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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 27
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - ब्राह्मी जगती, स्वरः - निषादः
    2

    उद्दिव॑ꣳ स्तभा॒नान्तरि॑क्षं पृण॒ दृꣳह॑स्व पृथि॒व्यां द्यु॑ता॒नस्त्वा॑ मारु॒तो मि॑नोतु मि॒त्रावरु॑णौ ध्रु॒वेण॒ धर्म॑णा। ब्र॒ह्म॒वनि॑ क्षत्र॒वनि॑ रायस्पोष॒वनि॒ पर्यू॑हामि। ब्रह्म॑ दृꣳह क्ष॒त्रं दृ॒ꣳहायु॑र्दृꣳह प्र॒जां दृ॑ꣳह॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। दिव॑म्। स्त॒भा॒न॒। आ। अ॒न्तरि॑क्षम्। पृ॒ण॒। दृꣳह॑स्व। पृ॒थि॒व्याम्। द्यु॒ता॒नः। त्वा॒। मा॒रु॒तः। मि॒नो॒तु॒। मि॒त्राव॑रुणौ। ध्रु॒वेण॑। धर्म॑णा। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनीति॑ रायस्पोष॒ऽवनि॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। ब्रह्म॑। दृ॒ꣳह॒। क्ष॒त्रम्। दृ॒ꣳह॒। आयुः॑। दृ॒ꣳह॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। दृ॒ꣳह॒॑ ॥२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्दिवँ स्तभानान्तरिक्षम्पृण दृँहस्व पृथिव्यान्द्युतानास्त्वा मारुतो मिनोतु मित्रावरुणौ धु्रवेण धर्मणा । ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि त्वा रायस्पोषवनि पर्यूहामि । ब्रह्म दृँह क्षत्रन्दृँहायुर्दृँह प्रजान्दृँह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। दिवम्। स्तभान। आ। अन्तरिक्षम्। पृण। दृꣳहस्व। पृथिव्याम्। द्युतानः। त्वा। मारुतः। मिनोतु। मित्रावरुणौ। ध्रुवेण। धर्मणा। ब्रह्मवनीति ब्रह्मऽवनि। त्वा। क्षत्रवनीति क्षत्रऽवनि। रायस्पोषवनीति रायस्पोषऽवनि। परि। ऊहामि। ब्रह्म। दृꣳह। क्षत्रम्। दृꣳह। आयुः। दृꣳह। प्रजामिति प्रऽजाम्। दृꣳह॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    सेवितः सभाध्यक्षोऽनुष्ठितो यज्ञश्च किं करोतीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे परमविद्वन्! यथा त्वा त्वां मारुतो ध्रुवेण धर्मणा मिनोति मित्रावरुणौ मिनुतस्तथा त्वं कृपयाऽस्मदर्थं दिवमुत्तभानान्तरिक्षं पृण, पृथिव्यां द्युतानः सन् सुखानि दृंह, ब्रह्म दृंह, क्षत्रं दृंहायुर्दृंह, प्रजां दृंह, ब्रह्मवनिं क्षत्रवनिं रायस्पोषवनिं त्वामहं पर्यूहामि, तथा त्वां सर्वे मनुष्याः पर्यूहन्तु॥२७॥

    पदार्थः

    (उत्) उत्कृष्टे (दिवम्) प्रकाशम् (स्तभान) (अन्तरिक्षम्) आकाशं तत्रस्थप्राणिवर्गं च। अत्र तात्स्थ्योपाधिना प्राणिनामपि ग्रहणम्। (पृण) अत्रान्तर्भाविणिजर्थः (दृंहस्व) वर्धय (पृथिव्याम्) भूमौ (द्युतानः) यथा दिवं सद्विद्यागुणं विस्तारयति तथा (त्वा) त्वाम् (मारुतः) वायुः (मिनोतु) प्रक्षिपति (मित्रावरुणौ) यथा प्राणापानौ तथा। (ध्रुवेण) निश्चलेन (धर्मणा) धर्मेण (ब्रह्मवनि) यथा ब्रह्मविद्यासम्भाजितारं तथा। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग्॰ [अष्टा॰७.१.३९] इति विभक्तेर्लुक्। (त्वा) त्वाम् (क्षत्रवनि) क्षत्रस्य राज्यस्य संसेवयितारं तथा (रायस्पोषवनि) यथा रायो धनसमूहस्य पोषं पुष्टिं वनन्ति सेवन्ते यस्मात् तथा (परि) सर्वतः (ऊहामि) वितर्कयामि (ब्रह्म) विद्या विद्वांसं वा (दृंह) वर्धय वर्धयति वा (क्षत्रम्) राज्यं क्षण्यते हिंस्यते नश्यते पदार्थो येन सः क्षत् घातादिस्ततस्त्रायते रक्षतीति क्षत्रः क्षत्रियादिवीरस्तम् (दृंह) वर्धय (आयुः) जीवनम् (दृंह) वर्धय (प्रजाम्) उत्पादनीयाम् (दृंह) वर्धय। अयं मन्त्रः (शत॰३। ६। १। १५-१८) व्याख्यातः॥२७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यूयं यथा जगदीश्वरः सत्यभावेन प्रार्थितः सद्विद्वाँश्च सेवितः सर्वान् सुखयति, तथैवायं यज्ञो विद्यादीन् संवृध्य सर्वान् मनुष्यादीन् प्राणिनः सुखयतीति विजानीत॥२७॥

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    विषयः

    सेवितः सभाध्यक्षोऽनुष्ठितो यज्ञश्च किं करोतीत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे परमविद्वन् ! यथा त्वा=त्वां मारुतो वायुः ध्रुवेण निश्चलेन धर्मणा धर्मेण मिनोतु प्रक्षिपति, मित्रावरुणौ यथा प्राणापानौ तथा, मिनुतस्तथा त्वं कृपयाऽस्मदर्थं दिवं प्रकाशं [उत्+स्तभान]=उत्तभान, अन्तरिक्षम् आकाशं तत्रस्थ प्राणिवर्गं च पृण [दृँहस्व] वर्धय। पृथिव्यांभूमौद्युतानः यथा दिवं=सद्विद्यागुणं विस्तारयति तथा,सन् सुखानि दृंह वर्धय, ब्रह्म विद्यां विद्वांसं वा दृंह वर्धय वर्धयति वा क्षत्रं राज्यं क्षण्यते=हिंस्यते नश्यते पदार्थो येन स क्षतः=घातादिस्ततस्त्रायते=रक्षतीति क्षत्रः=क्षत्रिया दिवीरस्तं, दृंह वर्धय, आयुः जीवनं दृंह वर्धय प्रजाम् उत्पादनीयां दृंह वर्धय । [ब्रह्मवनि] ब्रह्मवनिं यथा बलविद्यासंभानितारं तथा, [क्षत्रवनि] क्षत्रवनिं क्षत्रस्य=राज्यस्य संसेवयितारं तथा, [रायस्पोषवनि] रायस्पोषवनिं यथा रायो=धनसमूहस्य पोषं=पुष्टिं वनन्ति=सेवन्ते यस्मात्तथा,त्वामहं पर्यूहामि सर्वतो वितर्कयामि तथा त्वां सर्वे मनुष्याः पर्यूहन्तु ॥ ५ । २७ ।। [हे परम विद्वन्! यथा त्वा=त्वां मारुतो ध्रुवेण धर्मणा मिनोतु.......तथा त्वं कृपयाऽस्मदर्थं दिवं [उत्+स्तभान] उत्तभान, अन्तरिक्षं पृण]

    पदार्थः

    (उत्) उत्कृष्टे (दिवम्) प्रकाशम् (स्तभान) (अन्तरिक्षम्) प्रकाशं तत्रस्थप्राणिवर्गं च । अत्र तात्थ्योपाधिना प्राणिनामपि ग्रहणम् (पृण) अत्रान्तर्भाविणिजर्थ: (दृंहस्व) वर्धय (पृथिव्याम्) भूमौ (द्युतान:) यथा दिवं=सद्विद्यागुणं विस्तारयति तथा (त्वा) त्वाम् (मारुतः) वायुः (मिनोतु) प्रक्षिपति (मित्रावरुणौ) यथा प्राणापानौ तथा (ध्रुवेण) निश्चलेन (धर्मणा) धर्मेण (ब्रह्मवनि) यथाबलविद्यासंभाजितारं तथा । अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगिति विभक्तेर्लुक् (त्वा) त्वाम् (क्षत्रवनि) क्षत्रस्य= राज्यस्य संसेवयितारं तथा (रायस्पोषवनि) यथा रायो=धनसमूहस्य पोषं=पुष्टिं वनन्ति=सेवन्ते यस्मात्तथा (परि) सर्वतः (ऊहामि) वितर्कयामि (ब्रह्म) विद्यां विद्वांसं वा (दृंह) वर्धय वर्धयति वा (क्षत्रम्) राज्यं क्षण्यते=हिंस्यते नश्यते पदार्थो येन सः क्षतो=घातादिस्ततस्त्रायते=रक्षतीति क्षत्रः=क्षत्रियादिवीरस्तम् (दृंह) वर्धय (आयु:) जीवनम् (दृंह) वर्धय (प्रजाम्) उत्पादनीयाम् (दृंह) वर्धय॥ अयं मंत्रः शत०३।६।१ । १५-१८ व्याख्यातः ॥ २७ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ।। हे मनुष्या ! यूयं यथा जगदीश्वरः सत्यभावेन प्रार्थितः, सद् विद्वांश्च सेवितः सर्वान् सुखयति, तथैवायं यज्ञो विद्यादीन् संवर्ध्य सर्वान् मनुष्यादीन् प्राणिनः सुखयतीति विजानीत ।। ५ । २७ ।।

    विशेषः

    औतथ्यो दीर्घतमाः । यज्ञः=स्पष्टम् ॥ ब्राह्मी जगती। निषादः॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अच्छे प्रकार सेवन किया हुआ सभापति और अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे परम विद्वन्! जैसे (त्वा) आपको (मारुतः) वायु (ध्रुवेण) निश्चल (धर्मणा) धर्म से (मिनोतु) प्रयुक्त करे (मित्रावरुणौ) प्राण और अपान भी धर्म से प्रयुक्त करते हैं, वैसे आप कृपा करके हम लोगों के लिये (दिवम्) विद्या गुणों के प्रकाश को (उत्तभान) अज्ञान से उधाड़ देओ तथा (अन्तरिक्षम्) सब पदार्थों के अवकाश को (पृण) परिपूर्ण कीजिये (पृथिव्याम्) भूमि पर (द्युतानः) सद्विद्या के गुणों का विस्तार करते हुए आप सुखों को (दृंहस्व) बढ़ाइये (ब्रह्म) वेदविद्या को (दृंह) बढ़ाइये (क्षत्रम्) राज्य को बढ़ाइये (आयुः) अवस्था को (दृंह) बढ़ाइये और (प्रजाम्) उत्पन्न हुई प्रजा को (दृंह) वृद्धियुक्त कीजिये। इसलिये मैं (ब्रह्मवनि) ब्रह्मविद्या को सेवन करने वा कराने (क्षत्रवनि) राज्य को सेवन करने-कराने (रायस्पोषवनि) और धनसमूह की पुष्टि को सेवने वा सेवन कराने वाले आप को (पर्यूहामि) सब प्रकार के तर्कों से निश्चय करता हूं, वैसे आप मुझ को सर्वथा सुखदायक हूजिये और आप को सब मनुष्य तर्कों से जानें॥२७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! आप लोग जैसे जगदीश्वर सत्य भाव से प्रार्थित और सेवन किया हुआ अत्युत्तम विद्वान् सब को सुख देता है, वैसे यह यज्ञ भी विद्या गुण को बढ़ाकर सब जीवों को सुख देता है, यह जानो॥२७॥

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    विषय

    ब्रह्म, क्षत्र, आयु, प्रजा

    पदार्थ

    दीर्घतमा को, जिसने गत मन्त्र में सब लोकों के शोधन की प्रार्थना की है, प्रभु प्रेरणा देते हैं कि— १. ( दिवं उत्स्तभान ) = तू अपने मस्तिष्क को ऊपर थाम। जैसे पर्वत के मेखलाप्रदेश में ही बादल उमड़ते हैं और उसका शिखर सूर्य के प्रकाश से दीप्त रहता है, उसी प्रकार तेरा मस्तिष्क भी ज्ञान की ज्योति से जगमगाता रहे। वह कभी भ्रमों व सन्देहों से न भर जाए। 

    २. ( अन्तरिक्षम् ) = तू अपने हृदयान्तरिक्ष को ( पृण ) = परिपूरण कर। अपने हृदय को वासनाओं के आक्रमण से सुरक्षित कर। 

    ३. ( पृथिव्यां दृंहस्व ) = इस शरीर में तू दृढ़ बन। शरीर ही पृथिवी है। जैसे पृथिवी दृढ़ है, उसी प्रकार तू दृढ़ शरीरवाला बन। 

    ४. ( द्युतानः ) = [ दिवं तनोति ] ज्ञान का विस्तार करनेवाला ( मारुतः ) = प्राण-साधना करनेवाला विद्वान् ( त्वा ) = तुझे ( मिनोतु ) = विषयों से परे फेंके, अर्थात् विषयवासना के संसार में उलझने न दे। 

    ५. ( मित्रावरुणौ ) = स्नेह की देवता तथा द्वेष-निवारण की देवता तुझे ( ध्रुवेण धर्मणा ) = ध्रुव धर्म से युक्त करें, अर्थात् स्नेह व अद्वेष तुझे धर्म के मार्ग पर दृढ़ करें। 

    ६. ( ब्रह्मवनि ) = ज्ञान का विजय करनेवाले ( त्वा ) = तुझे, ( क्षत्रवनि ) = बल का विजय करनेवाले, ( रायस्पोषवनि ) = धन के पोषण का विजय करनेवाले ( त्वा ) = तुझको ( पर्यूहामि ) = मैं अपने समीप प्राप्त कराता हूँ। वस्तुतः प्रभु को वही प्राप्त करता है जो ज्ञान के द्वारा अध्यात्म उन्नति का साधन करता है, बल के द्वारा शरीर की उन्नति का साधन करता है और धन से सांसारिक उन्नति को सिद्ध करता है। ज्ञान से ‘सत्य’, बल से ‘यश’ तथा धन से ‘शक्ति’ साधन करके हम प्रभु को प्राप्त करते हैं। 

    ७. अतः तू ( ब्रह्म दृंह ) = अपने ज्ञान को दृढ़ कर, ( क्षत्रं दृंह ) = बल को दृढ़कर, ( आयुः दृंह ) = अपनी आयु को दृढ़कर और ( प्रजाम् ) = प्रजा को ( दृंह ) = दृढ़ कर। वस्तुतः ज्ञान की दृढ़ता से जीवन की दृढ़ता होती है और बल की दृढ़ता से सन्तान की दृढ़ता सिद्ध होती है। ज्ञान से जीवन, बल से सन्तान उत्तम होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभु को प्राप्त करने के लिए जहाँ ज्ञान और बल की आवश्यकता है, वहाँ जीवन व सन्तान को सुन्दर बनाना भी नितान्त आवश्यक है।

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    विषय

    ( १ ) ( देवस्य त्वा००अपि कृन्तामि ) व्याख्या देखो अ० ५ ।म० २२ ॥ ( २ ) हे राजन् तू ( यव: असि ) तू हमारे शत्रुओं को दूर करने में समर्थ है। छातः तू 'यव' है। तू. ( अस्मत ) हम से ( द्वेषः ) द्वेष करनेवालों को या ईर्पादि दोषों को ( यवय ) दूर कर । और ( अरातीः ) शत्रुओं को जो हमें कर नहीं देते हैं उनको भी ( यवय ) दूर कर । (पितृष- दनाः ) पिता पालक, ज्ञानी पुरुषों के पदों पर विराजमान देश के पालक ( लोका: ) समस्त लोक प्रजाजन हे राजन् ! त्वा) तुझे ( दिवे ) द्यौलोक मैं सूर्य के समान स्थापन करने के लिये ( अन्तरिक्षाय ) अन्तरिक्ष में वायु के समान और ( पृथिव्यै ) पृथिवी के हित के लिये ( शुन्धताम् ) शुद्ध करें, अभिषेक करें | तू स्वयं ( पितृषदनम् असि ) समस्त प्रजा के पालक पुरुषों का आश्रय है ।

    भावार्थ

    हे राजन् ( दिवम् ) धौलोक या प्रकाशमान पिडों को या प्रकाश को जिस प्रकार सूर्य उठा रहा है। उस प्रकार तू भी ( उत् स्तभान ) प्रकाश या ज्ञान और उत्तम पुरुषों को ऊपर स्थापित कर । ( अन्तरिक्षम्- पृण) अन्तरिक्ष को जिस प्रकार वायु पूरी कर रहा है उसी प्रकार अन्त रिक्ष को या मध्यम श्रेणी के लोगों को पूर्ण कर या पालन कर । और तू ( पृथिव्याम् ) इस पृथिवी पर (द्वंहस्व ) राष्ट्र की वृद्धि कर । ( द्युतान: ) देदीप्यमान, तेजस्वी पुरुष ( मारुतः ) वायु के समान प्रवल होकर (त्वा) तुझको ( मिनोतु ) संचालित करे । ( मित्रावरुणौ ) मित्र न्यायकर्ता और वरुण, दुष्टों का वारक दोनों अधिकारी जन भी ( ध्रुवेण धर्मणा ) अपने ध्रुव, स्थायी, सामर्थ्य से ( त्वा मिनुताम् ) तुझे सञ्चालित करें। (त्वा) तुझकों (ब्रह्मवनि ) ब्रह्म, ब्राह्मणों का पोषक, ( क्षत्रवनि क्षात्रबलत्र का पोषक ( रायस्पोषवनि ) धनों के, ऐश्वयों को पुष्ट के करने वाला ( पर्यूहामि ) जानता हूं, एवं नियत करता हूं । तू (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञान और विद्या बल को ( दृंह ) बढ़ा । ( चत्रं दृंह ) क्षात्रबल को व वीर्य को बढ़ा । ( आयु: दृंह) आयु को बढ़ा । ( प्रजाम् दृंह ) प्रजा की वृद्धि कर।।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     प्रजापतिःऋषिः।औदुम्बरी यज्ञो वा देवता । ब्राह्मी जगती छन्दः । निषादः स्वरः ॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे राजन् ( दिवम् ) धौलोक या प्रकाशमान पिडों को या प्रकाश को जिस प्रकार सूर्य उठा रहा है। उस प्रकार तू भी ( उत् स्तभान ) प्रकाश या ज्ञान और उत्तम पुरुषों को ऊपर स्थापित कर । ( अन्तरिक्षम्- पृण) अन्तरिक्ष को जिस प्रकार वायु पूरी कर रहा है उसी प्रकार अन्त रिक्ष को या मध्यम श्रेणी के लोगों को पूर्ण कर या पालन कर । और तू ( पृथिव्याम् ) इस पृथिवी पर (द्वंहस्व ) राष्ट्र की वृद्धि कर । ( द्युतान: ) देदीप्यमान, तेजस्वी पुरुष ( मारुतः ) वायु के समान प्रवल होकर (त्वा) तुझको ( मिनोतु ) संचालित करे । ( मित्रावरुणौ ) मित्र न्यायकर्ता और वरुण, दुष्टों का वारक दोनों अधिकारी जन भी ( ध्रुवेण धर्मणा ) अपने ध्रुव, स्थायी, सामर्थ्य से ( त्वा मिनुताम् ) तुझे सञ्चालित करें। (त्वा) तुझकों (ब्रह्मवनि ) ब्रह्म, ब्राह्मणों का पोषक, ( क्षत्रवनि क्षात्रबलत्र का पोषक ( रायस्पोषवनि ) धनों के, ऐश्वयों को पुष्ट के करने वाला ( पर्यूहामि ) जानता हूं, एवं नियत करता हूं । तू (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञान और विद्या बल को ( दृंह ) बढ़ा । ( चत्रं दृंह ) क्षात्रबल को व वीर्य को बढ़ा । ( आयु: दृंह) आयु को बढ़ा । ( प्रजाम् दृंह ) प्रजा की वृद्धि कर।।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     प्रजापतिःऋषिः।औदुम्बरी यज्ञो वा देवता । ब्राह्मी जगती छन्दः । निषादः स्वरः ॥

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    विषय

    अच्छे प्रकार सेवन किया हुआा सभापति और अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ क्या करता है, इस विषय का उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे परम विद्वान् मनुष्य! जैसे (त्वा) तुझे (मारुतः) वायु (ध्रुवेण) स्थिर (धर्मणा) धर्म से (मिनोतु) संयुक्त करता है, और (मित्रावरुणौ) प्राण तथा अपान (मिनुतः) प्रेरित करते हैं, वैसे तू कृपा करके हमारे लिये (दिवम्) विद्या प्रकाश को (उत-स्तभान) आकाश तथा वहाँ के प्राणि वर्ग को (पृण) तृप्त कर और (दृंहश्च) बढ़ा। (पृथिव्याम्) भूमि पर (द्युतानः) श्रेष्ठ विद्यागुण का विस्तार करता हुआ सब सुखों को (दृंह) बढ़ा (ब्रह्म) विद्या को वा विद्वान् को (दृंह) बढ़ा (क्षत्रम्) राज्य को नष्ट करने वाले आघातों से रक्षा करने वाले क्षत्रिय वीर पुरुष को (दृंह) बढ़ा (आयु:) जीवन को (दृंह) बढ़ा (प्रजाम्) सन्तान को (दृंह) बढ़ा। और (ब्रह्मवनिम्) बल विद्या का सेवन करने वाले (क्षत्रवनिम्) राज्य का सेवन करने वाले, (रायस्पोषवनिम्) धनों की पुष्टि का सेवन करने वाले आप को मैं (पर्यूहामि) सब ओर से समझता हूँ वैसे आप को सब मनुष्य सब ओर से समझें ॥ ५ । २७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है ॥ हे मनुष्यो ! जैसे जगदीश्वर सत्य भाव से प्रार्थना करने पर तथा श्रेष्ठ विद्वान् सेवा करने पर सब को सुख देता है वैसे ही यह यज्ञ विद्या आदि को बढ़ाकर सब मनुष्य आदि प्राणियों को सुखी करता है, ऐसा तुम जानो ॥ ५ । २७ ।।

    प्रमाणार्थ

    (अन्तरिक्षम्) यहाँ तात्स्थ्य उपाधि से अन्तरिक्षस्थ प्राणियों का भी ग्रहण होता है। (पृण) यहाँ'णिच्' प्रत्यय का अर्थ अन्तर्भावित है। (ब्रह्मवनि) यहाँ 'सुपां सुलुक्॰ [अ० ७ । १ । ३९] इस सूत्र से ‘अम्' विभक्ति का लुक् है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।६।१।१५-१८) में की गई है ।। ५ । २७ ।।

    भाष्यसार

    १. सेवा से सभाध्यक्ष क्या करता है--परम् विद्वान् सभाध्यक्ष को वायु तथा प्राण-अपान अपने निश्चल धर्म से संयुक्त करें। अर्थात् विद्वान् पुरुष वायु एवं प्राण-अपान के समान अपने धर्म पर स्थिर रहता है तथा विद्याप्रकाश को ऊँचा उठाता है, आकाश को तथा आकाशस्थ सब प्राणियों को यज्ञादि शुभ कार्य से तृप्त करता है। पृथिवी पर सद्विद्या आदि गुणों का विस्तार करता हुआ सुखों को बढ़ाता है, विद्वानों को बढ़ाता है, वीर क्षत्रियों को बढ़ाता है, आयु को बढ़ाता है, और प्रजा को बढ़ाता है। अतः बल, विद्या, राज्य तथा धनों की पुष्टि से युक्त परम विद्वान् की सब मनुष्य सेवा करें। २. सेवन किया हुआ यज्ञ क्या करता है--परम् विद्वानों के द्वारा सेवन किया हुआ यज्ञ, वायु तथा प्राणापान के समान स्थिर धर्म से युक्त करता है, विद्या के प्रकाश को ऊँचा उठाता है, आकाश और वहाँ के प्राणियों का तर्पण करता है, पृथिवी पर सद्विद्या आदि गुणों का विस्तार करके सुखों को बढ़ाता है, विद्वान्, वीर पुरुष, जीवन और प्रजा की वृद्धि करता है। बल, विद्या, राज्य और धनों की पुष्टि प्रदान करता है। विद्वानों के समान यज्ञ का सब मनुष्य अनुष्ठान करें ।। ३. अलङ्कार--मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। परम विद्वानों के समान सब मनुष्य मन्त्रोक्त यज्ञ का अनुष्ठान करें यह उपमा है ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्याप्रमाणे खऱ्या भक्तीने परमेश्वराची प्रार्थना करणारा विद्वान सर्वांना सुख देतो त्याप्रमाणेच हा यज्ञही विद्येची वृद्धी करून सर्व जीवांना सुखी करतो, हे जाणा.

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    विषय

    प्रजजनांद्वारे उत्तम रीत्या सेवित सभाध्यक्ष (राष्ट्राध्यक्ष) आणि अनुष्ठानित यज्ञ कोणते लाभ प्राप्त करून देतात, याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे परम विद्वन् सभाध्यक्ष महोदय, (ज्याप्रमाणे (त्वा) आपणास (मारूतः) वायू (धु्रवेण) आपल्या निश्‍चित (धर्मणा) धर्मानुसार (गुण व परिणामानुसार) (मिनोतु) उपयुक्त होत आहे, त्याप्रमाणे (मित्रावरुणौ) प्राण व अपान दखील आम्हांला आपापल्या धर्माप्रमाणे योजित करतात. आपण कृपा करून आमच्यासाठी (दिवम्) विद्येचे गुण व्यक्त करून त्याच्या ज्ञानाने आमच्या (उत्तभान) आमानास नष्ट करा. तसेच (अन्तरिक्षम्) सर्व पदार्थांचा अवकाश अर्थात (पदार्थांविषयीचे अज्ञान व अभाव यांना दूर करून) त्या अवकाशास (पृण) ज्ञानेने परिपूर्ण करा. (पृथिव्याम्) भूमीवर (द्युतानः) सद्विद्येच्या गुणांचा विस्तार करीत सुखांची (दृहस्व) वृद्धी करा. (ब्रह्म) वेदविद्वेची (दृंह) वृद्धी करा. (क्षत्रम्) राज्याचा विस्तार करा. (आयुः) प्रजाजनांचे जीवनमान (दृंह) वाढवा (सर्वांना दीर्घायू करा) (प्रजाम्) उत्पन्न प्रजेचा (दृंह) उत्कर्ष करा. या उद्दिष्टांसाठी मी आपणांस, जे आपण (ब्रह्मषनि) ब्रह्म विद्या जाणणारे व सांगणारे आहात, (क्षत्रवनि) राज्याचा उपयोग घेतात व सर्वांना देतात (रायस्पोषवनि) धनराशीस पुष्ट करतात व करवितात, अशा आपणाला मी (पर्यूहामि) सर्व दृष्ट्या तर्काधारे समजून घेतो वा घेऊ इच्छितो. आपण कृपया मला (मज प्रजाजनाला) सर्वथा सुखदायी व्हा. माझ्याप्रमाणे इतरांनी देखील आपणांस तस तर्क, मुक्ती व बुद्धीने जाणावे, अशी माझी इच्छा आहे. ॥27॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्‍लेष आणि वाचक लुप्तोपमा हे दोन काव्यलंकार आहेत. हे मनुष्यांनो, तुम्ही हे जाणून समजून घ्या आणि विश्‍वास ठेवा की सत्य मनाने प्रार्थना केल्यास तो जगदीश्‍वर सर्व सुखांचे दान देतो. तद्वत प्रार्थित विद्वान देखील सुखदायी होतो. त्याप्रमाणे हा यज्ञ देखील विद्या आणि गुरांची वृद्धी करून सर्व प्राण्यांना सुखी करतो. ॥27॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O highly learned man, just as air with its definite strength, and vital breaths moves thee, so kindly discriminate for us the light of knowledge from ignorance ; fill full the space, and preaching noble virtues on Earth, strengthen delights. Strengthen the knowledge of the Vedas, strengthen our kingdom, strengthen our age, and strengthen our offspring. I consider thee as the source of spiritual knowledge, earthly power, and vast riches.

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    Meaning

    Yajna, man of knowledge, president of the assembly, reach the regions of light and reveal the secrets of knowledge. Rise to the skies and fill the space there for knowledge. Reach into the earth and strengthen it. May the wind join you and help with the light of energy. May the two-fold movements of wind-energy, prana and apana, help you with their firm and unfailing power. I know and appreciate your dedication to knowledge and education, to governance and organization, to the economic system and wish you well. Promote knowledge, strengthen the social system, enrich the economic system. Promote life and health. Promote the welfare of the people.

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    Translation

    O sacrifice, hold the heaven high above; maintain the midspace; flourish on the earth. (1) May the stormy wind spread you far and wide. May the force and the energy spread you according to the natural law. (2) I comprehend you as the granter of intellect, granter of valour and bestower of wealth and nourishment. (3) Make the intellectuals flourish, make the warriors flourish, make the longevity flourish, make our offsprings flourish. (4)

    Notes

    Ut stabhana, hold up. Dyutünab, दीप्यमान: stormy; shining. Mitra varunau, force and the energy. Dharmana, according to the Natural law. Drmha, make flourish; strengthen. Рагуоћаmi, think about; comprehend.

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    बंगाली (1)

    विषय

    সেবিতঃ সভাধ্যক্ষোऽনুষ্ঠিতো য়জ্ঞশ্চ কিং করোতীত্যুপদিশ্যতে ॥
    ভাল প্রকার সেবন করা সভাপতি এবং অনুষ্ঠান করা যজ্ঞ কী করিবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে পরম বিদ্বন্! যেমন (ত্বা) আপনাকে (মারুতঃ) বায়ু (ধ্রুবেণ) নিশ্চল (ধর্মণা) ধর্ম দ্বারা (মিনোতু) প্রযুক্ত করে (মিত্রাবরুণৌ) প্রাণ ও অপানও ধর্ম দ্বারা প্রযুক্ত করে সেইরূপ আপনি কৃপা করিয়া আমাদিগের জন্য (দিবম্) বিদ্যাগুণের প্রকাশকে (উত্তভান) অজ্ঞান হইতে মুক্ত করিয়া দিন তথা (অন্তরিক্ষম্) সকল পদার্থের অবকাশকে (পৃণ) পরিপূর্ণ করুন (পৃথিব্যাম্) ভূমোপরি (দ্যুতানঃ) সদ্বিদ্যার গুণগুলির বিস্তার করিয়া আপনি সুখ (দৃংহস্ব) বর্দ্ধিত করান (ব্রহ্ম) বেদবিদ্যা (দৃংহ) বৃদ্ধি করান (ক্ষত্রম্) রাজ্য বৃদ্ধি করান, (আয়ুঃ) আয়ু (দৃংহ) বৃদ্ধি করান এবং (প্রজাম্) উৎপন্ন প্রজা (দৃংহ) বৃদ্ধিযুক্ত করুন । এইজন্য আমি (ব্রহ্মবনি) ব্রহ্মবিদ্যার সেবন করা বা করানো (ক্ষত্রবণি) রাজ্য সেবন করা বা করানো (রায়স্পোষবণি) এবং ধনসমূহের পুষ্টি সেবন করা করানোর জন্য আপনাকে (পর্য়ূহামি) সর্ব প্রকার তর্ক দ্বারা নিশ্চয় করি সেইরূপ আপনি আমার জন্য সর্বথা সুখদায়ক হউন এবং আপনাকে সকল মনুষ্য তর্ক দ্বারা জানুক ॥ ২৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচক লুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ! আপনারা যেমন জগদীশ্বর সত্যভাব দ্বারা প্রার্থিত এবং সেবনকৃত অত্যুত্তম বিদ্বান্ সকলকে সুখ প্রদান করেন সেইরূপ এই যজ্ঞও বিদ্যা গুণকে বৃদ্ধি করাইয়া সকল জীবকে সুখ প্রদান করে, এইরূপ জানিবেন ॥ ২৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উদ্দিব॑ꣳ স্তভা॒নাऽऽऽন্তরি॑ক্ষং পৃণ॒ দৃꣳহ॑স্ব পৃথি॒ব্যাং দ্যু॑তা॒নস্ত্বা॑ মারু॒তো মি॑নোতু মি॒ত্রাবরু॑ণৌ ধ্রু॒বেণ॒ ধর্ম॑ণা । ব্র॒হ্ম॒বনি॑ ॑ত্বাক্ষত্র॒বনি॑ রায়স্পোষ॒বনি॒ পর্য়ূ॑হামি । ব্রহ্ম॑ দৃꣳহ ক্ষ॒ত্রং দৃ॒ꣳহায়ু॑দৃর্ꣳহ প্র॒জাং দৃ॑ꣳহ ॥ ২৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উদ্দিবমিত্যস্যৌতথ্যো দীর্ঘতমা ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । ব্রাহ্মী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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