यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 28
ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - आर्षी जगती
स्वरः - निषादः
2
ध्रु॒वासि॑ ध्रु॒वोऽयं यज॑मानो॒ऽस्मिन्ना॒यत॑ने प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्भूयात्। घृ॒तेन॑ द्यावापृथिवी पूर्येथा॒मिन्द्र॑स्य छ॒दिर॑सि विश्वज॒नस्य॑ छा॒या॥२८॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒वा। अ॒सि॒। ध्रु॒वः। अ॒यम्। यज॑मानः। अ॒स्मिन्। आ॒यत॑न॒ इत्या॒ऽयत॑ने। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। प॒शुभि॒रिति॑ प॒शुऽभिः॑। भू॒या॒त्। घृ॒तेन॑। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ऽइति॑ द्यावापृथिवी। पू॒र्ये॒था॒म्। इन्द्र॑स्य। छ॒दिः। अ॒सि॒। वि॒श्व॒ज॒नस्येति॑ विश्वऽज॒नस्य॑। छा॒या ॥२८॥
स्वर रहित मन्त्र
धु्रवासि धु्रवो यँयजमानो स्मिन्नायतने प्रजया पशुभिर्भूयात् । घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथामिन्द्रस्य च्छदिरसि विश्वजनस्य च्छाया ॥
स्वर रहित पद पाठ
ध्रुवा। असि। ध्रुवः। अयम्। यजमानः। अस्मिन्। आयतन इत्याऽयतने। प्रजयेति प्रऽजया। पशुभिरिति पशुऽभिः। भूयात्। घृतेन। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। पूर्येथाम्। इन्द्रस्य। छदिः। असि। विश्वजनस्येति विश्वऽजनस्य। छाया॥२८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तेन किं भविष्यतीत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे यज्ञानुष्ठात्रि यजमानपत्नि! यथा त्वमस्मिन्नायतने जगति स्वस्थाने यज्ञे वा प्रजया पशुभिः सह ध्रुवासि ,तथाऽयं यजमानोऽपि ध्रुवोऽस्ति। युवां घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथां पूरणे कुर्यातमिन्द्रस्य छदिरसि विश्वजनस्य छायाऽसि यत्संगेन प्राणिसमूहः सुखीभूयादस्मात् तां तं त्वां वयं प्रशंसामः॥२८॥
पदार्थः
(ध्रुवा) निश्चला (असि) भवसि (ध्रुवः) निश्चलः (अयम्) वक्ष्यमाणः (यजमानः) यज्ञकर्त्ता (अस्मिन्) वर्त्तमाने यज्ञे (आयतने) आयन्ति आगच्छन्ति प्राणिनो यस्मिंस्तज्जगत् तस्मिन् जगति स्थाने यज्ञे वा (प्रजया) राज्येन सन्तानसमूहेन वा (पशुभिः) हस्त्यश्वगवादिभिः (भूयात्) (घृतेन) आज्यादिना (द्यावापृथिवी) आकाशभूमी (पूर्येथाम्) (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (छदिः) दुःखापवारकत्वेन प्रापकः प्रापिका वा (असि) भवसि (विश्वजनस्य) विश्वस्मिन् जगति सर्वस्य जनसमूहस्य (छाया) दुःखछेदकाश्रयो वा। अयं मन्त्रः (शत॰३। ६। १। १९-२२) व्याख्यातः॥२८॥
भावार्थः
मनुष्यैर्याभ्यां यज्ञानुष्ठातृभ्यां यजमानतत्पत्नीभ्यां येन यज्ञेन च निश्चला विद्या सुखानि च प्राप्य दुःखानि नश्येयुस्तौ सदा सत्कर्तव्यौ यज्ञश्च सदाऽनुष्ठेयः॥२८॥
विषयः
पुनस्तेन किं भविष्यतीत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे यज्ञानुष्ठात्रि यजमानपत्नि ! यथा त्वमस्मिन् वर्तमाने यज्ञे आयतने=जगति, स्वस्थानेयज्ञे वा, आयान्ति=आगच्छन्ति प्राणिनो यस्मिँस्तज्जगत्तस्मिन् जगति स्थाने यज्ञे वा प्रजया राज्येन सन्तानसमूहेन वा पशुभिः हस्त्यश्वगवादिभिः सह ध्रुवा निश्चला असिभवसि, तथाऽयं वक्ष्यमाणः यजमानः यज्ञकर्त्ताअपि ध्रुवः निश्चलः अस्ति। युवां घृतेन आज्यादिना द्यावापृथिवी आकाशभूमी पूर्येथां=पूरणे कुर्यातम्। इन्द्रस्य परमैश्वर्यस्य छदिः दुःखापवारकत्वेन प्रापक: प्रापिका वा असि भवसि । विश्वजनस्य विश्वस्मिन् जगति सर्वस्य जनसमूहस्य छाया दुःखछेदकाश्रयो वा असि भवसि, यत्संगेन प्राणिसमूहः सुखी भूयात्,अस्मात्तां तं त्वां वयं प्रशंसामः ।। ५ । २८ ।। [हे यज्ञानुष्ठात्रि यजमानपत्नि! यथा त्वम्........ ध्रुवासि तथायं यजमानोऽपि ध्रुवोऽस्ति,इन्द्रस्यछदिरसि, यत्संगेन प्राणिसमूहः सुखी भूयात्, अस्मात्तां तं त्वां वयं प्रशंसामः]
पदार्थः
(ध्रुवा) निश्चला (असि) भवसि (ध्रुव:) निश्चलः (अयम्) वक्ष्यमाण: (यजमानः) यज्ञकर्त्ता (अस्मिन्) वर्तमाने यज्ञे (आयतने) आयन्ति=आगच्छन्ति प्राणिनो यस्मिँस्तज्जगत्तस्मिन् जगति स्थाने यज्ञे वा (प्रजया) राज्येन सन्तानसमूहेन वा (पशुभिः) हस्त्यश्वगवादिभिः (भूयात्) (घृतेन) आज्यादिना (द्यावापृथिवी) आकाशभूमी (पूर्येथाम्) (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (छदिः) दुःखापवारकत्वेन प्रापक: प्रापिका वा (असि) भवसि (विश्वजनस्य) विश्वस्मिन् जगति सर्वस्य जनसमूहस्य (छाया) दुःखछेदकाश्रयो वा ॥ अयं मंत्रः शत० ३। ६। १। १९-२२ व्याख्यातः ॥ २८ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्याभ्यां यज्ञानुष्ठातृभ्यां यजमानतत्पत्नीभ्यां, येन यज्ञेन च निश्चला विद्या, सुखानि च प्राप्य, दुःखानि नश्येयुस्तौ सदा सत्कर्त्तव्यौ, यज्ञश्च सदाऽनुष्ठेयः ॥ ५ । २८॥
विशेषः
औतथ्यो दीर्घतमाः । यज्ञः=स्पष्टम्॥ आर्षी जगती । निषादः ॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उस यज्ञ से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे यज्ञ करने वाले यजमान की स्त्री! जैसे तू (प्रजया) राज्य वा अपने संतानों और (पशुभिः) हाथी, घोड़े, गाय आदि पशुओं के सहित (अस्मिन्) इस (आयतने) जगत् वा अपने स्थान वा सब के सत्कार कराने के योग्य यज्ञ में (ध्रुवा) दृढ़ संकल्प (असि) है, वैसे (अयम्) यह (यजमानः) यज्ञ करने वाला तेरा पति यजमान भी (ध्रुवः) दृढ़ संकल्प है। तुम दोनों (घृतेन) घृत आदि सुगन्धित पदार्थों से (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (पूर्येथाम्) परिपूर्ण करो। हे यज्ञ करने वाली स्त्री! तू (इन्द्रस्य) अत्यन्त ऐश्वर्य को भी अपने यज्ञ से (छदिः) प्राप्त करनेवाली (असि) है। अब तू और तेरा पति यह यजमान (विश्वजनस्य) संसार का (छाया) सुख करने वाला (भूयात्) हो॥२८॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जिन यज्ञ करने वाले यजमान की पत्नी और यजमान से तथा जिस यज्ञ से दृढ़ विद्या और सुखों को पाकर दुःखों को छोड़ें उनका सत्कार तथा उस यज्ञ का अनुष्ठान सदा ही करते रहें॥२८॥
विषय
छाया
पदार्थ
१. गत मन्त्र की प्रेरणा ही प्रस्तुत मन्त्र में चल रही है। प्रभु कहते हैं कि अपने ज्ञान व बल को दृढ़ करके एक गृहपत्नी ( ध्रुवा असि ) = ध्रुव बनी है। यह अपने मार्ग से विचलित नहीं होती।
२. ( अयं यजमानः ) = यह यज्ञ के स्वभाववाला पति भी ( अस्मिन् आयतने ) = इस घर में ( ध्रुवः ) = स्थिर होकर निवास करनेवाला है। पति-पत्नी दोनों ही ध्रुव हैं। ये अपने मार्ग से विचलित नहीं होते।
२. इस ध्रुवता के परिणामस्वरूप यह यजमान ( प्रजया पशुभिः ) = उत्तम सन्तानों व उत्तम गवादि पशुओं से ( भूयात् ) = फूले व फले।
३. इसके ( द्यावापृथिवी ) = मस्तिष्क व शरीर ( घृतेन ) = ज्ञान की दीप्ति से व मलों के क्षरण से ( पूर्येथाम् ) = पालित व पूरित हों। मस्तिष्क ज्ञानज्योति से पूर्ण हो तो शरीर भी मलों के क्षरण से पूर्ण स्वस्थ हो।
४. तू ( इन्द्रस्य छदिः असि ) = परमैश्वर्यशाली व सर्वशक्तिमान् प्रभु की छतवाला है। जैसे छत सर्दी-गर्मी, ओले-वर्षा से बचाती है इस प्रकार तू प्रभुरूपी छतवाला होता है और सब बुराइयों के आक्रमण से बचा रहता है।
५. उस ‘इन्द्र’ को छत के रूप में प्राप्त करके तू ( विश्वजनस्य ) = सब लोगों की ( छाया ) = शरणस्थल बनता है। प्रभु तेरे रक्षक बनते हैं, तू लोगों को सन्ताप से सुरक्षित करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु मेरे रक्षक हैं। मैं औरों का सन्ताप दूर करनेवाला बनूँ। मेरा मस्तिष्क ज्ञानदीप्ति से पूर्ण हो। मेरा शरीर मैल से रहित होकर स्वस्थ बने।
विषय
राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे पृथिवी अथवा हे महान्- शक्ति ! तू ( ध्रूवा असि ) तू ध्रुव, सदा स्थिर है। उसी प्रकार( अयं ) यह ( यजमानः ) यजमान, दानशील या संगतिकारक व्यवस्थापक राजा भी ( अस्मिन् आयतने ) इस आयतन, गृह, प्रतिष्ठा के स्थान पर ( प्रजया ) प्रजा और ( पशुभिः ) और पशुओं सहित ( ध्रुवः भूयात्) ध्रुव, स्थिर होकर रहे । हे ( द्यावापृथिवी ) आकाश और भूमि ! तुम दोनों ( घृतेन ) तेज, वृत आदि पुष्टिकारक पदार्थों से ( पूर्येथाम् ) पूर्ण होवो | अथवा हे पृथिवी और सूर्य या प्रजा और राजन् ! एवं पति और पत्नि ! तुम दोनों आकाश और भूमि के समान पुष्टिकारक पदार्थों से पूर्ण रहो। हे राजशक्ते ! तू ( इन्द्रस्य ) परमेश्वर्यवान् राजा के लिये या ऐश्वर्यवान् राष्ट्र के लिये (छदिः) छदि अर्थात् छत हो । उसको सब दुखों और आघातों से बचानेवाली आड. हो । हे राजन् ! तू ( विश्वजनस्य छाया ) सब श्रेणियों के मनुष्यों के लिये (छाया) छाया, शरण या आश्रय (असि ) है |
टिप्पणी
२८--वासि ध्रुवोऽस्मिन् यजमान आयतने भूयात्' इति काण्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।द्यावापृथिव्यौ इन्द्रश्च यज्ञो वा देवता । आर्षी जगती । निषादः ॥
विषय
गृहस्थ कर्तव्य
शब्दार्थ
हे गृहपत्नी ! (ध्रुवा असि) जैसे तू ध्रुव, निश्चल और स्थिर है उसी प्रकार (अयं यजमानः) तेरा पति भी (अस्मिन् आयतने) इस गृहस्थ में, इस संसार मे (प्रजया पशुभिः) श्रेष्ठ सन्तानों और पशुओं से (ध्रुवं भूयात्) ध्रुव हो, सम्पन्न एवं समृद्ध हो । तुम दोनों (घृतेन) घृत के द्वारा, घृताहुति से अथवा आत्म-स्नेह से (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (पूर्येथाम्) पूर्ण कर दो, आप्लावित कर दो, भर दो । हे सद्गृहस्थ ! तू (इन्द्रस्य छदि: असि) आत्मा का छत, रक्षक है, मानवमात्र को दुःखों और कष्टों से बचानेवाला है । तू (विश्वजनस्य छाया असि) संसार के लोगों का आश्रय है ।
भावार्थ
स्त्री हृदयप्रधान होती है, उसमें श्रद्धा अधिक होती है, अतः उसे सम्बोधित करके कहा गया - हे देवी ! जैसे तू गृहकार्यों में ध्रुव और दृढ़ है उसी प्रकार तेरा पति भी प्रजा और पशुओं से समृद्ध हो । गृहस्थ में किसी भी वस्तु की कमी या अभाव न हो । गृह में प्रतिदिन यज्ञ होना चाहिए जिससे द्युलोक और पृथिवीलोक यज्ञ की दिव्य-सुगन्ध से भर जाएँ । अथवा गृहस्थियों को सभी के साथ ऐसा स्नेह करना चाहिए कि संसार स्नेह से पूरित हो जाए । गृहस्थियों को मानवमात्र को दुःखों और कष्टों से बचाना चाहिए; जो दीन, दुःखी और पीड़ित हैं उन्हें शरण देनी चाहिए; जो अनाथ और अशरण हैं उनका आश्रय बनना चाहिए ।
विषय
फिर उस यज्ञ से क्या होता है, इस विषय का उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे यज्ञ करने वाली यजमान की पत्नी! जैसे तू (अस्मिन्) इस (आयतने) प्राणियों के आगमन स्थान जगत् में, अपने घर में अथवा यज्ञ में (प्रजया) राज्य वा सन्तानों (पशुभिः) हाथी, घोड़े, गाय आदि पशुओं के साथ (ध्रुवा) स्थिर (असि) है वैसे (अयम्) यह (यजमानः) यज्ञ करने वाला यजमान भी (ध्रुवः) स्थिर है । तुम दोनों (घृतेन) घृत आदि से यज्ञ करके (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (पूर्येथाम्) सुख से भरपूर करो । तू यजमान वा यजमानपत्नी (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य को (छदिः) दुःख निवारक होने से प्राप्त करने वाला वा प्राप्त करने वाली (असि) है, (विश्वजनस्य) जगत् के सब लोगों के (छाया) दुःख का उच्छेद करने वाला आश्रय है, जिसके संग से सब प्राणी सुखी हों। इसलिए हम उस यजमानपत्नी तथा यजमान की प्रशंसा करते हैं ॥ ५ ॥ २८ ॥
भावार्थ
सब मनुष्य, जिन यज्ञ करने वाले यजमान तथा उसकी पत्नी से, जिस यज्ञ से स्थिर विद्या और सुखों की प्राप्ति से दुःखों का विनाश हो उनका सदा सत्कार करें तथा यज्ञ का नित्य अनुष्ठान करते रहें ।। ५ । २८ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।६।१।१९-२२) में की गई है ॥ ५। २८ ॥
भाष्यसार
यज्ञानुष्ठान से क्या होगा--जो यज्ञ करने वाला यजमान और उसकी पत्नी भी इस संसार में अपने घर में यज्ञानुष्ठान करने में स्थिर होते हैं, जो घृतादि यज्ञसामग्री से प्रकाश और भूमि को परिपूर्ण कर देते हैं उन्हें राज्य, सन्तान, हाथी, घोड़े, गाय आदि पशु अर्थात् संसार के सब सुख प्राप्त होते हैं और सब दुःखों के नाश से परम ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। संसार उन्हें दुःखों के उच्छेद के लिये अपना आश्रय समझता है। यज्ञ से सब प्राणीसमूह सुखी होता है। इसलिये यज्ञ करने वालों की सब लोग प्रशंसा करें तथा यज्ञ का नित्य अनुष्ठान किया करें ॥ ५ । २८ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जे यज्ञ करणारे यजमान व यजमानपत्नी, दृढ विद्या व सुख देणाऱ्या तसेच दुःखाचा नाश करणाऱ्या यज्ञाचा स्वीकार करतात त्यांचा माणसांनी सत्कार करावा व नेहमी अशा यज्ञाचे अनुष्ठान करावे.
विषय
यज्ञामुळे काय होते, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
(या मंत्रात यजमान कोणी गृहस्थ वा एक राजा आहे. त्यामुळे अर्थ दोन्हीकडे लागू होत आहे)^शब्दार्थ - हे यज्ञ करणार्या यजमानाची पत्नी,/(हे राज्याची महाराणी) ज्याप्रमाणे तू (प्रजा) आपल्या सन्ततीसह/अथवा आपल्या राज्यासह (पशुभिः) व गाय आदी पशूंसह/हत्ती, घोडे आदी पशूंसह (अस्मिन्) या (आयतने) आपल्या घरी/सर्वांनी भाग घेण्यास योग्य अशा यज्ञामधे/राज्यामधे यज्ञ करण्यासाठी (ध्रुवा) दृढसंकल्प (असि) आहेस, त्याप्रमाणे (अयम्) हा (यजमानः) यज्ञ करणारा गृहस्थ पती/राज्य करणारा तुझा पती देखील (ध्रुवः) दृढनिश्चयी आहे. तुम्ही दोघे पती-पत्नी (घृतेन) घृत आदी सुगंधित पदार्थांनी (द्यावा-पृथिवी) आकाशाला व राज्याला (पूर्येथाम्) परिपूर्ण करा (वातावरण शुद्ध व सुगंधित करून टाका) हे यज्ञ करणारी स्त्री, तू (इन्द्रस्य) तू या यज्ञाद्वारे (इनुस्य) अत्यधिक ऐश्वर्य (छदिः) प्राप्त करण्यास समर्थ (असि) आहेस. आता तू आणि तुझा हा यजमान पती (विश्वजनस्य) सार्या संसारावर (छाया) सुखाची छाया करणारे (भूयात्) व्हा. ॥28॥
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञ करणारे जे यजमान आणि यजमान पत्नी ज्या यज्ञाद्वारे सत्य विद्या व स्थिर सुख प्राप्त करतात आणि दुःखांना दूर सारतात इतर मनुष्यांनीही त्यांच्याप्रमाणे यज्ञ करावा आणि यज्ञ करणार्या यजमान पति-पत्नीचा आदर-सत्कार अवश्य करावा. ॥28॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O wife of the worshipper, just as thou with thy offspring and cattle, art firm in thy resolution, in this world ; so should this husband of thine be determined in his purpose. Both of you should fill the Heaven and Earth with fragrance of clarified butter. Thou art the guardian of glory, and the shelter of all people.
Meaning
Lady of the house, hostess of yajna, you are firm and strong. May the yajamana, your husband, also be firm in this yajna, in this home, in this world, with his family, his people and his wealth. May both of you fill the earth and the sky with the fragrance of ghee and fertility. You are the protective shade of Indra, lord of power and prosperity. You too be the protective cover for all the people of the world.
Translation
You are set firmly. May this sacrificer be set firm in this place along with progeny and cattle. (1) May the heaven and earth be overflowing with melted butter. (2) You are an umbrella for the aspirant, shelter for all the реорlе. (3)
Notes
Chadih, umbrella. Chaya, shelter; shade.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তেন কিং ভবিষ্যতীত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সেই যজ্ঞ হইতে কী হয় এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে যজ্ঞকারী যজমানের পত্নী! যেমন তুমি (প্রজয়া) রাজ্য বা স্বীয় সন্তানগণ এবং (পশুভিঃ) হস্তী, অশ্ব, গাভি ইত্যাদি পশুগুলির সহিত (অস্মিন্) এই (আয়তনে) জগৎ বা স্বীয় স্থান বা সকলের সৎকার করিবার যজ্ঞে (ধ্রুবা) দৃঢ় সংকল্প (অসি) আছো । সেইরূপ (অয়ম্) এই (য়জমানঃ) যজ্ঞকারী তোমার পতি যজমান ও (ধ্রুবঃ) দৃঢ় সংকল্প । তোমরা উভয়ে (ঘৃতেন) ঘৃতাদি সুগন্ধিত পদার্থ দ্বারা (দ্যাবাপৃথিবী) আকাশ ও ভূমিকে (পূর্য়েথাম্) পরিপূর্ণ কর । হে যজ্ঞকারিণী স্ত্রী! তুমি (ইন্দ্রস্য) অত্যন্ত ঐশ্বর্য্যকেও স্বীয় যজ্ঞ দ্বারা (ছদিঃ) প্রাপ্তকারিণী (অসি) হও । এখন তুমিও তোমার পতি এই যজমান (বিশ্বজনস্য) সংসারের (ছায়া) সুখকারী (ভূয়াৎ) হও ॥ ২৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, যজ্ঞকারী যজমানের পত্নী এবং যজমান হইতে এবং যজ্ঞ হইতে দৃঢ় বিদ্যা ও সুখ লাভ করিয়া দুঃখ পরিত্যাগ করিবে, তাহাদের সৎকার এবং সেই যজ্ঞের অনুষ্ঠান সর্বদাই করিতে থাকিবে ॥ ২৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ধ্রু॒বাসি॑ ধ্রু॒বো᳕ऽয়ং য়জ॑মানো॒ऽস্মিন্না॒য়ত॑নে প্র॒জয়া॑ প॒শুভি॑র্ভূয়াৎ ।
ঘৃ॒তেন॑ দ্যাবাপৃথিবী পূর্য়েথা॒মিন্দ্র॑স্য ছ॒দির॑সি বিশ্বজ॒নস্য॑ ছা॒য়া ॥ ২৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ধ্রুবাসীত্যস্যৌতথ্যো দীর্ঘতমা ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । আর্ষী জগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal