यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 42
ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भूरिक् अत्यष्टि,
स्वरः - धैवतः
2
अत्य॒न्याँ२ऽअगां॒ नान्याँ२ऽउपा॑गाम॒र्वाक् त्वा॒ परे॒भ्योऽवि॑दं प॒रोऽव॑रेभ्यः। तं त्वा॑ जुषामहे देव वनस्पते देवय॒ज्यायै॑ दे॒वास्त्वा॑ देवय॒ज्यायै॑ जुषन्तां॒ विष्ण॑वे त्वा। ओष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳ हिꣳसीः॥४२॥
स्वर सहित पद पाठअति॑। अ॒न्यान्। अगा॑म्। उप॑। अ॒गा॒म्। अ॒र्वाक्। त्वा॒। परे॑भ्यः। अवि॑दम्। प॒रः॒। अव॑रेभ्यः। तम्। त्वा॒। जु॒षा॒म॒हे॒। दे॒व॒। व॒न॒स्प॒ते॒। दे॒व॒य॒ज्याया॒ इति॑ देवऽय॒ज्यायै॑। दे॒वाः। त्वा॒। दे॒व॒य॒ज्याया इति देवऽय॒ज्यायै॑। जु॒ष॒न्ता॒म्। विष्ण॑वे। त्वा॒। ओष॑धे। त्रा॑यस्व। स्वधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒ ॥४२॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्यन्याँ अगान्नान्याँ उपागामर्वाक्त्वा परेभ्योविदम्परो वरेभ्यः । तन्त्वा जुषामहे देव वनस्पतेदेवयज्यायै देवास्त्वा देवयज्यायै जुषन्ताँ विष्णवे त्वा । ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनँ हिँसीः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अति। अन्यान्। अगाम्। उप। अगाम्। अर्वाक्। त्वा। परेभ्यः। अविदम्। परः। अवरेभ्यः। तम्। त्वा। जुषामहे। देव। वनस्पते। देवयज्याया इति देवऽयज्यायै। देवाः। त्वा। देवयज्याया इति देवऽयज्यायै। जुषन्ताम्। विष्णवे। त्वा। ओषधे। त्रायस्व। स्वधिते। मा। एनम्। हिꣳसीः॥४२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
मनुष्यैः पूर्वोक्तेभ्यो विरुद्धा मनुष्या न सेवनीया इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे वनस्पते देव विद्वन्! यथा त्वमन्यानतीत्यान्यानुपागच्छसि, तथाहमन्यान् नागामन्यानुपागाम्। यस्त्वं परेभ्यः परोऽस्यवरेभ्योऽर्वाक् च, तं त्वामविदम्, यथा देवा देवयज्यायै त्वा त्वां जुषन्ते, तथा त्वा त्वां वयं जुषामहे। यथा वयं देवयज्यायै त्वां जुषामहे, तथैते सर्वे तं त्वां जुषन्ताम्। यथौषधिगणो विष्णवे संभूय सर्वान् त्रायते, तथा हे ओषधे! सर्वरोगनिवारक स्वधिते दुःखविच्छेदक विद्वन्! त्वा त्वां विष्णवे यज्ञाय वयं जुषामहे। हे देव विद्वन्! यथाऽहमिमं यज्ञं न हिंसामि तथैनं त्वामपि मा हिंसीः॥४२॥
पदार्थः
(अति) अत्यन्ते (अन्यान्) पूर्वोक्तभिन्नानविदुषः (अगाम्) प्राप्नुयाम् (न) निषेधे (अन्यान्) अविदुषो विरुद्धान् विदुषः (उप) सामीप्ये (अगाम्) प्राप्नुयाम् (अर्वाक्) अवरः (त्वा) त्वम् (परेभ्यः) उत्तमेभ्यः (अविदम्) लभेय (परः) उत्कृष्टः (अवरेभ्यः) अनुत्कृष्टेभ्यः (तम्) अनु (त्वा) त्वाम् (जुषामहे) प्रीणीयाम (देव) कमनीय (वनस्पते) वनानां रक्षक (देवयज्यायै) यथा दिव्यानां संगतये तथा (देवाः) विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (देवयज्यायै) यथोत्तमगुणदानाय तथा (जुषन्ताम्) सेवन्ताम् (विष्णवे) यज्ञाय (त्वा) त्वाम् (औषधे) यथा सोमद्योषधिगणस्त्रायते तथा (त्रायस्व) रक्ष (स्वधिते) दुःखविच्छेदक (मा) निषेधे (एनम्) ओषधिगणं परं पुरुषं वा (हिंसीः) विनाशयेः। अयं मन्त्रः (शत॰३। ६। ४। ५-१०) व्याख्यातः॥४२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्नीचव्यवहारन् नीचपुरुषांश्च त्यक्त्वोत्तमा व्यवहारा उत्तमाः पुरुषाश्च प्रतिदिनमेषितव्याः। उत्तमेभ्य उत्तमशिक्षाऽवरेभ्योऽवरा च ग्राह्या यज्ञो यज्ञसामग्री च कदाचिन्न हिंसनीया, सर्वैः परस्परं सुखेन भवितव्यम्॥४२॥
विषयः
मनुष्यैः पूर्वोक्ताभ्यां विरुद्धा मनुष्या न सेवनीया इत्युपदिश्यते।।
सपदार्थान्वयः
हे वनस्पते! वनानां रक्षक! देव! कमनीय! विद्वन्! यथा त्वमन्यान् पूर्वोक्तभिन्नानविदुषः अतीत्यान्यान् अविदुषो विरुद्धान्=विदुषः उपागच्छसितथाहमन्यान् मागां न प्राप्नुयाम् अन्यान्=अविदुषो विरुद्धान्=विदुषः उपागां समीपं प्राप्नुयाम् । यस्त्वं परेभ्यः उत्तमेभ्य: पर: उत्कृष्टः अस्यवरेभ्यः अनुत्कृष्टेभ्यः अर्वाक् अवरः च तं त्वामविदं लभेय। यथा देवा विद्वांसः देवयज्यायै यथा दिव्यानां संगतये यथा त्वा=त्वां जुषन्ते, तथा त्वा=त्वां वयं जुषामहे प्रीणीयाम्। यथा वयंदेवयज्यायैयथोत्तमगुणदानाय तथा त्वां जुषामहे प्रीणीयाम्तथैते सर्वे तं त्वां जुषन्ताम् सेवन्ताम्। यथौषधिगणो विष्णवे यज्ञाय सम्भूय सर्वान् त्रायते, तथा हे औषधे=सर्वरोगनिवारक! यथा सोमाद्योषधिगणस्त्रायते तथा स्वधिते=दुःख विच्छेदक विद्वन्! त्वा=त्वां विष्णवे=यज्ञाय वयं=जुषामहे प्रीणीयाम्। हे देव! कमनीय! विद्वन् ! यथाऽहमिमं यज्ञं न हिंसामि तथैनं औषधिगणं परं पुरुषं वा त्वमपि मान हिंसीः विनाशयेः ॥ ५ । ४२॥ [हे... विद्वन् ! यथा त्वमन्यानतीत्यान्यानुपागच्छसितथाऽहमन्यानागामन्यानुपागाम्]
पदार्थः
(अति) अत्यन्ते (अन्यान्) पूर्वोक्तभिन्नानविदुषः (अगाम्) प्राप्नुयाम् (न) निषेधे(अन्यान्) अविदुषो विद्वान्=विदुषः (उप) सामीप्ये (अगाम्) प्राप्नुयाम् (अर्वाक्) अवरः (त्वा) त्वम् (परेभ्यः) उत्तमेभ्यः (अविदम्) लभेय (परः) उत्कृष्टः (अवरेभ्यः) अनुत्कृष्टेभ्यः (तम्) अनु (त्वा) त्वाम् (जुषामहे) प्रीणीयाम (देव) कमनीय (वनस्पते) वनानां रक्षक (देवयज्यायै) यथा दिव्यानां संगतये तथा (देवाः) विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (देवयज्यायै) यथोत्तमगुणदानाय तथा (जुषन्ताम्) सेवन्ताम् (विष्णवे) यज्ञाय (त्वा) त्वाम् (ओषधे) यथा सोमाद्योषधिगणस्त्रायते तथा (त्रायस्व) रक्ष (स्वधिते) दुःखविच्छेदक (मा) निषेधे (एनम्) ओषधिगणं परं पुरुषं वा (हिंसी:) विनाशयेः। अयं मन्त्रः शत० ३ । ६ । ४ । ५ - १० व्याख्यातः ।। ४२ ।। -
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः।।मनुष्यैर्नीचव्यवहारान् नीचपुरुषाँश्च त्यक्त्वोत्तमा व्यवहारा उत्तमा पुरुषाश्च प्रतिदिनमेषितव्याः। [यस्त्वं परेभ्यः परोऽस्यवरेभ्यो ऽर्वाक् च, तं त्वामविदम्] उत्तमेभ्य उत्तमशिक्षाऽवरेभ्योऽवरा च ग्राह्या । [हे देव ! विद्वन् ! यथाऽहमिमं यज्ञं न हिंसामि तथैनं त्वमपि मा हिंसीः] यज्ञो यज्ञसामग्री च कदाचिन्न हिंसनीया, सर्वैः परस्परं सुखेन भवितव्यम् ।। ५ । ४२ ।।
विशेषः
अगस्त्यः। अग्निः=विद्वान्। स्वराड्ब्राह्मी त्रिष्टुप्। धैवतः॥
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों को उक्त व्यवहारों से विरुद्ध मनुष्य न सेवने चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (वनस्पते) सब बूटियों के रखने वाले (देव) विद्वान् जन! जैसे तू (अन्यान्) विद्वानों के विरोधी मूर्ख जनों को छोड़ के (अन्यान्) मूर्खों के विरोधी विद्वानों के समीप जाता है, वैसे मैं भी विद्वानों के विरोधियों को छोड़ (उप) समीप (अगाम्) जाऊं। जो तू (परेभ्यः) उत्तमों से (परः) उत्तम और (अवरेभ्यः) छोटों से (अर्वाक्) छोटे हों (तम्) उन्हें मैं (अविदम्) पाऊं। जैसे (देवाः) विद्वान् लोग (देवयज्यायै) उत्तम गुण देने के लिये (त्वा) तुझ को चाहते हैं, वैसे हम लोग भी (त्वा) तुझे (जुषामहे) चाहें और हम लोग (देवयज्यायै) अच्छे-अच्छे गुणों का संग होने के लिये (त्वा) तुझे चाहते हैं, वैसे और भी ये लोग चाहें। जैसे ओषधियों का समूह (विष्णवे) यज्ञ के लिये सिद्ध होकर सब की रक्षा करता है, वैसे हे रोगों को दूर करने और (स्वधिते) दुःखों का विनाश करने वाले विद्वान् जन! हम लोग (त्वा) तुझे यज्ञ के लिये चाहते हैं। श्रेष्ठ विद्वान् जन! जैसे मैं इस यज्ञ का विनाश करना नहीं चाहता, वैसे तू भी (एनम्) इस यज्ञ को (मा) मत (हिंसीः) बिगाड़॥४२॥
भावार्थ
यहां वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि नीच व्यवहार और नीच पुरुषों को छोड़ के अच्छे-अच्छे व्यवहार तथा उत्तम विद्वानों को नित्य चाहें और उत्तमों से उत्तम तथा न्यूनों से न्यून शिक्षा का ग्रहण करें। यज्ञ और यज्ञ के पदार्थों का तिरस्कार कभी न करें तथा सब को चाहिये कि एक-दूसरे के मेल से सुखी हों॥४२॥
विषय
आगे बढ़ जाना
पदार्थ
१. गत मन्त्र में तीन व्रतों का संकेत है। उन व्रतों का पालन ही ‘तीन पदों का विक्रमण’ हैं। इन तीन कदमों का रखनेवाला मैं ( अन्यान् अति अगाम् ) = औरों को लाँघ जाता हूँ। अव्रती पुरुष को व्रती सदा लाँघ जाता है। इसका जीवन उत्कृष्ट होता है। मैं ( अन्यान् ) = [ अविदुषो विरुद्धान्—द० ] व्रत-पराङ्मुख मूर्खजनों को ( न उपागाम् ) = न प्राप्त होऊँ। ( परेभ्यः ) = [ उत्तमेभ्यः ] श्रेष्ठ पुरुषों से ( त्वा ) = तुझे ( अर्वाक् ) = अन्दर ही ( अविदम् ) = मैंने जाना है। श्रेष्ठ पुरुषों से मुझे यह ज्ञान हुआ है कि आपका दर्शन तो अन्दर ही होना है। ( अवरेभ्यः ) = इन अवर आचार्यों से भी मैंने यही जाना है कि आप ( परः ) = पर हैं [ बुद्धेरात्मा महान् परः—गीता ] आप वाणी व मन का विषय नहीं हैं—आप वाङ्मनसातीत हैं। अथवा ( त्वा ) = आपको मैंने ( अवरेभ्यः अर्वाक् ) = समीपों से भी समीप और ( परेभ्यः परः ) [ इति ] = दूर से भी दूर ( अविदम् ) = जाना है।
२. ( ते त्वा ) = उस आपको हे ( देव ) = दिव्य गुणों के पुञ्ज! ( वनस्पते ) = भक्तों के रक्षक प्रभो! ( जुषामहे ) = हम प्रीतिपूर्वक सेवन करते हैं। हम प्रेम से आपकी उपासना करते हैं। ( देवयज्यायै ) = [ देवानां सङ्गतये—द० ] दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए हम उपासना करते हैं। ( देवाः ) = सब विद्वान् लोग ( देवयज्यायै ) = दिव्य गुणों की सङ्गति के लिए ही ( त्वा जुषन्ताम् ) = तेरी उपासना करें।
३. ( विष्णवे त्वा ) = हे प्रभो! मैं आपको इसलिए उपासित करता हूँ कि आपकी उपासना से मेरा शरीर स्वस्थ होता है, मन निर्मल तथा बुद्धि दीप्त होती है। इन्हीं तीन कदमों को रखकर ही मैं ‘त्रिविक्रम विष्णु’ बनता हूँ।
३. ( ओषधे ) = हे दोषों का दहन करनेवाले प्रभो! ( त्रायस्व ) = आप मेरा त्राण कीजिए। ( स्वधिते ) = [ स्व = आत्मीय ] हे अपनों का धारण करनेवाले प्रभो! ( एनम् ) = इस अपने भक्त को (मा ) = मत ( हिंसीः ) = हिंसित होने दीजिए।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु हमारे अन्दर ही हैं। उनकी उपासना से [ क ] दिव्य गुणों की प्राप्ति होती है। [ ख ] व्यापक उन्नति हो पाती है। [ ग ] आसुर आक्रमणों से हमारी रक्षा होती है और [ घ ] हम प्रभु के आत्मीय बन जाते हैं।
विषय
गुरु शिष्य और राजा और प्रजा के परस्पर व्रत पालन की प्रतिज्ञा ।
भावार्थ
( अन्यान् अति अगाम् ) तेरे से भिन्न और शत्रु राजाओं को मैं अति क्रमण कर दूं और ( अन्यान् ) अन्य नाना राजाओं के समीप भी मैं ( न उत अगास् ) न जाऊंगा । ( परेभ्यः) परे के, अर्थात दूर के राजाओं की अपेक्षा ( त्वा ) तुझे ( अर्वाक् ) समीप और ( अवरेभ्यः ) तेरी अपेक्षा अवर, निकृष्ट जनों की अपेक्षा तुझे ( परः ) उत्कृष्ट जानकर ही (त्वा अविदम् ) तेरे समीप प्राप्त हुआ हूं । हे ( देव ) देव राजन् ! हे (वनस्पते ) महावृक्ष के समान छायाप्रद आश्रयवृक्ष ! शरण्य ! ( देवयज्यायै ) देवों, अन्य विद्वानों का परस्पर संगति लाभ करने के लिये ( तम् त्वा जुषामहे ) उस तेरी ही हम सेवा करते हैं । ( देवाः ) और देव, राजा और विद्वान् लोग मी ( देवयज्यायै ) देव विद्वानों की परस्पर संगति लाभ के लिये ही ( त्वा जुषन्ताम् ) तुझे प्राप्त हों। हम लोग तो ( विष्णवे ) वह यज्ञरूप राष्ट्रपालन जिसमें सब प्रजाऐं प्रविष्ट हैं उस पद के लिये (त्वा ) तुझे नियुक्त करते हैं। हे ( ओषधे) दुष्टों को दण्ड प्रदान करने वाले राजन् ! तू ( त्रायस्व ) हमारी रक्षा कर । हे ( स्वधिते ) अपने ही बल से समस्त राष्ट्र की रक्षा करनेहारे हे शस्त्रवन् ! तू ( मा एनं हिंसी: ) इस राष्ट्र की या इस पुरुष की हत्या मत कर ॥
गुरु के प्रति शिष्य – हे आचार्य ! मैं ( अन्यान् अति अगाम् ) अन्य अविद्वान् या अन्य ज्ञानी लोगों को छोड़कर तेरे पास आया हूं और ( अन्यान् न उप अगाम् ) दूसरों के पास नहीं गया हूं। बहुत उत्कृष्टों से कम और अन्य ज्ञानियों की अपेक्षा श्रेष्ठ जान कर तेरी शरण आता हूं । 'देवयज्य' अर्थात् ईश्वरोपासना के लिये हम तेरी शरण हैं और विद्वान् भी इसी निमित्त तेरे पास आते हैं ॥
टिप्पणी
४२ – ० परेभ्यः परोवरीः । इति काण्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिः ऋषिः।वनस्पतिः कुशतरुणं परशुश्च अग्निर्वा देवता । स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् धैवतः ॥
विषय
मनुष्य पूर्वोक्त विद्वान् और शूरवीरों के अतिरिक्त लोगों की सेवा न करें ॥
भाषार्थ
हे (वनस्पते) वनों के रक्षक, (देव) कामना करने के योग्य विद्वान्! जैसे आप (अन्यान्) पूर्वोक्त विद्वानों से भिन्न अर्थात् मूर्खों को छोड़ कर (अन्यान्) मूर्खों से अन्य अर्थात् विद्वानों के पास जाते हो, वैसे मैं (अन्यान्) मूर्खों के पास (न अगाम्) न जाऊँ तथा (अन्यान्) मूर्खों से अन्य अर्थात् विद्वानों के (उप-अगाम्) पास जाऊँ। और-- जो आप (परेभ्यः) बड़ों से (परः) बड़े हो और (अवरेभ्यः) निकृष्टों से (अर्वाक्) दूर हो, (तम्) उन आपको (अविदम्) मैं प्राप्त करूँ। और-- जैसे (देवा:) विद्वान् लोग (देवयज्यायै) दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये (त्वा) आपकी सेवा और आप से प्रेम करते हैं वैसे (त्वा) आपकी हम लोग (जुषामहे) सेवा करें। और-- जैसे हम लोग ( देवयज्यायै) उत्तम गुणों को देने के लिये आपकी (जुषामहे) सेवा करते हैं वैसे ये सब लोग आपकी (जुषन्ताम्) सेवा करें। जैसे औषधियाँ मिल कर सबकी रक्षा करती हैं वैसे हे (ओषधे) सोम आदि औषधियों के समान सबकी रक्षा एवं सब रोगों का निवारण करने वाले (स्वधिते) दुःख-विनाशक विद्वान्! (त्वा) आपकी (विष्णवे) संगति के लिए हम लोग (जुषामहे) प्रीति और सेवा करें। हे देव कामना करने योग्य विद्वान्! जैसे मैं इस यज्ञ का विनाश नहीं करता वैसे (एनम्) इस औषधिगण कावश्रेष्ठ पुरुष का तू भी (मा हिंसी:) विनाश मत कर ॥ ५ । ४२ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलंकार है। सब मनुष्य नीच व्यवहारों और नीच पुरुषों को छोड़ कर उत्तम व्यवहारों और उत्तम पुरुषों की प्रतिदिन कामना करें।बड़ों से बड़ी शिक्षा और छोटों से छोटी शिक्षा ग्रहण करें।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ६।४ । ५-१०) में की गई है ॥ ५ । ४२ ।।
भाष्यसार
१. मनुष्य पूर्वोक्त विद्वानों को छोड़कर अन्यों की सेवा न करें--विद्वान् पुरुष वनों के रक्षक तथा कामना करने के योग्य होते हैं। वे मूर्खों को छोड़कर विद्वान् पुरुषों का ही संग करते हैं। वे उत्तम पुरुषों से ऊँची शिक्षा तथा छोटे पुरुषों से छोटी शिक्षा ग्रहण करते हैं, निकृष्ट जनों से दूर रहते हैं। वे विद्वानों के संग के लिये उनसे प्रेम करते हैं तथा उनकी सेवा भी करते हैं। जैसे वन में उत्पन्न होने वाली औषधियाँ यज्ञ के लिये मिलकर अर्थात् यज्ञसामग्री बन कर सब की रक्षा करती हैं इसी प्रकार विद्वान् भी सब रोगों की निवारक औषधि हैं जो दुःखों का छेदन करती हैं। उक्त औषधि-रूप विद्वानों को यज्ञ के लिये प्रसन्न किया जाता है, उनकी सेवा की जाती है। विद्वान् पुरुष यज्ञ का कभी हिंसन नहीं करते, यज्ञ की सामग्री रूप औषधियों का तथा श्रेष्ठ पुरुषों का हिंसन नहीं करते, अपितु उनकी रक्षा करते हैं । सब मनुष्य विद्वानों के समान मूर्खों के संग का परित्याग और विद्वानों के संग का ग्रहण करें। उत्तम जनों से उत्तम शिक्षा तथा छोटे पुरुषों से छोटी शिक्षा प्राप्त करें। दुष्ट-जनों से दूर रहें। विद्वानों का संग तथा उत्तम गुणों की प्राप्ति के लिये विद्वानों की सेवा कर उन्हें प्रसन्न रखें। औषधियों के समान सबके रक्षक बनें, दुःखों का उच्छेद करें। यज्ञ और यज्ञ-सामग्री का कभी विनाश न करें। श्रेष्ठ पुरुषों की सदा रक्षा करें। परस्पर सुख से रहें।। २. अलंकार--मन्त्र में उपमावाचक ‘इव’ आदि शब्द लुप्त हैं , इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलंकार है। उपमा यह है कि विद्वानों के समान सब पुरुष मूर्खों के संग का परित्याग आदि कर्मों का अनुष्ठान करें ॥ ५ । ४२ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी नीच व्यवहार व नीच माणसांची संगत सोडावी. चांगला व्यवहार करावा. विद्वानांची संगत धरण्याची इच्छा करावी. ज्यांच्याजवळ जे जे उत्तम व न्यून शिक्षण घेण्याजोगे असेल ते ते ग्रहण करावे. यज्ञ व यज्ञीय पदार्थांचा कधीच तिरस्कार करू नये. परस्पर मिळून मिसळून राहावे व सुखी व्हावे.
विषय
वरील मंत्रात उल्लेखिलेल्या व्रतादी नियमांच्या विपरीत आचरण करणारे जे मनुष्य असतील, मनुष्यांनी त्यांचा संग करू नये, हा विषय पुढील मंत्रात सांगितला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (वनस्पते) औषधोपयोगी जडीबुटींचा संग्रह करणार्या अथवा वनांचा रक्षक हे माणसा (देव) (रोगनिदान, उपचारादीमधे निष्णात असलेल्या वैद्यराज) अथवा हे ज्ञानी विद्वान मनुष्या, ज्याप्रमाणे तू (अन्यानः) विद्वज्जनांचा विरोध करणार्या अज्ञानी माणसांपासून दूर राहून (अन्यान्) अज्ञानीजनांचा विरोध करणार्या विद्वज्जनांजवळ जातोस, त्याप्रमाणे मी देखील विद्वज्जनांचा विरोध करणार्या लोकांपासून दूर राहून तुमचा (उप) जवळ (अगाम्) जातो किंवा येतो. तू (परेभ्यः) उत्तमांहून (परः) उत्तम आहेस आणि (अवरेभ्यः) लहानाहून (अर्वाक्) लहान मनुष्यासाठी देखील प्राप्तव्य व इष्ट आहेस (तं) अशा तुला मी (अविदम्) प्राप्त करावे (लहान-थोर सर्वांना तुझ्याजवळील औषधी-वनस्पती उपयोगी आहेत. मीही त्या वनस्पतींचा उपयोग घ्यावा) (देवाः) विद्वान वा शहाणी माणसें (देवयज्यायै) उत्तम प्रभाव व गुण येण्यासाठी (रोगापासून मुक्तीसाठी) (त्वा) तुझी कामना करतात, त्याप्रमाणे आम्हीदेखील (त्वा) तुला (जुषामहे) इच्छितो, (देवयज्यायै) सद्गुणांच्या प्राप्तीसाठी आम्ही (त्वा) तुला प्रिय मानतो, त्याप्रमाणे अन्य लोकांनीही तुझी कामना करावी. ज्याप्रमाणे तुझ्याजवळील औषधी संग्रहाचा (विष्णवे) यज्ञासाठी उपयोग केल्यानंतर त्या औषधी-वनस्पती सर्वांसाठी रक्षक (रोगनिवारक) होतात. यामुळे (स्वधिते) दुःखांचा नाश करू इच्छिवणारे आम्ही (याज्ञिक वा रोगी जन) (त्वा) तुला यज्ञाकरिता आवश्यक मानतो. ज्याप्रमाणे कोणीही श्रेष्ठ विद्वान अशा उपकारक यज्ञाचा नाश करण्यास तत्पर होणार नाही, आणि मी देखील कदापी यज्ञाचा व औषधींचा नाश करणार नाही, त्याप्रमाणे तू देखील (एनं) या यज्ञाचा व औषधी-संग्रहाचा कदापी (मा) नाश करून नकोस वा (हिंसी) यज्ञाला विकृत अथवा खंडित होऊ देऊ नकोस. ॥42॥
भावार्थ
भावार्थ - येथे वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्यांसाठी हे हितकर आहे की त्यांनी नीच व्यवहार वा दुष्कर्म करणे सोडावे, नीच माणसांचा संग त्यागावा आणि सदैव उत्तम कर्म करीत उत्तम विद्वानाच्या संगतीत राहावे. त्यांनी उत्तमाहून उत्तम ज्ञान आणि कनिष्ठाहून किंचित अल्पसे ज्ञानदेखील अवश्य ग्रहण करावे. यज्ञाचा अवमान अथवा यज्ञीय पदार्थ, वनस्पती आदींचा तिरस्कार कदापी करू नयें अशा प्रकारे सर्वांनी सर्वांशी मिळून-मिसळून सुखी व्हावे. ॥42॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned botanist, just as thou shun nest the foolish and seekest the company of the wise, so may I avoid the company of the enemies of the wise, and go to the wise. May I approach thee more learned among the learned but the humblest among the humble. Just as the learned long for thee for the acquisition of good qualities, so do I. Just as medicinal herbs, rendered fit for the yajna protect all, so do we for sacrifice hail thee, the remover of diseases, and the assuager of affliction. O learned person, just as I do not want to spoil this yajna, so shouldst thou not.
Meaning
Agni/Master of knowledge, I won’t go to the fools. I would go to the others, to the wise, yes, to the wise only. You are higher than the highest (in knowledge), and closer than the closest (in love). I would be with you, know you, attain to you. Lord/Master of herbs, brilliant and generous, we love you and adore you for the sake of gifts of knowledge and life’s inspiration. May all the devas, noble ones, love you and adore you for the same gifts of knowledge and blessings for the sake of Vishnu, lord of yajna Life-giving herbs, power of the lord, save this man, save this yajna, hurt not, kill not.
Translation
O adorable Lord, leaving aside others I have come to you. I did not go to others. I have found you nearer than the distant ones and farther than the nearer ones. O Lord of vegetation, we approach you for the sacrifice to the bounties of Nature. May the bounties of Nature accept you for the sacrifice. (1) I dedicate you to the sacrifice. (2) May the medicinal herb save this man. (3) May the surgical knife not injure him. (4)
Notes
Atyanysn, अतीत्य अन्यान्, leaving aside, others, Arval, near. Para, distant. Devayajyayai, for sacrifice to the bounties of Nature. Svadhite, 2 surgical knife; also, О razor!
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যৈঃ পূর্বোক্তেভ্যো বিরুদ্ধা মনুষ্যা ন সেবনীয়া ইত্যুপদিশ্যতে ॥
মনুষ্যদিগকে উক্ত ব্যবহার হইতে বিরুদ্ধ মনুষ্যকে সেবন করা উচিত নহে, এই উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (বনস্পতে) বনরক্ষাকারী (দেব) বিদ্বান্গণ! যেমন তোমরা (অন্যান্) বিদ্বান্দের বিরোধী মূর্খ ব্যাক্তি দিগকে ত্যাগ করিয়া (অন্যান্) মূর্খদের বিরোধী বিদ্বান্দের সমীপে গমন কর সেইরূপ আমিও বিদ্বান্দের বিরোধী ব্যক্তিগণকে ত্যাগ করিয়া (উপ) সমীপ (অগাম) যাই । তুমি (পরভ্যৈঃ) উত্তম হইতে (পরঃ) উত্তম এবং (অবরেভ্যঃ) অবর হইতে (অর্বাক্) অবর (তম্) (ত্বাম্) তাহাদিগকে আমি (অবিদম্) প্রাপ্ত হই । যেমন (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (দেবয়জ্যায়ৈ) উত্তম গুণ প্রদান করিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে কামনা করে সেইরূপ আমরাও (ত্বা) তোমাকে (জুষামহে) কামনা করি এবং আমরা (দেবয়জ্যায়ৈ) ভাল-ভাল গুণের সংগতির জন্য (ত্বা) তোমাকে কামনা করি সেইরূপ ইহারা আরও কামনা করুক । যেমন ওষধিসমূহ (বিষ্ণবে) যজ্ঞ হেতু সিদ্ধ হইয়া সকলের রক্ষা করে সেইরূপ হে রোগ বিনাশক এবং (স্বধিতে) দুঃখনাশক বিদ্বান্গণ! আমরা (ত্বা) তোমাকে যজ্ঞের জন্য কামনা করি । শ্রেষ্ঠ বিদ্বান্গণ! যেমন আমি এই যজ্ঞের বিনাশ করিতে ইচ্ছুক নই সেইরূপ তুমিও (এনম্) এই যজ্ঞকে (মা) না (হিংসীঃ) নষ্ট করিও ॥ ৪২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এখানে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, নীচ ব্যবহার ও নীচ পুরুষদিগকে ত্যাগ করিয়া ভাল-ভাল ব্যবহার তথা উত্তম বিদ্বান্দের নিত্য কামনা করিবে এবং উত্তম হইতে উত্তম তথা নূ্যন হইতে ন্যুন শিক্ষা গ্রহণ করিবে । যজ্ঞ ও যজ্ঞের পদার্থের তিরস্কার কখনও করিবে না তথা সকলের উচিত একে অপরের সহিত সুখে কালযাপন করুক ॥ ৪২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অত্য॒ন্যাঁ২ऽঅগাং॒ নান্যাঁ২ऽউপা॑গাম॒র্বাক্ ত্বা॒ পরে॒ভ্যোऽবি॑দং প॒রোऽব॑রেভ্যঃ । তং ত্বা॑ জুষামহে দেব বনস্পতে দেবয়॒জ্যায়ৈ॑ দে॒বাস্ত্বা॑ দেবয়॒জ্যায়ৈ॑ জুষন্তাং॒ বিষ্ণ॑বে ত্বা । ওষ॑ধে॒ ত্রায়॑স্ব॒ স্বধি॑তে॒ মৈন॑ꣳ হিꣳসীঃ ॥ ৪২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অত্যন্যানিত্যস্যাগস্ত্য ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । স্বরাড্ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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