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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
    1

    हिर॑ण्यस्रग॒यं म॒णिः श्र॒द्धां य॒ज्ञं महो॒ दध॑त्। गृ॒हे व॑सतु॒ नोऽति॑थिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽस्रक् । अ॒यम् । म॒णि: । श्र॒ध्दाम् । य॒ज्ञम् । मह॑: । दध॑त् । गृ॒हे । व॒स॒तु॒ । न॒: । अति॑थि: ॥६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यस्रगयं मणिः श्रद्धां यज्ञं महो दधत्। गृहे वसतु नोऽतिथिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽस्रक् । अयम् । मणि: । श्रध्दाम् । यज्ञम् । मह: । दधत् । गृहे । वसतु । न: । अतिथि: ॥६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (हिरण्यस्रक्) कामनायोग्य [तेजों] का उत्पन्न करनेवाला (अतिथिः) सदा मिलने योग्य (अयम्) यह (मणिः) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] (श्रद्धाम्) श्रद्धा [सत्यधारण], (यज्ञम्) श्रेष्ठ कर्म, (महः) बड़प्पन (दधत्) देता हुआ (नः) हमारे (गृहे) घर में (वसतु) वसे ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य वेदों के नित्य विचार से श्रद्धावान्, यशस्वी और परोपकारी होवें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(हिरण्यस्रक्) अ० १०।९।२। हर्य गतिकान्त्योः-कन्यन्, हिरादेशः। ऋत्विग्दधृक्स्रग्०। पा० ३।२।५९। सृज उत्पादने-क्विन्, अमागमः। कमनीयानां तेजसां स्रष्टा (अयम्) प्रसिद्धः (मणिः) म० २। प्रशंसनीयो वेदबोधः (श्रद्धाम्) सत्यधारणम्। विश्वासम् (यज्ञम्) श्रेष्ठव्यवहारम् (महः) महत्त्वम् (दधत्) प्रयच्छन् (गृहे) (वसतु) तिष्ठतु (नः) अस्माकम् (अतिथिः) अ० ७।२१।१। अत सातत्यगमने-इथिन्। अतनशीलः। नित्यं प्रापणीयः ॥

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    विषय

    हिरण्यस्त्रक' मणि

    पदार्थ

    १. शरीर में सुरक्षित (अयं मणिः) = यह वीर्यमणि (हिरण्यस्त्रक्) = हितरमणीय तत्वों को उत्पन्न करनेवाला है [सृज्]। यह (श्रद्धाम्) = हृदय में श्रद्धा को, (यज्ञम्) = हाथों में यज्ञों [श्रेष्ठतम् कर्मों] को, तथा (महः) = शरीर में तेजस्विता को (दधत्) = धारण करता हुआ (अतिथि:) = [अत सातत्यगमने] शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में गतिवाला होता हुआ (नः गृहे) = हमारे शरीरगृह में (वसतु) = निवास करे।

    भावार्थ

    यह वीर्यमणि शरीर में सुरक्षित होने पर हितरमणीय तत्त्वों को जन्म देती है। यह हृदय में श्रद्धा, हाथों में यज्ञ तथा शरीर में तेज को स्थापित करती है। प्रभुकृपा से यह हमारे शरीर-गृह में ही, गति करती हुई, निवास करे।

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    भाषार्थ

    (अयम्) यह (मणिः) कृष्यन्न [मन्त्र २] रूपी रत्न, (हिरण्यस्रुक्) जो कि हिरण्य का सर्जन करता है, और हम में (श्रद्धाम्, यज्ञम्, महः) अतिथिसेवा रूपी यज्ञ को उनके प्रति श्रद्धा को, तथा उत्सवों को (दधत्) स्थापित करता है वह (नः गृहे) हमारे घर में (वसतु) सदा वास करे, जैसे कि (अतिथिः) अतिथि (हिरण्यस्रक) हिरण्य की माला द्वारा सत्कृत हुआ, और हम में निज उपदेशों द्वारा (श्रद्धाम्•••) श्रद्धा, अतिथि, यज्ञ, तथा महत्व को (दधत्) स्थापित करता हुआ (नः गृहे वसतु) हमारे घर में वसे, निवास करे।

    टिप्पणी

    [कृष्यन्न के होने पर उस के विक्रय द्वारा हिरण्य का सर्जन होता है। कृष्यन्न यदि घर में हो तभी अतिथियों के प्रति श्रद्धा, अतिथि यज्ञ करना, तथा उत्सवों का होना सम्भव हो सकता है]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Manibandhana

    Meaning

    Let this gold threaded jewel bear and bring us faith, yajna and glory, and abide in our home like an honoured visitor without any definite date, permanently.

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    Translation

    May this jewel, strung on a golden chain, bestow faith, sacrifice and magnamity. May it stay at our house as a guest.

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    Translation

    Let this plant having the golden-colored chain dwell in our house like the guest possessing faith, generosity and the instinct of yajna.

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    Translation

    May this Vedic Law, the bestower of splendor, granting us faith, sacrifice, power, dwell in our house honored like a guest.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(हिरण्यस्रक्) अ० १०।९।२। हर्य गतिकान्त्योः-कन्यन्, हिरादेशः। ऋत्विग्दधृक्स्रग्०। पा० ३।२।५९। सृज उत्पादने-क्विन्, अमागमः। कमनीयानां तेजसां स्रष्टा (अयम्) प्रसिद्धः (मणिः) म० २। प्रशंसनीयो वेदबोधः (श्रद्धाम्) सत्यधारणम्। विश्वासम् (यज्ञम्) श्रेष्ठव्यवहारम् (महः) महत्त्वम् (दधत्) प्रयच्छन् (गृहे) (वसतु) तिष्ठतु (नः) अस्माकम् (अतिथिः) अ० ७।२१।१। अत सातत्यगमने-इथिन्। अतनशीलः। नित्यं प्रापणीयः ॥

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