় (ত্বা) সেই অগ্নি (গায়ত্রেণ) গায়ত্রী (ছন্দসা) আনন্দকারক স্বচ্ছন্দ ক্রিয়া দ্বারা আমি (মন্থামি) মন্থন করি (ত্বা) সেই সোমাদি ঔষধিসমূহ (ত্রৈষ্টুভেন) ত্রিষ্টুপ (ছন্দসা) ছন্দ দ্বারা (মন্থামি) মন্থন করি (ত্বা) এবং সেই শত্রু দুঃখ সমূহকে (জাগতেন) জগতী (ছন্দসা) ছন্দ দ্বারা (মন্থামি) তাড়না করিয়া নিবারণ করি সেইরূপ তুমিও করিতে থাক ॥ ২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচক লুপ্তোপমালঙ্কার আছে । সকল মনুষ্যদিগের কর্ত্তব্য যে, এই প্রকার রীতি দ্বারা প্রতিপাদিত বা সেবিত যজ্ঞ দ্বারা অন্যান্য মনুষ্যদিগের জন্য পরোপকার করুক ॥ ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒গ্নের্জ॒নিত্র॑মসি॒ বৃষ॑ণৌ স্থऽউ॒র্বশ্য॑স্যা॒য়ুর॑সি পুরূ॒রবা॑ऽঅসি । গা॒য়॒ত্রেণ॑ ত্বা॒ ছন্দ॑সা মন্থামি॒ ত্রৈষ্টু॑ভেন ত্বা॒ ছন্দ॑সা মন্থামি॒ জাগ॑তেন ত্বা॒ ছন্দ॑সা মন্থামি ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নের্জনিত্রমিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । বিষ্ণুর্য়জ্ঞো দেবতা । পূর্বস্যার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ । গায়ত্রেত্যুত্তরস্যার্চী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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