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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 12
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्गर्भा जगती सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
    2

    यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॒र्वाता॑य म॒णिमा॒शवे॑। तेने॒मां म॒णिना॑ कृ॒षिम॒श्विना॑व॒भि र॑क्षतः। स भि॒षग्भ्यां॒ महो॑ दुहे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । वाता॑य । म॒णिम् । आ॒शवे॑ । तेन॑ । इ॒माम् । म॒णिना॑ । कृ॒षिम् । अ॒श्विनौ॑ । अ॒भि । र॒क्ष॒त॒: । स: । भि॒षक्ऽभ्या॑म् । मह॑: । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमबध्नाद्बृहस्पतिर्वाताय मणिमाशवे। तेनेमां मणिना कृषिमश्विनावभि रक्षतः। स भिषग्भ्यां महो दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । वाताय । मणिम् । आशवे । तेन । इमाम् । मणिना । कृषिम् । अश्विनौ । अभि । रक्षत: । स: । भिषक्ऽभ्याम् । मह: । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम्) जिस (मणिम्) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] को.... म० ११ (अबध्नात्) बाँधा है। (तेन) उस (मणिना) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] से (इमाम् कृषिम्) इस खेती की (अश्विनौ) कामों में व्याप्तिवाले दोनों [स्त्री पुरुष] (अभि रक्षतः) रक्षा करते रहते हैं (सः) वह [वैदिक नियम] (भिषग्भ्याम्) उन दोनों वैद्यों के लिये (महः) बड़ाई (भूयोभूयः) बहुत-बहुत... म० ६ ॥१२॥

    भावार्थ

    वैदिक विज्ञान द्वारा स्त्री-पुरुष खेती रूप इस संसार के व्यवहार के सिद्ध कर के सुख भोगें ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(तेन) (इमाम्) (मणिना) प्रशंसनीयेन वैदिकनियमेन (कृषिम्) कृषिरूपं संसारम् (अश्विनौ) अ० २।२९।६। कार्येषु व्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ (अभि रक्षतः) (सः) (भिषग्भ्याम्) वैद्याभ्यां स्त्रीपुरुषाभ्याम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० ६ ॥

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    विषय

    महः

    पदार्थ

    १. (बृहस्पतिः यं मणिम् अवघ्नात्) = [मन्त्र ११ में द्रष्टव्य है] २. (तेन मणिना) = उस मणि के द्वारा-वीर्यरूप मणि को अपने में रक्षित करने के द्वारा (अश्विनी) = कर्मों में व्याप्त होनेवाले नर-नारी (कृषिम् अभिरक्षत:) = कृषि का रक्षण करते हैं [अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व०] सट्टे आदि के कामों में रुचिवाले न होकर श्रम-साध्य कर्मों द्वारा ही धनार्जन करते हैं। (स:) = वह मणि भी (भिषग्भ्याम्) = वीर्यरक्षण द्वारा रोगों का प्रतीकार करनेवाले इन वैद्यभूत नर-नारियों के लिए (मह:) = तेजस्विता को (भूय:भूयः) = अधिकाधिक (श्वःश्व:) = अगले-अगले दिन (दुहे) = प्रपूरित करती है। (तेन) = उस तेजस्विता से (त्वम्) = तू (द्विषतः जहि) = इन अप्रीतिकर शत्रुओं को विनष्ट कर।

    भावार्थ

    वीर्यरक्षण से मनुष्य में कृषि आदि श्रमसाध्य कर्मों में रुचि होती है। वे सट्टे के कामों में व लॉटरीज़ में नहीं पड़े रहते। ये तेजस्विता को प्राप्त कर नीरोग बनते हैं।

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    भाषार्थ

    (बृहस्पतिः) परमेश्वर ने (आाशवे, वाताय) शीघ्रगति वाली वायु के निर्माण के लिये, (यम्, मणिम्) जिस मणि को (अवध्नात्) बान्धा, (तेन मणिन) उस मणि द्वारा (अश्विना) दो अश्वी अर्थात् प्राण और अपान (इमाम्, कृषिम्) इस कृषि की (अभिरक्षतः) रक्षा करते हैं। (सः) उस वात अर्थात् वायु ने (भिषग्भ्याम्) वैद्यरूप दो अश्वियों के लिये (महः) महत्त्व (दुहे) दोहा है, (भूयोभूयः) बार-बार या अधिकाधिक रूप में, (श्वः श्वः) आए दिन-प्रतिदिन, (तेन) उस वात द्वारा (त्वम्) हे परमेश्वर ! तू (द्विषतः) रोग-शत्रुओं का (जहि) हनन कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ११,१२ का विषय एक है। कृषि द्वारा शरीररूपी क्षेत्र में, कर्मरूपी कृषि का वर्णन हुआ है, जिस का परिपाक है सुख और दुःख। गीता में शरीर को क्षेत्र कहा है, और जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ अर्थात् क्षेत्र का स्वामी। शरीर क्षेत्र में कर्म बीज बोएं जाते हैं, बोने वाला क्षेत्रज्ञ जीवात्मा है। इस कृषि की रक्षा प्राणापान करते हैं। जिन्हें अश्विनी कहा है। शरीर में व्याप्त होकर शरीर की रक्षा करते हैं, अश्विनौ= अशुङ् व्याप्तौ। ये दोनों वातरूप हैं, वायुरूप हैं। यह वायु ही प्राण और अपानरूप में परिणत हो रही है, नासिका द्वारा शरीर में प्रविष्ट होकर। इसलिये अश्वियों को "नासत्यौ” भी कहते हैं। "नासत्यौ= नासाप्रभवौ" (निरुक्त ६।३।१३; "पुरन्धिः" ५१)। ये दो अश्विनौ भिषग् है; वैद्यवत् चिकित्सा करते हैं, "अश्विनौ देवानां भिषजौ"। प्राण और अपान शरीरशुद्धि द्वारा और शरीरपुष्टि द्वारा वैद्यवत्, चिकित्सक हैं। मन्त्र में कृषि द्वारा प्रकरणगत प्राकृतिक कृषि भी अभिप्रेत हो सकती है, जिस की रक्षा पृथिवी-द्यौ, तथा सूर्य-चन्द्रमा करते हैं। अश्विनौ= द्यावापृथिव्यावित्येके। सूर्याचन्द्रमसावित्येके। द्यौः वर्षा द्वारा रक्षा करती है, और पृथिवी भोज्योत्पादन द्वारा तथा सूर्य ज्योति द्वारा और तभा सूर्य द्वारा ज्योति और चन्द्रमा रसप्रदान द्वारा कृषि की रक्षा करते हैं (निरुक्त १२।१।१)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Manibandhana

    Meaning

    That jewel-mani of divine thought which Brhaspati set in motion for the origination of dynamic energy for the evolution of existence, by that very jewel energy the Ashvins, twin motions of prana and apana currents of cosmic energy circuit, protect and promote this process of Biological evolution and agriculture. The same jewel creates and takes forward the grand evolution for the twin procreative forces, the Ashvins, more and ever more, moment by moment. O man, as part of the evolution, eliminate the forces that hate, oppose and negate the process of evolution.

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    Translation

    The blessing, which the Lord supreme has bestowed upon the fast-moving wind (vatāya), with that blessing the twins divine (ašvinau) guard this farming (krsi) well. That, verily, yields magnanimity to the two physicians (bhisagbhyām), more and more, morrow to morrow. With that, may you destroy the malicious enemies.

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    Translation

    That citron medicine which the master of Vedic speech binds on the man of swift activity and thereby the peasant dual protect this agriculture, gives might for the physician and surgeon frequently every day. By this, O man! Destroy diseases which hurt you.

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    Translation

    With the help qf Vedic Law, which God, the Lord of mighty worlds hath created for an enterprising person, men and women protect this vast field of the world. This law grants power to the physician and surgeon again and again, from morn to morn. With this subdue thine enemies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(तेन) (इमाम्) (मणिना) प्रशंसनीयेन वैदिकनियमेन (कृषिम्) कृषिरूपं संसारम् (अश्विनौ) अ० २।२९।६। कार्येषु व्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ (अभि रक्षतः) (सः) (भिषग्भ्याम्) वैद्याभ्यां स्त्रीपुरुषाभ्याम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० ६ ॥

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