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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 38
    ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    2

    उ॒रु वि॑ष्णो॒ विक्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि। घृतं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर॒ स्वाहा॑॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒रु। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। वि। क्र॒म॒स्व॒। उ॒रु। क्षया॑य। नः॒। कृ॒धि॒। घृ॒तम्। घृ॒त॒यो॒न॒ इति॑ घृतऽयोने। पि॒ब॒। प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ति॒र॒। स्वाहा॑ ॥३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उरु विष्णो विक्रमस्वोरु क्षयाय नस्कृधि घृतङ्घृतयोने पिब प्रप्र यज्ञपतिन्तिर स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उरु। विष्णोऽइति विष्णो। वि। क्रमस्व। उरु। क्षयाय। नः। कृधि। घृतम्। घृतयोन इति घृतऽयोने। पिब। प्रप्रेति प्रऽप्र। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। तिर। स्वाहा॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 38
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यथा विष्णुर्विक्रमते तथोरु विक्रमस्व नः क्षयाय उरु कृधि, हे घृतयोने! यथाग्निराज्यं पिबति तथा त्वं प्रप्रपिब, यथा च ऋत्विगादयो यज्ञपतिं संरक्ष्य दुःखं तरन्ति, तथा त्वं स्वाहा वाचं वदन् सन् विजयेन यज्ञेन यज्ञं प्रप्रतिर॥३८॥

    पदार्थः

    (उरु) बहु (विष्णो) यथा सर्वव्यापकेश्वरः सर्वं जगन्निर्मातुं तथा (विक्रमस्व) गच्छ (उरु) बहु (क्षयाय) निवासार्थाय गृहाय विज्ञानादिप्राप्तये वा (नः) अस्मान् (कृधि) कुरु (घृतम्) आज्यम् (घृतयोने) यथा घृतयोनिरग्निस्तथा तत्सम्बुद्धौ (पिब) (प्रप्र) प्रकृष्टार्थे (यज्ञपतिम्) यथा होत्रादयो यज्ञपतिं रक्षन्तो यतन्ते तथा (तिर) प्लवस्व (स्वाहा) यज्ञक्रियायाः। अयं मन्त्रः (शत॰३। ६। ३। १५) व्याख्यातः॥३८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा परमेश्वरो व्यापकत्वात्सर्वं जगद्रचितुं रक्षितुं समर्थः सर्वान् सुखयति, तथानन्दयितव्यम्। यथा चाग्निरिन्धनानि प्रदहति तथा शत्रव प्रदग्धव्या। यथा होत्रादयो धार्मिकं यज्ञपतिं प्राप्य स्वकार्य्याणि साध्नुवन्ति, तथा प्रजास्थाः पुरुषा धर्मात्मानं सभापतिं प्राप्य सुखानि साध्नुवन्तु॥३८॥

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    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    यथा [विष्णो]=विष्णुः सर्वव्यापकेश्वरः सर्वं जगन्निर्मातुं विक्रमते, तथोरु बाहु विक्रमस्व गच्छ। नः अस्मान् क्षयाय निवासार्थाय ग्रहाय विज्ञानादिप्राप्तये वा उरु बहु कृधि कुरु। हे घृतयोने! यथा घृतयोनिरग्निस्तथा तत्सम्बुद्धौ यथाग्निराज्यं पिबति तथा त्वं घृतम्आज्यम् प्रप्र प्रकृष्टं पिब । यथा च ऋत्विगादयो यज्ञपतिं यथाहोत्रादयो यज्ञपतिं रक्षन्तो यतन्ते तथा संरक्ष्य दुःखं तरन्ति, तथा त्वं स्वाहा यज्ञक्रियायाः वाचं वदन् सन् विजयेन यज्ञेन यज्ञं प्रप्र-तिर प्रकृष्टं प्लवस्व ॥ ५ । ३८ ।। [यथा [विष्णो] विष्णुर्विक्रमते तथोरु विक्रमस्व]

    पदार्थः

    (उरु) बहु (विष्णो) यथा सर्वव्यापकेश्वरः सर्वं जगन्निर्मातुं तथा (विक्रमस्व) गच्छ (उरु) बहु (क्षयाय) निवासार्थाय गृहाय विज्ञानादिप्राप्तये वा (नः) अस्मान् (कृधि) कुरु (घृतम्) आाज्यम् (घृतयोने) यथा घृतयोनिरग्निस्तथा तत्सम्बुद्धौ (पिब) (प्रप्र) प्रकृष्टार्थे (यज्ञपतिम्) यथा होत्रादयो यज्ञपतिं रक्षन्तो यतन्ते तथा (तिर) प्लवस्व (स्वाहा) यज्ञक्रियायाः ॥ अयं मंत्रः शत० ३ । ६ । ३ । १५ व्याख्यातः ॥ ३८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः ।। यथा परमेश्वरो व्यापकत्वात् सर्वं जगद्रचितुं रक्षितुं समर्थः सर्वान् सुखयति तथानन्दयितव्यम्। [हे घृतयोने! यथाग्निराज्यं पिबति तथा त्वं घृतं प्रप्रपिब] यथा चाग्निरिन्धनानि प्रदहति तथा शत्रवःप्रदग्धव्याः । [यथा च ऋत्विगादयो यज्ञपतिं संरक्ष्य दुःखं तरन्ति तथा त्वं स्वाहा वाचं वदन् सन् विजयेन यज्ञेन यज्ञं प्रप्रतिर] यथा होत्रादयो धार्मिकं यज्ञपतिं प्राप्य स्वकार्याणि साध्नुवन्ति तथा प्रजास्थाः पुरुषा धर्मात्मानं सभापतिं प्राप्य सुखानि साध्नुवन्तु॥ ५। ३८ ॥

    विशेषः

    अगस्त्यः। विष्णुः=ईश्वरः शूरश्च ॥ भुरिगार्ष्यनुष्टुप्। गान्धारः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जैसे सर्वव्यापक परमेश्वर सब जगत् की रचना करता हुआ जगत् के कारण को प्राप्त हो सब को रचता है, वैसे हे विद्यादि गुणों में व्याप्त होने वाले वीर पुरुष! अपने विद्या के फल को (उरु) बहुत (वि) अच्छी तरह (क्रमस्व) पहुंच (क्षयाय) निवास करने योग्य गृह और विज्ञान की प्राप्ति के योग्य (नः) हम लोगों को (कृधि) कीजिये। हे (घृतयोने) विद्यादि सुशिक्षायुक्त पुरुष! जैसे अग्नि घृत पी के प्रदीप्त होता है, वैसे तू भी अपने गुणों में (घृतम्) घृत को (प्रप्र पिब) वारंवार पी के शरीर बलादि से प्रकाशित हो और ऋत्विज आदि विद्वान् लोग (यज्ञपतिम्) यजमान की रक्षा करते हुए उसे यज्ञ से पार करते हैं, वैसे तू भी (स्वाहा) यज्ञ की क्रिया से यज्ञ के (तिर) पार हो॥३८॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर अपनी व्यापकता से कारण को प्राप्त हो सब जगत् के रचने और पालने से सब जीवों को सुख देता है, वैसे आनन्द में हम सभों को रहना उचित है। जैसे अग्नि काष्ठ आदि इन्धन वा घृत आदि पदार्थों को प्राप्त हो प्रकाशमान होता है, वैसे हम लोगों को भी शत्रुओं को जीत प्रकाशित होना चाहिये, और जैसे होता आदि विद्वान् लोग धार्मिक यज्ञ करने वाले यजमान को पाकर अपने कामों को सिद्ध करते हैं, वैसे प्रजास्थ लोग धर्मात्मा सभापति को पाकर अपने-अपने सुखों को सिद्ध किया करें॥३८॥

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    विषय

    स्वयं कर

    पदार्थ

    १. अगस्त्य की इस प्रार्थना को सुनकर कि ‘यह अग्नि हमारे लिए धनों व शत्रुओं को जीते’ प्रभु कहते हैं कि हे ( विष्णो ) = व्यापक उन्नति करनेवाले जीव! तू ( उरु ) = खूब ही ( विक्रमस्व ) = विक्रम कर, पुरुषार्थ कर। प्रभु का साहाय्य तो तुझे तभी मिलेगा जब तू स्वयं शरीर, मन व मस्तिष्क की त्रिविध उन्नति में प्रवृत्त होगा। 

    २. प्रभु पुनः कहते हैं कि ( नः क्षयाय ) = हमारे निवास के लिए ( उरु कृधि ) = हृदय को विशाल बना। विशाल हृदय में ही पवित्रता के कारण प्रभु का निवास होता है। 

    ३. हे ( घृतयोने ) = घृतरूप योनिवाले जीव! तू ( घृतम् ) = घृत ( पिब ) = पी। ‘घृत’ शब्द में दो भावनाएँ हैं [ क ] क्षरण = मलों का दूर होना, [ ख ] दीप्ति। शरीर की उन्नति के लिए मलों का दूर होना आवश्यक है। शरीर में मलों का सञ्चय होने पर ही रोग उत्पन्न होते हैं। मस्तिष्क का विकास ज्ञान की दीप्ति से होता है। एवं, जीव ‘घृतयोनि’ है—मलों का क्षरण व ज्ञान-दीप्ति ही उसके शरीर व मस्तिष्क की उन्नति के कारण हैं, अतः शारीरिक व बौद्धिक उन्नति के लिए घृत का पान करना आवश्यक है। घृतपान का अभिप्राय यही है कि सदा मलों के क्षरण का ध्यान किया जाए और ज्ञानदीप्ति को प्राप्त किया जाए। 

    ४. इस प्रकार हृदय को विशाल बनाकर, शरीर के मलों का क्षरण करके और बौद्धिक विकास करके हे ( विष्णो ) = तीन कदमों को रखनेवाले जीव! तू ( यज्ञपतिम् ) = सब यज्ञों के पति प्रभु को ( प्रप्रतिर ) = अपने अन्दर खूब ही बढ़ा [ प्रतिरतिः वर्धनार्थः ]।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम विष्णु बनें । हृदय को विशाल, शरीर को निर्मल व बुद्धि को दीप्त बनाकर अपने हृदय में उस यज्ञपति प्रभु को आसीन करें।

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( विष्णो ) विद्या आदि गुणों में व्यापक ! अथवा शत्रु के गढ़ों में और पूर्ण राष्ट्र में प्रवेश करने में चतुर ! सेनापते ! तू ( उरु विक्रमस्व ) खूब अधिक विक्रम पराक्रम कर। ( नः ) हमारे ( क्षयाय ) निवास के लिये ( उरु ) बहुत अधिक ऐश्वर्य एवं विशाल राष्ट्र का ( कृधि ) उत्पन्न कर । ( घृतयोने) घृत से जिस प्रकार अग्नि बढ़ता है उसी प्रकार घृत अर्थात् दीप्ति और तेज के आश्रय भूत राजन् ! तू भी खूब ( घृतं पिब ) अग्नि के समान घृत=तेज, पराक्रम का पान कर, उसको प्राप्त कर । और ( यज्ञपतिम् ) जिस प्रकार विद्वान् जन यज्ञपति, यजमान को पार कर देते हैं उसको तार देते हैं, उसी प्रकार तू भी ( यज्ञपतिम् ) यज्ञरूप सुव्यवस्थित, सुसंगत राष्ट्र के पालक राजा को ( स्वाहा ) अपनी उत्तम वीर्याहुति से ( प्र प्र तिर ) भली प्रकार विजय कार्य के पार कर दे ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिःऋषिः।विष्णुर्देवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥ 

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    विषय

    फिर वे कैसे हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।।

    भाषार्थ

    जैसे [विष्णो] विष्णु अर्थात् सर्वव्यापक ईश्वर सब जगत् को निर्माण में समर्थ है, वैसेहे शूरवीर! तू भी (उरु) बहुत अच्छे प्रकार से (विक्रमस्व) समर्थ बन और (नः) हमें (क्षयाय) निवास के लिये घर वा विज्ञानादि की प्राप्ति के लिए (उरु) अत्यन्त समर्थ (कृधि) बना । हे (घृतयोने) घृत से प्रदीप्त अग्नि के तुल्य तेजस्वी वीर पुरुष! जैसे अग्नि घृत को पीती है वैसे तू (घृतम्) घी का (प्र प्र पिब) बार-बार पान कर। और-- जैसे ऋत्विगादि लोग (यज्ञपतिम्) यजमान की रक्षा करके दुःख से पार होते हैं, वैसे तू भी (स्वाहा) यज्ञ की वाणी को बोलता हुआ विजय रूप यज्ञ से शुभ कर्मों का (प्रप्र-तिर) प्रस्तार कर ।। ५ । ३८ ।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है।। जैसे परमेश्वर व्यापक होने से सब जगत् की रचना औररक्षा में समर्थ है और सबकोसुख देता है वैसे शूर पुरुष सबको आनन्दित करें। जैसे अग्नि ईंधन को जलाती है वैसे शूर पुरुष शत्रुग्रों का दहन करें। जैसे ऋत्विक् आदि धार्मिक यजमान को प्राप्त करके अपने कार्यों को सिद्ध करते हैं वैसे प्रजा के लोग धर्मात्मा सभापति को प्राप्त करके सुखों को सिद्ध करें ॥ ५ । ३८ ॥

    प्रमाणार्थ

    इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ६ । ३ । १५) में की गई है ।। ५ । ३८ ॥

    भाष्यसार

    १. ईश्वर और शूर कैसे हैं–विष्णु अर्थात् ईश्वर सर्वव्यापक होने से जगत् की रचना और रक्षा करने में समर्थ होकर सबको सुख-प्रदान करता है। इसी प्रकार वीर पुरुष भी अपने शूरता-आदि गुणों से सब वीर पुरुषों में व्यापक होकर प्रजा का निवास-स्थान घर की रक्षा तथा विज्ञान-प्राप्ति आदि कार्य करने-कराने में समर्थ होता है । अग्नि की योनि=निमित्त घृत है। इसलिये वह घृत को प्राप्त करके प्रदीप्त होता है। जैसे यह अग्नि घृत तथा ईंधन आदि को जलाती है इसी प्रकार शूर पुरुष शत्रुओं का दहन करता है। जैसे ऋत्विक् आदि विद्वान् पुरुष धार्मिक यजमान को प्राप्त करके, उसको रक्षा करके दुःखोंको तरते हैं, अपने कार्यों को सिद्ध करते हैं वैसे प्रजा भी धर्मात्मा शूरवीर सभापति को प्राप्त करके सब सुखों को सिद्ध करती है। २. अलङ्कार--यहाँ उपमा यह है कि शूर पुरुष ईश्वर के समान प्रजा की रक्षा करे। अग्नि के समान शत्रुओं का दहन करे। ऋत्विक् आदि के समान प्रजा का संरक्षण करे ।। ५ । ३८ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वर व्यापक असून, सर्व जगाची उत्पती करताना प्रकृतीरूपी मूळ कारणांपासून करतो सर्व जीवांचे पालन करून त्यांना जसे सुखी करतो तसे आपणही सुखी व आनंदी राहावे. लाकूड इत्यादी इंधन किंवा घृत इत्यादी पदार्थांमुळे अग्नी जसा (प्रकाशित) प्रज्वलित होतो तसेच आपणही शत्रूंना जिंकून प्रकाशवान (प्रसिद्ध) व्हावे. होता इत्यादी विद्वान लोक ज्याप्रमाणे धर्मयज्ञ करणाऱ्या यजमानामुळे आपले कार्य पूर्ण करतात त्याप्रमाणेच प्रजेनेही धर्मात्मा राजाच्या सान्निध्याने आपले सुख प्राप्त करावे.

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    विषय

    पुनश्‍च, ते दोघे (ईश्‍वरोपासक आणि सेनापती) कसे आहेत, याविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - ज्याप्रमाणे सर्वव्यापी परमेश्‍वर सर्व जगाची रचना करतो, सृष्टीने कारणरूप होऊन राहतो, त्याप्रमाणे विद्या आदी गुणांचा ज्ञाता असलेल्या हे वीर पुरुषा, तूदेखील आपल्या विद्या, ज्ञान व क्रिया आदीद्वारे (उरु) अत्यंत (वि) सहजतेने फळ वा यश (क्रमस्व) प्राप्त कर. आणि (क्षयाय) निवास करण्यास योग्य घरें आणि उपकारक विज्ञानाच्या प्राप्तीसाठी (नः) आम्हास (कृधि) साहाय्य कर. हे (घृतयोने) विद्या आणि ज्ञानाने समृद्ध अशा पुरुषा, ज्याप्रमाणे अग्नी तूप पिऊन प्रदीप्त होतो. तद्वत तू देखील आपल्या गुरांच्या वृद्धीसाठी (घृतं) घृताचे (प्रप पिब) वारंवार पान कर (तूप खा) आणि भरपूर शारीरिक शक्ती अर्जित कर. ज्याप्रमाणे ऋत्विज आदी विद्वज्जन (यज्ञपतिं) यजमानाचे रक्षण करीत त्याला यज्ञाच्या समाप्ती पर्यंत सकुशल नेतात, त्याप्रमाणे तूदेखील (स्वाहा) यज्ञ-मंत्राच्या उच्चारण आणि क्रियेद्वारे (यज्ञम्) हा यज्ञ (तिर) पोहून पार कर (निर्विघ्नपणे यज्ञ संपन्न कर) ॥38॥

    भावार्थ

    भावार्थ - परमेश्‍वर जगात व्यापक असून जगाचे निमित्त कारण आहे. तो जगदरचना करून, जगाचे पालन करीत सर्व प्राण्यांना सखी करतो, आम्ही त्याच्या या जगात राहून सदैव प्रसन्न असावे. ज्याप्रमाणे अग्नी काष्ठ, घृत आदी ज्वलनशील पदार्थामुळे अधिकाधिक प्रकाशित होतो, त्याप्रमाणे आम्ही देखील आपल्या शत्रूंना जिंकून अधिकाधिक कीर्तीमान व्हावे. आणि जसे धार्मिक यज्ञकर्त्ता यजमान मिळाल्यानंतर होता आदी विद्वज्जन आपले यज्ञकर्म सिद्ध करतात, तसे आम्हा प्रजाजनांना जेव्हां धर्मात्मा सभापती, (राष्ट्रध्यक्ष वा सेनापती) मिळतो, तेव्हा आम्ही स्वतःच्या सुखांची पूर्तता करून घ्यावी. ॥38॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O General, attack the enemy with full force; and give ample room for our abode. O learned General, just as fire assimilates ghee and burns brightly; so shouldst thou develop thy virtues and shine in battles. Just as priests protecting the worshipper make him overcome all calamities, so shouldst thou with thy oratory win battles.

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    Meaning

    Vishnu, lord of life and sustenance/Man of knowledge, power and wealth, go far and forward in your exploits and enable us to expand with our homes, wealth, knowledge and happiness. Born of ghee and rising with ghee the fire devours its food and blazes. You too light the fire with knowledge and action and grow continuously in knowledge, action, wealth and happiness. Take the master of yajna across the fields of life, chanting the hymns of yajna, to a safe haven of joy.

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    Translation

    O sacrifice, spread far and wide. Make ample space for our living. O fire, born of melted butter, consume melted butter to your heart’s desire. Make the sacrificer prosper Svaha. (3)

    Notes

    Kshayaya, for living space. Pra piba, drink to your heart's desire.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তৌ কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় তাহারা কেমন, এই উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–যেমন সর্বব্যাপক পরমেশ্বর সকল জগতের রচনা করিতে থাকিয়া জগতের কারণকে প্রাপ্ত হইয়া সকল রচনা করেন সেইরূপ হে বিদ্যাদি গুণে ব্যাপ্ত হওয়া বীর পুরুষ ! স্বীয় বিদ্যার পরিণামকে (উরু) অত্যন্ত (বি) ভাল মত (ক্রমস্ব) পৌঁছাইয়া (ক্ষয়ায়) নিবাস করিবার যোগ্য গৃহ এবং বিজ্ঞানের প্রাপ্তির যোগ্য (নঃ) আমাদিগকে (কৃধি) করুন । হে (ঘৃতয়োনে) বিদ্যাদি সুশিক্ষাযুক্ত পুরুষ! যেমন অগ্নি ঘৃত পান করিয়া প্রদীপ্ত হয় সেইরূপ আপনি নিজ গুণে (ঘৃতম্) ঘৃতকে (প্রপ্র পিব) বারবার পান করিয়া শরীর বলাদি দ্বারা প্রকাশিত হউন এবং ঋত্বিজাদি বিদ্বান্গণ (য়জ্ঞপতিম্) যজমানের রক্ষা করিয়া তাহাকে যজ্ঞ হইতে উত্তীর্ণ করেন সেইরূপ তুমিও (স্বাহা) যজ্ঞের ক্রিয়া দ্বারা (যজ্ঞম্) যজ্ঞকে (তির) উত্তীর্ণ কর ॥ ৩৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যেমন পরমেশ্বর স্বীয় ব্যাপকতা দ্বারা কারণকে প্রাপ্ত হইয়া সকল জগতের রচনা ও পালন দ্বারা সর্ব জীবকে সুখ প্রদান করেন সেইরূপ আনন্দপূর্বক আমাদের সকলের থাকা উচিত । যেমন অগ্নি, কাষ্ঠাদি ইন্ধন বা ঘৃতাদি পদার্থ প্রাপ্ত হইয়া প্রকাশমান হয়, সেইরূপ আমাদিগকেও শত্রুদেরকে জিতিয়া প্রকাশিত হওয়া উচিত এবং যেমন হোতাদি বিদ্বান্গণ ধার্মিক যজ্ঞ সম্পাদনকারী যজমানকে পাইয়া স্বীয় কর্ম সিদ্ধ করিয়া থাকেন সেইরূপ প্রজাস্থ লোকেরা ধর্মাত্মা সভাপতিকে পাইয়া নিজ নিজ সুখ সিদ্ধ করিতে থাকিবে ॥ ৩৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒রু বি॑ষ্ণো॒ বি ত্র॑ôমস্বো॒রু ক্ষয়া॑য় নস্কৃধি ।
    ঘৃ॒তং ঘৃ॑তয়োনে পিব॒ প্রপ্র॑ য়॒জ্ঞপ॑তিং তির॒ স্বাহা॑ ॥ ৩৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উরু বিষ্ণবিত্যস্যাগস্ত্য ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । ভুরিগার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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