यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 16
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - स्वराट् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
3
इ॒रा॑वती धेनु॒मती॒ हि भू॒तꣳ सूय॑व॒सिनी॒ मन॑वे दश॒स्या। व्य॑स्कभ्ना॒ रोद॑सी विष्णवे॒ते दा॒धर्त्थ॑ पृथि॒वीम॒भितो॑ म॒यूखैः॒ स्वाहा॑॥१६॥
स्वर सहित पद पाठइरा॑वती॒ इतीरा॑ऽवती। धे॒नु॒मती॒ इति॑ धे॒नु॒ऽमती॑। हि। भू॒तम्। सू॒य॒व॒सिनी॑। सु॒य॒व॒सिनी॒ इति॑ सु॒ऽयव॒सिनी॑। मन॑वे। द॒श॒स्या। वि। अ॒स्क॒भ्नाः॒। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। ए॒तेऽइत्ये॒ते॑। दा॒धर्त्थ॑। पृ॒थि॒वीम्। अ॒भितः॑। म॒यूखैः॑। स्वाहा॑ ॥१६॥
स्वर रहित मन्त्र
इरावती धेनुमती हि भूतँ सूयवसिनी मनवे दशस्या । व्यस्कभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
इरावती इतीराऽवती। धेनुमती इति धेनुऽमती। हि। भूतम्। सूयवसिनी। सुयवसिनी इति सुऽयवसिनी। मनवे। दशस्या। वि। अस्कभ्नाः। रोदसी इति रोदसी। विष्णोऽइति विष्णो। एतेऽइत्येते। दाधर्त्थ। पृथिवीम्। अभितः। मयूखैः। स्वाहा॥१६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनरीश्वरसूर्यगुणा उपदिश्यन्ते॥
अन्वयः
हे विष्णो जगदीश्वर! यस्त्वं येरावती धेनुमती सूयवसिनी भूमिं स्वाहा हि किल वाणीं भूतमुत्पन्नं सकलं जगच्च मयूरखैरभितो दाधर्थ धरसि रोदसी व्यस्कभ्नाः प्रतिबध्नासि तस्मै दशस्याय मनवे वयमेते च सर्वं जगन्निवेदयामो निवेदयन्तीत्येकः॥ यो विष्णुः प्राणो येरावती धेनुमती सूयवसिनी भूमिर्वाग्वास्ति तां पृथिवीं स्वाहा वागिन्द्रियं च मयूखैरभितो दाधर्थ धरति, रोदसी व्यस्कभ्नाः प्रतिबध्नाति, तस्मै दशस्याय मनवे प्राणाय भूतं हि किलोत्पन्नं सर्वं कार्यं जगत्प्रकाशितुं समर्थं प्राणं सर्वे विजानीतेति द्वितीयः॥१६॥
पदार्थः
(इरावती) इराः प्रशस्तान्यन्नानि विद्यन्ते यस्यां सा। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। इरेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२।७) (धेनुमती) प्रशस्ता बहवो धेनवो वाचः पशवो वा सन्त्यस्यां सा। अत्र प्रशंसार्थे भूम्यर्थे च मतुप्। (हि) किल (भूतम्) उत्पन्नं सर्व जगत् (सूयवसिनी) बहूनि शोभनानि मिश्रितान्यमिश्रितानि वस्तूनि विद्यन्ते यस्यां सा (मनवे) मन्यते येन ज्ञानेन तस्मै बोधाय (दशस्या) दशा इवाचरति तस्मै। अत्र बाहुलकादसुन्, स च कित्, तत आचारे क्यच्च। (वि) विशेषार्थे। (अस्कभ्नाः) प्रतिबध्नासि प्रतिबध्नाति वा। (रोदसी) प्रकाशपृथिवीलोकसमूहौ। (विष्णो) सर्वव्यापिन् जगदीश्वर! व्यापनशीलः प्राणो वा। (एते) विद्वांसः। (दाधर्थ) धरसि धरति वा। दाधर्ति॰। (अष्टा॰७।४।६५) अनेनायं यङ्लुगन्तो निपातितः। (पृथिवीम्) भूमिमन्तरिक्षं वा। पृथिवीत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। (निघं॰१।३) (अभितः) सर्वतः (मयूखैः) ज्ञानप्रकाशादिगुणैः रश्मिभिर्वा। मयूखा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰१। ५) (स्वाहा) वेदवाणी चक्षुरिन्द्रियं वा। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। ३। १४) व्याख्यातः॥१६॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा सूर्यः स्वकिरणैः स्वकान्तिभिः सर्वं भूम्यादिकं जगत्संस्तभ्याकृष्य धरति, तथैव परमेश्वरः प्राणो वा स्वसामर्थ्येन सर्वं प्राणादिकं जगद्रचित्वा संधार्य व्यवस्थापयति॥१६॥
विषयः
पुनरीश्वरसूर्यगुणा उपदिश्यन्ते॥
सपदार्थान्वयः
हे विष्णो=जगदीश्वर! सर्वव्यापिन् जगदीश्वर! यस्त्वं येरावती इरा:=प्रशस्तान्यन्नानि विद्यन्ते यस्यां सा धेनुमती प्रशस्ता बहवो धेनवो=वाचः पशवो वा सन्त्यस्यां सा सूयवसिनी बहूनि शोभनानि मिश्रितान्यमिश्रितानि वस्तूनि विद्यन्ते यस्यां सा [पृथिवीम्]=भूमिं=भूमिमन्तरिक्षं वा स्वाहा [वेदवाणीम्] हि-किल, वाणीं भूतम्=उत्पन्नं सकलं जगच्च मयूखैःज्ञानप्रकाशादिगुणैः अभितः सर्वतः दाधर्थ=धरसि। रोदसी प्रकाश-पृथिवी-लोक समूहौ व्यस्कभ्नाः=प्रतिबध्नासि विशेषतया प्रतिबध्नासि तस्मै [दशस्या]=दशस्याय दशा इवाचरति तस्मै, मनवे मन्यते येन ज्ञानेन तस्मै बोधाय वयमेते विद्वांसः=च सर्वं जगन्निवेदयामो निवेदयन्तीत्येकः॥ यो विष्णुः=प्राणः व्यापनशीलः प्राणः भेरावती इराः=प्रशस्तान्यन्नानि विद्यन्ते यस्यां सा धेनुमती प्रशस्ता बहवोधेनवो=वाचः पशवो वा सन्त्यस्यांसा सूयवसिनी बहूनि शोभनानि मिश्रितान्यमिश्रितानि वस्तूनि विद्यन्ते यस्यां सा भूमिर्वाग्वास्ति तां पृथिवीं भूमिमन्तरिक्षं वा स्वाहा=वागिन्द्रियं चक्षुरिन्द्रियं च मयूखै: रश्मिभिः अभितः सर्वतः दाधर्थ=धरति, रोदसी प्रकाश-पृथिवी-लोक-समूहौ व्यस्कभ्नाः=प्रतिबध्नाति विशेषं प्रतिबध्नाति तस्मै [दशस्या] दशस्याय दशा इवाचरति तस्मै मनवे=प्राणाय भूतं [हि] किल उत्पन्नं सर्वं कार्यं जगत् प्रकाशितुं समर्थं प्राणं सर्वे विजानीतेति द्वितीयः ।। ५ । १६ ।। [हे विष्णो=जगदीश्वर! यस्त्वं [पृथिवीम्]=भूमिं स्वाहा हि किल वाणीं, भूतम्=उत्पन्नं सकलं जगच्च.....अभितो दाधर्थ=धरसि, रोदसी व्यस्कभ्नाः=प्रतिबध्नासि। यो विष्णुः=प्राणो या--भूमिर्वाग्वास्ति तां--मयूखैः दाधर्थ=धरति, रोदसी व्यस्कभ्नाः=प्रतिबध्नाति]
पदार्थः
(इरावती) इरा:=प्रशस्तान्यन्नानि विद्यन्ते यस्यां सा । अत्र प्रशंसार्थे मतुप् । इरेत्यन्नामसु पठितम्॥ निघं० २ । ७ ॥ (धेनुमती) प्रशस्ता बहवो धेनवो=वाचः पशवो वा सन्त्यस्यां सा। अत्र प्रशंसार्थे भूम्न्यर्थं च मतुप् (हि) किल (भूतम्) उत्पन्नं सर्वं जगत् (सूयवसिनी) बहूनि शोभनानि मिश्रितान्यमिश्रितानि वस्तूनि विद्यन्ते यस्यां सा (मनवे) मन्यते येन ज्ञानेन तस्मै बोधाय (दशस्या) दशा इवाचरति तस्मै ।अत्र बाहुलकादसुन् स च कित् तत आचारे क्यच्च (वि) विशेषार्थे (अस्कभ्नाः) प्रतिबध्नासि प्रतिबध्नाति वा (रोदसी) प्रकाशपृथिवीलोकसमूहौ (विष्णो) सर्वव्यापिन् जगदीश्वर! व्यापनशील: प्राणो वा (एते) विद्वांसः (दाधर्थ) धरसि धरति वा । दाधर्त्ति० ॥ अ० ७ । ४ । ६५ । अनेनायं यङ्लुगन्तो निपातितः (पृथिवीम्) भूमिमन्तरिक्षं वा। पृथिवीत्यन्तरिक्षनामसु पठितम् ॥ निघं० १। ३॥(अभितः) सर्वतः (मयूखै:) ज्ञानप्रकाशादिगुणै: रश्मिभिर्वा। मयूखा इति रश्मिनामसु पठितम् ॥ निघं० १ ॥ ५ ॥ (स्वाहा) वेदवाणीं चक्षुरिन्द्रियं वा॥अयं मंत्रः शत० ३। ५। ३। १४ व्याख्यातः ।। १६।।
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः॥ यथा सूर्यः स्वकिरणैः स्वकान्तिभिः सर्वं भूम्यादिकं जगत् संस्तभ्याकृष्य धरति, तथैव परमेश्वरः प्राणो वा स्वसामर्थ्येन सर्वं प्राणादिकं जगत् रचित्वा, संधार्य, व्यवस्थापयति ।। ५ । १६ ।।
भावार्थ पदार्थः
व्यस्कभ्नाः=संस्तभ्याकृष्य धरति । विष्णुः परमेश्वरः प्राणो वा । मयूखैः=स्वकिरणैः स्वकान्तिभिः ।।
विशेषः
वसिष्ठः । विष्णुः=ईश्वरः सूर्यश्च ॥ स्वराडार्षी त्रिष्टुप्। धैवतः ।।
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में ईश्वर और सूर्य के गुणों का उपदेश किया है॥
पदार्थ
हे (विष्णो) सर्वव्यापी जगदीश्वर! जो आप जिस (इरावती) उत्तम अन्नयुक्त (धेनुमती) प्रशंसनीय बहुत वाणीयुक्त प्रजा वा पशुयुक्त (सूयवसिनी) बहुत मिश्रित, अमिश्रित वस्तुओं से सहित भूमि वा वाणी (पृथिवीम्) भूमि (हि) निश्चय करके (स्वाहा) वेदवाणी वा (भूतम्) उत्पन्न हुए सब जगत् को (मयूखैः) ज्ञानप्रकाशकादि गुणों से (अभितः) सब ओर से (दाधर्थ) धारण और (रोदसी) प्रकाश वा पृथिवीलोक का (व्यस्कभ्नाः) सम्यक् स्तम्भन करते हो उन (मनवे) विज्ञानयुक्त (दशस्या) दंशन अर्थात् दांतों के बीच में स्थित जिह्वा के समान आचरण करने वाले आपके लिये (एते) ये हम लोग सब जगत् को निवेदन करते हैं॥१॥१६॥ जो (विष्णो) व्यापनशील प्राण जो (इरावती) उत्तम अन्नयुक्त (धेनुमती) पशुसहित (सूयवसिनी) बहुत मिश्रित, अमिश्रित पदार्थ वाली भूमि वा वाणी है, उस (पृथिवीम्) भूमि (स्वाहा) वा इन्द्रिय को (मयूखैः) किरणों, अपने बल आदि (अभितः) सब प्रकार (दाधर्थ) धारण करता वा (रोदसी) प्रकाश-भूमि को (व्यस्कभ्नाः) स्तम्भन करता है, उस (दशस्या) दशन और दांत के समान आचरण करने वा (मनवे) विज्ञापनयुक्त सूर्य के लिये (हि) निश्चय करके (भूतम्) सब जगत् को करने के लिये ईश्वर ने दिया है, ऐसा (एते) ये सब हम लोग जानते हैं॥२॥१६॥करता है, उस (दशस्या) दशन और दांत के समान आचरण करने वा (मनवे) विज्ञापनयुक्त सूर्य के लिये (हि) निश्चय करके (भूतम्) सब जगत् को करने के लिये ईश्वर ने दिया है, ऐसा (एते) ये सब हम लोग जानते हैं॥२॥१६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे सूर्य अपनी किरणों से सब भूमि आदि जगत् को प्रकाश आकर्षण और विभाग करके धारण करता है, वैसे ही परमेश्वर और प्राण ने अपने सामर्थ्य से सब सूर्य आदि जगत् को धारण करके अच्छे प्रकार स्थापन किया है॥१६॥
विषय
इरावती-धेनुमती [ अन्न, दूध ]
पदार्थ
१. गत मन्त्र में विष्णु द्वारा संसार के निर्माण का उल्लेख है। इस संसार में मनुष्य को वसिष्ठ = वशियों में श्रेष्ठ व उत्तम निवासवाला बनना है। यह वसिष्ठ निम्नरूप में आराधन करता है—हे ( रोदसी ) = द्युलोक व पृथिवीलोक! तुम दोनों ( इरावती ) = [ इरा = अन्न—नि० २।७ ] प्रशस्त अन्नवाले होओ तथा ( हि ) = साथ ही ( धेनुमती ) = प्रशस्त दुधारू गौवोंवाले ( भूतम् ) = होओ। ( सूयवसिनी ) = उन गौ इत्यादि पशुओं के लिए उत्तम यवस - [ = चरी ] - वाले होओ। ( मनवे ) = मननशील ज्ञानी के लिए ( दशस्या ) = सब उत्तम वस्तुओं के देनेवाले होओ।
२. हे ( विष्णो ) = व्यापक प्रभो! आप ( एते ) = इन ( रोदसी ) = द्युलोक व पृथिवीलोक को ( व्यस्कभ्ना ) = विशेषरूप से अलग-अलग थामे हुए हो और ( पृथिवीम् ) = इस विशाल अन्तरिक्ष को [ नि० १।३ ] ( अभितः ) = सब ओर ( मयूखैः ) = किरणों से ( दाधर्थ ) = आप ही धारण व पोषणवाला करते हो। इस विशाल अन्तरिक्ष में किरणों के द्वारा सारे वायुमण्डल में प्राणदायी तत्त्वों का समावेश होता है, जिससे सब प्राणी जीवनीशक्ति प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ — मनुष्य इस सृष्टि में सब वस्तुओं का विचारपूर्वक प्रयोग करे। अन्न व दूध ही उसके भोजन हैं। अधिक-से-अधिक खुले में रहने का प्रयत्न करे। यह अन्तरिक्ष प्राणशक्ति से भरा हुआ है।
विषय
परमेश्वर की महान् शक्ति ।
भावार्थ
हे ( विष्णो ) सर्वव्यापक परमेश्वर ! आप ( एते ) इन दोनों रोदसी) द्यौ और पृथिवी को ( वि-अस्कम्नाः ) विशेष रूप से थाम रहे हो । और (अभितः ) सब ओर से ( मयूखै: ) जैसे किसी पदार्थ के चारों ओर खुटियां या कीलें लगा कर उनमें तान दिया जाता है उसी प्रकार आपने ( स्वाहा ) अपनी धारण शक्ति से ( पृथिवीम् ) पृथिवी को भी ( दातधर्त्य ) धारणं किया है । ये दोनो द्यौ और पृथिवी आकाश और भूमि ( इरावती ) अन्न और जल से पूर्ण, ( धेनुमती ) दुग्ध देने वाली गौत्रों और रसप्रद रश्मियों से पूर्ण, (सूयवसिनी) उत्तम अन्न चारे से पूर्ण (भूतम् ) हैं। और ( मनवे ) मननशील पुरुष को सब प्रकार के पदार्थ ( दशस्या ) प्रदान करती है । अथवा, ( दशस्या=दशस्याय) देने योग्य ( मनवे ) ज्ञान के लिये ( एते ) ये सब हम सबको बतलावें ।
दम्पति के पक्ष में- हे स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों ( इरावती धेनुमती सुयवसिनी मनवे दशस्या भूतम् ) अब गोओं और चारे आदि नाना पदार्थों से समृद्ध होकर ज्ञानवान् पुरुष के लिये दानशील रहो और हे विष्णो ! प्रजापते पुरुष । तू ( रोदसी व्यस्कनाः ) अपने पूर्वज पिताओं और अगली सन्तान इन दोनों को थाम और ( मयूखैः ) किरणों से ( स्वाहा ) स्वयं चरण पूर्वक ( अभितः पृथिवीं दाधर्थं ) सब ओर से अपने प्रजोत्पत्ति की एक मात्र पृथिवी रूप स्त्री को धारण पोषण कर । यही योजना राजा प्रजापक्ष में समझनी चाहिये। वे दोनों अन्न पशु आदि से समृद्ध हों और राजा पृथिवी को ( मयूखैः) करों द्वारा पालन करे।
मयूखै: - माङ् ऊखो मय च उणादि सूत्रम् । मिमीते मान्यहेतुर्भवति इति मयूखः । किरणः कान्तिः करो ज्वाला वा । इति दयानन्दः ॥
टिप्पणी
१६- -०'विष्णा एते'० इति काण्व ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।वसिष्ठ ऋषिः । विष्णुर्देवता । स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
फिर ईश्वर और सूर्य के गुणों का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे (विष्णो) सर्वव्यापक जगदीश्वर ! आप जो (इरावती) उत्तम अन्नों वाली (धेनुमती) उत्तम धेनु अर्थात् वाणी वा पशुओं वाली (सूयवसिनी) नाना सुन्दर मिश्रित अमिश्रित वस्तुओं वाली पृथिवी है उस (पृथिवीम्) भूमि वा आकाश को तथा (स्वाहा) वेदवाणी को (हि) निश्चय से (भूतम्) उत्पन्न हुए समस्त जगत् को (मयूखैः) ज्ञान प्रकाश आदि गुणों से (अभितः) सब ओर से (दाधर्थ) धारण करते हो। और-- (रोदसी) प्रकाशलोकों और पृथिवी लोकों को (व्यस्कभ्नाः) रोके रखते हो, उस आप के लिये तथा (दशस्याय) दशा के समान आप को (मनवे) बोध-प्राप्ति के लिए हम लोग और (एते) ये विद्वान् लोग इस सारे जगत् को अर्पण करते हैं। यह इस मन्त्र का पहला अर्थ है ॥ जो (विष्णुः) व्यापक प्राण है वह, जो (इरावती) उत्तम अन्नों वाली (धेनुमती) उत्तम धेनु अर्थात् वाणी वा पशुओं वाली (सूयवसिनी) नानासुन्दर मिश्रित-अमिश्रित वस्तुओं वाली भूमि वा वाणी है उस (पृथिवीम्) भूमि वा आकाश को तथा (स्वाहा) वाणी तथा चक्षु इन्द्रिय की (मयूखैः) ज्ञान किरणों से (अभितः) सब ओर से (दाधर्थ) धारण करता है, और (रोदसी) प्रकाश लोक और पृथिवी लोकों को (व्यस्कभ्नाः) धारण करता है, उस (दशस्याय) दशा के तुल्य (मनवे) प्राण के लिये (भूतम् ) उत्पन्न सब कार्य जगत् को [हि] निश्चयपूर्वक प्रकाशित करने में समर्थ प्राण को तुम सब जानो। यह मन्त्र का दूसरा अर्थ है ।। ५ । १६ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है।।जैसे सूर्य अपनी किरणों से एवं कान्ति से सब भूमि आदि जगत् को, रोक, खैंच कर धारण कर रहा है वैसे ही परमेश्वर वा प्राण अपने सामर्थ्य से सब प्राण आदि जगत् को रच कर धारण करके व्यवस्था में रखता है ।। ५ । १६ ।।
प्रमाणार्थ
(इरावती) यहाँ प्रशंसा अर्थ में 'मतुप्' प्रत्यय है। 'इरा' शब्द निघं० (२ । ७) में अन्न नामों में पढ़ा है। (धेनुमती) यहाँ प्रशंसा और आधिक्य अर्थ में 'मतुप्' प्रत्यय है । (दशस्या) यहाँ बहुल करके 'असुन्' प्रत्यय और वह कित् है, पश्चात् आचार अर्थ में 'क्यच्' प्रत्यय है । (दाधर्थ) यह पद "दाधर्त्ति०" (अ० ७ । ४ । ६५) इस सूत्र से यङ्लुगन्त निपातित है। (पृथिवी) यह शब्द निघं० (१ । ३) में अन्तरिक्ष-नामों में पढ़ा है । (मयूखै:) 'मयूख' शब्द निघं० (१ । ५) में रश्मि-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ५ । ३ । १४) में की गई है ।। ५ । १६ ।।
भाष्यसार
१. विष्णु (ईश्वर) के गुण--विष्णु अर्थात् ईश्वर सर्वव्यापक और जगत् का स्वामी है। वह उत्तम अन्नों से युक्त, गौ आदि पशुओं से भरपूर, उत्तम वस्तुओं वाली पृथिवी को तथा आकाशको अर्थात् उत्पन्न मात्र सकल जगत् को धारण कर रहा है। वेदवाणी को भी वही धारण करता है। द्यावा पृथिवी को उसी ने स्वसामर्थ्य और आकर्षण शक्ति से परस्पर बांधा है। विद्वान् लोग उसके बोध के लिए उसे सब जगत् को अर्पित करते हैं। २. विष्णु (सूर्य) के गुण--विष्णु अर्थात् सूर्य उक्त गुणों वाली पृथिवी को, वाणी और चक्षु इन्द्रिय को अपनी किरणों से धारण कर रहा है। द्युलोक और पृथिवी लोक को आकर्षण शक्ति से धारण करता है। यही सब जगत् को प्रकाशित करने में समर्थ है। ३. प्राण--विष्णु अर्थात् प्राण सर्वत्र व्यापक है। वह उक्त गुणों वाली भूमि को तथा वाणी को अपने सामर्थ्य से सब ओर से धारण करता है। द्युलोक और पृथिवी लोक को भी धारण करता है। यह प्राण सब कार्य जगत् को प्रकाशित करने में समर्थ है। सब जगत् का आधार प्राण है । ४. अलङ्कार-- यहाँ श्लेष अलङ्कार से विष्णु शब्द से ईश्वर, सूर्य और प्राण अर्थ का ग्रहण किया है ।। ५ । १६ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्याप्रमाणे सूर्य आपल्या किरणांनी भूमी इत्यादी सर्व जगाला प्रकाशित करून आकर्षण, विकर्षण विभागून धारण करतो. त्याप्रमाणेच परमेश्वर व प्राण यांनी आपल्या सामर्थ्याने सूर्य वगैरे सर्व जगाला धारण करून चांगल्या प्रकारे स्थित केलेले आहे.
विषय
पुढील मंत्रात ईश्वर आणि सूर्य, यांच्या गुणांचे कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - या मंत्राचे दोन अर्थ आहेत - हे (विष्रो) सर्वव्यापी परमेश्वरा, तूच या (इरावती) उत्कृष्ट अन्न-धान्याने भरलेल्या (धेनुमती) प्रशंसनीय वाणी, पुत्र व पशू आदीनी समृद्ध असलेल्या तसेच (सूर्यवासिनी) मिश्रित वा अमिश्रित अनेक वस्तू धारण करणार्या (पृथिवीम्) भूमीला धारण करतोस (तुझ्या कृपेमुळेच ही भूमी अन्न-धान्यदायिनी समृद्ध आहे व स्थित आहे) तसेच ही भूमी (स्वाहा) तुझ्या वेदवाणीमुळे (भूतम्) या उत्पन्न जगाला (मयूखैः) ज्ञानाचा प्रकाश देणारी आहे गुणांमुळे उत्तम करीत जगाला (अभित्) सर्वप्रकारे (दाधर्थ) धारण करणारी आहे. तूच या (रोदसी) सूर्यलोकाचे व पृथ्वीलोकाचे (व्यस्कभ्नाः) सम्यक प्रकारे स्तंभन व संचालन करीत आहेस. (मनवे) मान-विज्ञानयुक्त अशा तुला (दशस्या) दंतपंक्तीमधे स्थित असलेल्या जिह्वेप्रमाणे स्थिती असलेल्या तुला (दंतसमूहामूळे जिह्वा शुद्ध आणि सुंदर उच्चारण करते, त्याप्रमाणे परमेश्वराचे स्थान महत्त्वाचे आहे) (एते) आम्ही अशा सर्व जगांचा महिमा तुझ्यासमोर ठेवीत आहोत (तुझ्या सृष्टीच्या स्वरूपाची स्तुती करीत आहोत) ॥1॥^(विष्णोः) जी प्राण शक्तीने व्याप्त आहे (इरावती) उत्तम अन्नाने समृद्ध (धेनुमती) गौ आदी पशूंनी सुसंपन्न व (सूर्यवसिनी) अतीव मिश्रित वा अमिश्रित पदार्थानी भरलेली (पृथवीम्) पृथ्वी आहे, त्या भूमीला (स्वाहा) सुंदर व पुष्ट करण्यासाठी सूर्य (मयूखैः) आपल्या किरणांनी (अमितः) सर्व प्रकारे (दाधर्य) धारण करतो, आणि (रोदसी) ज्याचा प्रकाश भूमीला (व्यस्कभ्नाः) स्थिर वा पालन करतो त्या (दशस्या) दंशन वा दाताप्रमाणे आचरण करणार्या (दात अन्नपाचनाची साधनें आहेत) (मनवे) प्रकाश देणार्या व पाहण्याचे साधन असणार्या सूर्याचे दान (भूवंहि) निश्चयाने ईश्वराने सर्वांसाठी दिले आहे, (एते) आम्ही सर्व जग निश्चयाने असे मानतो. (या मंत्रात ‘सूघवयिनी’ विशेषण वाणी करिता देखील प्रयुक्त आहे. त्यावरून या मंत्राचा असाही अर्थ आहे की मिश्रित वा अमिश्रित, शुद्ध वा अशुद्ध अशा वाणीने व्याप्त या पृथ्वीवर (सकवाहा) वाक्र इंद्रियें (मयूखैः) आपल्या शक्तीने (अभितः) सर्वप्रकारे उच्चारण करतात. ईश्वराने अशा वाणीचे उच्चारण करण्यासाठी दंत आदी अवयव दिले आहेत. ॥2॥ ॥16॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे सूर्य किरणांद्वारे सर्व भूमी आदी जगाला प्रकाशित, आकर्षित आणि विभाजित करून धारण करीत आहे, त्याप्रमाणे परमेश्वराने आणि प्राणशक्तीने आपल्या सामर्थ्याने सर्व सूर्य आदी जगाला धारण करून उत्तमप्रकारे स्थापित केले आहे ॥16॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O, Omnipresent God, Thou preservest on all sides, with knowledge, this earth, rich in nice food, rich in good milch-kine, and full of elements and compounds. Thou preservest the vedic speech and the created-world. We all implore for the whole world to Him, who is All-knowing and chastiser.
Meaning
The earth full of grain, rich in cows, covered with grass and greenery so pleasing to man, this earth with all her creatures held fast all round in orbit by the waves of gravitation, and the heaven above well-sustained in position, Vishnu, Lord immanent of the world, you maintain both of these and, of course, the divine word of the Veda.
Translation
O Sun divine, you are holding the heaven and earth full of food grains and full of milch-cows, with fertile pastures for giving pleasure to man. You are maintaining the earth with your rays all around. Svaha. (1)
Notes
Iravati, full of food-grains. Suyavasini, सुययासिनी, full of green grassy plants; full of pastures.
बंगाली (1)
विषय
পুনরীশ্বরসূর্য়গুণা উপদিশ্যন্তে ॥
পরবর্ত্তী মন্ত্রে ঈশ্বর ও সূর্য্যেরগুণের উপদেশ করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (বিষ্ণো) সর্বব্যাপী জগদীশ্বর! আপনি যে (ইরাবতী) উত্তম অন্নযুক্ত (ধেনুমতী) প্রশংসনীয় বহু বাণীযুক্ত প্রজা বা পশুযুক্ত (সূয়বসিনী) বহু মিশ্রিত অমিশ্রিত বস্তু সহিত ভূমি বা বাণী (পৃথিবীম্) ভূমি (হি) নিশ্চয় করিয়া (স্বাহা) বেদবাণী বা (ভূতম্) উৎপন্ন সকল জগৎকে (ময়ূখৈঃ) জ্ঞান প্রকাশকাদি গুণ দ্বারা (অভিতঃ) সর্ব দিক দিয়া (দাধর্ত্থ) ধারণ ও (রোদসী) প্রকাশ বা পৃথিবীলোকের (ব্যস্কভ্নাঃ) সম্যক্ স্তম্ভন করেন সেই (মনবে) বিজ্ঞানযুক্ত (দশস্যা) দংশন অর্থাৎ দন্তমধ্যে স্থিত জিহ্বা সমান আচরণকারী আপনার জন্য (এতে) এই সব আমরা সর্ব স্থলে নিবেদন করি ॥ ১ ॥ যে (বিষ্ণো) ব্যাপনশীল প্রাণ যাহা (ইরাবতী) উত্তম অন্নযুক্ত (ধেনুমতী) পশুসহিত (সূয়বসিনী) বহু মিশ্রিত অমিশ্রিত পদার্থযুক্ত ভূমি বা বাণী সেই (পৃথিবীস্) ভূমি (স্বাহা) বা ইন্দ্রিয়কে (ময়ূখৈঃ) কিরণগুলি স্বীয় বলাদি (অভিতঃ) সর্ব প্রকার (দাধর্থ) ধারণ করে বা (রোদসী) প্রকাশ ভূমিকে (ব্যস্কভ্নাঃ) স্তুম্ভন করে সেই (দশস্যা) দশন এবং দন্ত সম আচরণ করে অথবা (মনবে) বিজ্ঞাপনযুক্ত সূর্য্য হেতু (ভুতং হি) নিশ্চয় করিয়া সকল জগৎ রচনা করিবার জন্য ঈশ্বর প্রদান করিয়াছেন এই রকম (এতে) এই সব আমরা জানি ॥ ১৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । যেমন সূর্য্য স্বীয় কিরণ দ্বারা সকল ভূমি ইত্যাদি জগৎকে প্রকাশ আকর্ষণ ও বিভাগ করিয়া ধারণ করে সেইরূপ পরমেশ্বর ও
প্রাণ স্বীয় সামর্থ্য বলে সকল সূর্য্যাদি জগৎকে ধারণ করিয়া ভাল মত স্থাপন করিয়াছেন ॥ ১৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ইরা॑বতী ধেনু॒মতী॒ হি ভূ॒তꣳ সূ॑য়ব॒সিনী॒ মন॑বে দশ॒স্যা । ব্য॑স্কভ্না॒ রোদ॑সী বিষ্ণবে॒তে দা॒ধর্ত্থ॑ পৃথি॒বীম॒ভিতো॑ ম॒য়ূখৈঃ॒ স্বাহা॑ ॥ ১৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইরাবতীত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । স্বরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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