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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 35
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - अतिजगती स्वरः - पञ्चमः
    2

    ज्योति॑रसि वि॒श्वरू॑पं॒ विश्वे॑षां दे॒वाना॑ स॒मित्। त्वꣳ सो॑म तनू॒कृद्भ्यो॒ द्वेषो॑भ्यो॒ऽन्यकृतेभ्यऽउ॒रु य॒न्तासि॒ वरू॑थ॒ꣳ स्वाहा॑। जुषा॒णोऽ अ॒प्तुराज्य॑स्य वेतु॒ स्वाहा॑॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज्योतिः॑। अ॒सि॒। वि॒श्वरू॑प॒मिति॑ वि॒श्वऽरू॑पम्। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। त्वम्। सो॒म॒। त॒नू॒कृद्भ्य॒ इति॑ तनू॒कृत्ऽभ्यः॑। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। अ॒न्यकृ॑तेभ्य इत्य॒न्यऽकृ॑तेभ्यः। उ॒रु। य॒न्ता। अ॒सि॒। वरू॑थम्। स्वाहा॑। जु॒षा॒णः। अ॒प्तुः। आज्य॑स्य। वे॒तु॒। स्वाहा॑ ॥३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ज्योतिरसि विश्वरूपँविश्वेषान्देवानाँ समित् । त्वँ सोम तनूकृद्भ्यो द्वेषोभ्यो न्यकृतेभ्यऽउरु यन्तासि वरूथँ स्वाहा जुषाणोऽअप्तुराज्यस्य वेतु स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ज्योतिः। असि। विश्वरूपमिति विश्वऽरूपम्। विश्वेषाम्। देवानाम्। समिदिति सम्ऽइत्। त्वम्। सोम। तनूकृद्भ्य इति तनूकृत्ऽभ्यः। द्वेषोभ्य इति द्वेषःऽभ्यः। अन्यकृतेभ्य इत्यन्यऽकृतेभ्यः। उरु। यन्ता। असि। वरूथम्। स्वाहा। जुषाणः। अप्तुः। आज्यस्य। वेतु। स्वाहा॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    ईश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे सोम! यथा त्वं विश्वेषां देवानां विश्वरूपं ज्योतिः समिदसि तनूकृद्भ्यो द्वेषोभ्योऽन्यकृतेभ्यश्च यन्तासि, तथोरु वरूथं स्वाहाप्तुराज्यस्य जुषाणः सन् मनुष्यः स्वाहा वेतु॥३५॥

    पदार्थः

    (ज्योतिः) सर्वप्रकाशकः (असि) (विश्वरूपम्) यथा सर्वं रूपं यस्मिंस्तथा (विश्वेषाम्) अखिलानाम् (देवानाम्) विदुषाम् (समित्) यथा सम्यगिध्यते तथा (त्वम्) (सोम) ऐश्वर्य्यप्रद (तनूकृद्भ्यः) यथा विस्तारकारिभ्यस्तथा (द्वेषोभ्यः) यथा द्विषन्ति तेभ्यस्तथा (अन्यकृतेभ्यः) यथाऽन्यैर्यानि क्रियन्ते तेभ्यः (उरु) बहु (यन्ता) नियमकर्त्ता (असि) (वरूथम्) वर्त्तुमर्हं गृहम्। वरूथमिति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰३।४) (स्वाहा) वाचम् (जुषाणः) प्रीतः (अप्तुः) व्यापकः (आज्यस्य) विज्ञानस्य (वेतु) जानातु (स्वाहा) वाचा। अयं मन्त्रः (शत॰ ३। ६। ३। ६-८) व्याख्यातः॥३५॥

    भावार्थः

    यस्मात् परमेश्वरः सर्वेषां लोकानां नियन्तास्ति, तस्मादेते नियमेषु चलन्ति॥३५॥

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    विषयः

    मधुच्छन्दाः। अग्निः=ईश्वरः। विराड् ब्राह्मी बृहती। मध्यमः ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे सोम! ऐश्वर्यप्रद! यथा त्वं विश्वेषाम् अखिलानां देवानां विदुषां विश्वरूपं यथा सर्वं रूपं यस्मिंस्तथा ज्योतिः सर्वप्रकाशक: समित् यथा सम्यगिध्यते तथा असि । तनूकृद्भ्यः यथाविस्तारकारिभ्यस्तथा, द्वेषोभ्यः यथा द्विषन्ति तेभ्यस्तथा,अन्यकृतेभ्यः यथाऽन्यैर्यानि क्रियन्ते तेभ्यः च यन्ता नियमकर्ता असि । तथोरु बहुः वरूथं वर्त्तुमर्हं गृहं स्वाहा वाचम् अप्तुः व्यापकःआज्यस्य विज्ञानस्य जुषाणः प्रीतः सन् मनुष्यः स्वाहा वाचा वेतु जानातु ।। ५ । ३५ ।। [हे सोम! यथा त्वं.......यन्तासि]

    पदार्थः

    (ज्योतिः) सर्वप्रकाशकः (असि) (विश्वरूपम् ) यथा सर्वं रूपं यस्मिँस्तथा (विश्वेषाम्) अखिलानाम् (देवानाम्) विदुषाम् (समित्) यथा सम्यमिध्यते तथा (त्वम्) (सोम) ऐश्वर्यप्रद (तनूकृद्भ्यः) यथा विस्तारकारिभ्यस्तथा (द्वेषोभ्यः) यथा द्विषन्ति तेभ्यस्तथा (अन्यकृतेभ्यः) यथाऽन्यैर्यानि क्रियन्ते तेभ्यः (उरु) बहु (यन्ता) नियमकर्त्ता (असि) (वरूथम्) वर्त्तुमर्हं गृहम्। वरूथमिति गृहनामसु पठितम् ॥ निघं० ३। ४ ॥ (स्वाहा) वाचम् (जुषाण:) प्रीतः (अप्तुः) व्यापकः (आज्यस्य) विज्ञानस्य (वेतु) जानातु (स्वाहा) वाचा ॥ अयं मन्त्रः शत० ३। ६। ३। ६-८ व्याख्यातः ॥ ३५॥

    भावार्थः

    यस्मात् परमेश्वरः सर्वेषां लोकानां नियन्तास्ति तस्मादेते नियमेषु चलन्ति।। ५ । ३५ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    यन्ता=सर्वेषां लोकानां नियन्ता।

    विशेषः

    मधुच्छन्दाः। अग्निः=ईश्वरः। विराड् ब्राह्मी बृहती। मध्यमः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर कैसा है, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्य देने वाले जगदीश्वर! आप (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) विद्वानों के (विश्वरूपम्) सब रूपयुक्त (ज्योतिः) सब के प्रकाश करने वाले (समित्) अच्छे प्रकाशित (असि) हैं (तनूकृद्भ्यः) शरीरों को सम्पादन करने (द्वेषोभ्यः) और द्वेष करने वाले जीवों तथा (अन्यकृतेभ्यः) अन्य मनुष्यों के किये हुए दुष्ट कर्म्मों से (यन्ता) नियम कराने वाले (असि) हैं, उनसे (उरु) बहुत (वरूथम्) उत्तम गृह (स्वाहा) वाणी (अप्तुः) व्यापक (आज्यस्य) विज्ञान को (जुषाणः) सेवन करता हुआ मनुष्य (स्वाहा) वेदवाणी को (वेतु) जाने॥३५॥

    भावार्थ

    जिससे परमेश्वर सब लोकों का नियम करने वाला है, इससे ये नियम में चलते हैं॥३५॥

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    विषय

    विश्वरूप ज्योति

    पदार्थ

    ‘गत मन्त्र के अनुसार उत्तम माता-पिता व आचार्य के सम्पर्क में आनेवाला यह ‘मधुच्छन्दा’ शरीर में ‘सोम’ की रक्षा के द्वारा कैसा बनता है?’ इसका वर्णन प्रस्तुत मन्त्र में करते हैं। 

    १. हे सोम! तू ( विश्वरूपं ज्योतिः असि ) = सब पदार्थों का निरूपण करनेवाला ज्ञान है। यह सोम की रक्षा करनेवाला सब पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करता है। 

    २. ( विश्वेषां देवानां समित् ) = यह सुरक्षित सोम सब दिव्य गुणों को दीप्त करनेवाला होता है। सोम की रक्षा होने पर मन में द्वेषादि बुरी वृत्तियाँ उत्पन्न ही नहीं होतीं और दिव्य गुणों का विकास होता है। 

    ३. हे सोम! ( त्वम् ) = तू ( तनूकृद्भ्यः ) = [ तनूं कृन्तन्ति ] शरीर को छिन्न-भिन्न करनेवाले ( अन्यकृतेभ्यः ) = दूसरों के विषय में या दूसरों से किये गये [ अन्येषु अन्यैः वा कृतेभ्यः ] ( द्वेषोभ्यः ) = द्वेषों से ( उरु ) = खूब ( यन्ता ) = रोकनेवाला ( असि ) = है। सोम का पान करनेवाला द्वेष पर काबू पा लेता है। सोमरक्षा के अभाव में मनुष्य औरों से द्वेष करनेवाला बनता है और अपने ही शरीर को छिन्न-भिन्न कर लेता है। 

    ४. यह सुरक्षित सोम ( वरुथम् ) = रक्षण [ cover ] को ( उरु ) = खूब ( यन्ता ) = देनेवाला ( असि ) = है। यह शरीर को रोगों से बचाता है तो मन को मैल से तथा मस्तिष्क को कुण्ठा से बचानेवाला होता है। ( स्वाहा ) = [ सु+आह ] यह बात कितनी सुन्दर कही गई है ? 

    ५. ( जुषाणः ) = सोम का प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ, अर्थात् बड़े उत्साह से शरीर में सोम को सुरक्षित करता हुआ यह मधुच्छन्दा ( अप्तुराज्यस्य ) = [ अप्तु = सोम, शरीर में व्याप्त होनेवाला, ( आज्यं ) = तेजः—तै० १।६।३।४ ] शरीर में व्याप्त होनेवाले सोम के तेज को ( वेतु ) = [ वी गति ] प्राप्त हो। ( स्वाहा ) = इस कार्य के लिए वह अधिक-से-अधिक [ स्व का हा ] आत्मत्याग करे। सब आरामों को छोड़कर तपस्वी बने।

    भावार्थ

    भावार्थ — शरीर में सुरक्षित सोम ज्ञान को बढ़ाता है, दिव्य गुणों को दीप्त करता है, द्वेष से दूर करता है। शरीर, मन व बुद्धि सभी को सुरक्षित करता है। तेजस्वी बनाता है। मधुच्छन्दा की ये ही उत्तम इच्छाएँ हैं। उसकी ये सब इच्छाएँ सोम के अनुग्रह से पूर्ण होती हैं।

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! तू ( विश्वरूपं ज्योतिः असि ) नानारूप से प्रकाशित होने वाला या सब प्रकार का ज्योति : प्रकाशक, सूर्य के समान तेजस्वी है । और ( विश्वेषां देवानाम् ) समस्त देवों, विद्वानों और राजपदाधिकारियों को ( सम्-इत् ) अच्छी प्रकार तेजस्वी बनाने और चमकाने वाला है । हे (सोम) सब के प्रेरक राजन् ! तू ( तनूकृद्भ्यः) शरीरों के नाश करने वाले ( द्वेषोभ्यः ) और परस्पर द्वेष कलह करने वाले और (अन्यकृतेभ्यः ) अन्य अर्थात् शत्रुओं से किये गये या लगाये गये गूढ शत्रुओं से भी राष्ट को बचाने के लिये ( उरु वरूथम् ) शत्रु के वारण करने में समर्थ विशाल सेना बल को ( यन्तासि ) नियमन करता है। ( सु- आहा ) तेरे निमित्त हमारा यह उत्तम त्याग है (आज्यस्य ) आज्य, घृत के समान पुष्टिकारक या आजि, संग्राम योग्य बलवीर्य को ( जुषाणः ) सेवन एवं प्राप्त करता हुआ (अप्तु: ) आप्त राजा ( स्वाहा ) उत्तम व्यवस्था से, इस उत्तम आहुति को ( वेतु ) प्राप्त करे । 
    ईश्वर पक्ष में -- सब देवों, दिव्य पदार्थों का प्रकाशक, 'विश्वरूप' ज्योति परमेश्वर है । हे सोम परमेश्वर ! हमारे शरीर के नाशक और अन्य सब द्वेषों को भी नियमन करने वाला तू ही स्वयं बड़ा भारी बल है । तू ही सर्व व्यापक समस्त आज्य=बल वीर्य का स्वामी होकर हमें भली प्रकार प्राप्त है । 
     

    टिप्पणी

    ३५ -- अग्निर्देवता । द० । क्रतुर्भार्गव ऋषिः । सर्वा० ॥ ३५ -- अगस्त्यऋषिः । द० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिःऋषिः। क्रतुर्भार्गवऋषिः। विश्वेदेवाः सोमोग्निर्वा देवता । निचृद् ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ।

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    विषय

    ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्य के दाता ईश्वर! जैसे (त्वम्) आप (विश्वेषाम्) सब(देवानाम्) विद्वानों के (विश्वरूपम्) सब रूपों वाली (ज्योतिः) ज्योति एवं सर्वप्रकाशक (समित्) समिधा (असि) हो। और-- (तनूकृद्भ्यः) अपना विस्तार करने वाले के (द्वेषोभ्य:) द्वेष करने वालों के (अन्यकृतेभ्यः) धर्मात्माओं से अन्य अर्थात् पापीजनों के (यन्ता) नियामक (असि) हो। वैसे (उरु) विशाल (वरूथम्) वरण करने योग्य घर को और (स्वाहा) वेदवाणी को (अप्तुः) प्राप्त करने वाला तथा (आज्यस्य) विज्ञान से (जुषाण:) प्रेम करने वाला मनुष्य (स्वाहा) वेदवाणी से एवं विद्वानों के उपदेश से उक्त ईश्वर को (वेतु) जाने ।। ५ । ३५ ।।

    भावार्थ

    जिससे परमेश्वर सब लोकों का नियन्ता है इसलिये ये सब लोक नियमों में चलते हैं ।। ५ । ३५ ।।

    प्रमाणार्थ

    (वरूथम्) यह शब्द निघं० (३।४) में गृह नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।६।३।६-८) में की गई है ।। ५ । ३५ ।।

    भाष्यसार

    ईश्वर कैसा है--ईश्वर ऐश्वर्य का देने वाला है। सब विद्वानों का रूप उसमें विद्यमान है अर्थात् सब विद्वानों की विद्या का मूल ईश्वर है। सबका प्रकाशक है तथा स्वयं प्रकाश स्वरूप है। विस्तार करने वाले, द्वेष करने वाले, पाप करने वाले लोगों का नियामक है। सब लोकों का नियन्ता भी वही है। इसलिये सब लोक अपने-अपने नियमों में चलते हैं। सब के घरों में और वाणी में व्यापक है। विज्ञान से प्रसन्न होकर सब मनुष्य वेदवाणी से उस ईश्वर को जानें ।। ५ । ३५ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वर संपूर्ण ग्रह-तारे इत्यादीसंबंधी नियम बनवितो त्यामुळेच ते सर्व त्याच्या नियमानुसार चालतात.

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    विषय

    ईश्‍वर कसा आहे, ते पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (सोम) ऐश्‍वर्य दायक परमेश्‍वर, आपण (विश्‍वेषाम्) सर्व (देवानाम्) विद्वज्जनांना (विश्‍वरूपम्) सर्व रूपांचे ज्ञान देणारे (ज्योतिः) सर्वांना प्रकाश व प्रेरणा देणारे (समित्) असे सर्वत्र प्रसिद्ध (असि) आहात. (तवून्यकृतेभ्यः) शारीरिक शक्ती संपादित करणार्‍या जनांकरिता सहायक आहात. (द्वेषोभ्यः) इतरांचा द्वेष करणाऱ्या जीवांचे व (अन्यकृतेभ्यः) इतर दुष्टकर्म करणाऱ्या लोकांचे (यन्ता) नियंत्रण वा अवरोधन करणारे (असि) आहात. त्या विद्वानांकडून प्राप्त होणार्‍या (उस) अत्यंत (वरूथम्) उत्तम निवास (स्वाहा) श्रेष्ठ वाणी (अप्तु) आणि व्यापक (आज्यस्य) विज्ञानाच्या सिद्धांतांपासून लाभ घेत सर्व मनुष्यांनी (स्वाहा) वेदवाणी (वेतु) शिकावी, ज्ञान प्राप्त करावे, (अशी आमची प्रार्थना आहे) ॥35॥

    भावार्थ

    भावार्थ - परमेश्‍वर सर्व लोक-लोकांतराचे नियमन संचालन व नियंत्रण करणारा आहे. त्यामुळेच सर्व लोक (ग्रह, नक्षत्रादी) नियमाने गती करतात ॥35॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Splendid God, Thou art the light and fine illuminator of all the learned persons. Thou art the controller of the sins committed by us and others, and those who practise hatred. Let the man possessing a fine home, good speech and vast knowledge know the Vedas.

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    Meaning

    Agni, you are the light of universal knowledge, a flame of fire for the scholars of the world to light up and reveal the form and structure of the world. Soma you are the vast power of order and control over the envious, the self-expansive servers of the flesh, the negative and uncreative people. May the lover of technology, fast and anxious, choose to dedicate himself to the great and valuable secrets and powers of Agni, and know and confirm the divine voice of the Veda.

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    Translation

    O Lord, you are the light having various forms and figures, that is the kindling fuel for all the bounties of Nature. (1) О blissful Lord, protect us from body-injuring beasts as well as malious enemies. You are the mighty controller of such evil agents. Svaha. (2) Enjoying the bliss of your knowledge, may we come to realise you. Svaha. (3)

    Notes

    Visvarüpam jyotih, a sight which has all sorts of forms Notes 462 Samit, kindling fuel. Tanükrdbhyah, तनू शरीरं कृन्तंति ये तेभ्य: ; to those who injure bodies; beasts. Yanta, controller. Aptuh, Soma-juice; also, bliss. Ajyasya, विज्ञानस्य , of (your) knowledge.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ঈশ্বরঃ কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    ঈশ্বর কেমন, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (সোম) ঐশ্বর্য্য প্রদাতা পরমেশ্বর! আপনি (বিশ্বেষাম্) সকল (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের (বিশ্বরূপম্) সব রূপযুক্ত (জ্যোতিঃ) সকলের প্রকাশকারী (সমিৎ) ভাল মত প্রকাশিত (অসি) আছেন । (তনূকৃদ্ভ্যঃ) শরীরকে সম্পাদনকারী (দ্বেষোভ্যঃ) এবং দ্বেষকারী জীব তথা (অন্যকৃতেভ্যঃ) অন্য মনুষ্যদিগের কৃত দুষ্ট কর্ম হইতে (য়ন্তা) নিয়মণকারী (অসি) হন । তাহাদিগের হইতে (উরু) বহু (বরুথম্) উত্তম গৃহ (স্বাহা) বাণী (অপ্তুঃ) ব্যাপক (আজ্যস্য) বিজ্ঞান (জুষাণঃ) সেবন করিয়া মনুষ্য (স্বাহা) বেদবাণীকে (বেতু) জানুক ॥ ৩৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যদ্দ্বারা পরমেশ্বর সর্ব লোকের নিয়মনকারী তদ্দ্বারা ইনি নিয়মে চলেন ॥ ৩৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    জ্যোতি॑রসি বি॒শ্বরূ॑পং॒ বিশ্বে॑ষাং দে॒বানা॑ᳬं স॒মিৎ ।
    ত্বꣳ সো॑ম তনূ॒কৃদ্ভ্যো॒ দ্বেষো॑ভ্যো॒ऽন্যকৃ॑তেভ্যऽউ॒রু য়॒ন্তাসি॒ বরূ॑থ॒ꣳ স্বাহা॑ ।
    জুষা॒ণোऽ অ॒প্তুরাজ্য॑স্য বেতু॒ স্বাহা॑ ॥ ৩৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    জ্যোতিরসীত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাট্ ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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