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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 17
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्गर्भा जगती सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
    1

    यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॒र्वाता॑य म॒णिमा॒शवे॑। तमि॒मं दे॒वता॑ म॒णिं प्रत्य॑मुञ्चन्त श॒म्भुव॑म्। स आ॑भ्यो॒ विश्व॒मिद्दु॑हे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । वाता॑य । म॒णिम् । आ॒शवे॑ । तम् । इ॒मम् । दे॒वता॑: । म॒णिम् । प्रति॑ । अ॒मु॒ञ्च॒न्त॒ । श॒म्ऽभुव॑म् । स: । आ॒भ्य॒: । विश्व॑म् । इत् । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय: । श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमबध्नाद्बृहस्पतिर्वाताय मणिमाशवे। तमिमं देवता मणिं प्रत्यमुञ्चन्त शम्भुवम्। स आभ्यो विश्वमिद्दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । वाताय । मणिम् । आशवे । तम् । इमम् । देवता: । मणिम् । प्रति । अमुञ्चन्त । शम्ऽभुवम् । स: । आभ्य: । विश्वम् । इत् । दुहे । भूय:ऽभूय: । श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम्) जिस (मणिम्) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] को (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमेश्वर] ने (वाताय) गमनशील (आशवे) भोक्ता [प्राणी] के लिये (अबध्नात्) बाँधा है। (तम् इमम्) उस ही (शंभुवम्) शान्तिकारक (मणिम्) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] को (देवताः) देवताओं [विद्वानों] ने (प्रति अमुञ्चन्त) स्वीकार किया है। (सः) वह [वैदिक नियम] (आभ्यः) इन [देवताओं] के लिये (इत्) ही (विश्वम्) प्रत्येक वस्तु (भूयोभूयः) बहुत-बहुत, (श्वः श्वः) कल्प के पीछे कल्प [अर्थात् नित्य आगामी समय में] (दुहे) पूरा करता है, (तेन) उस [वैदिक नियम] से (त्वम्) तू (द्विषतः) वैरियों को (जहि) मार ॥१७॥

    भावार्थ

    ईश्वरविहित वैदिक नियम को विद्वान् मानकर सदा आनन्द पाते रहे हैं, इसी प्रकार सब मनुष्य वेदमार्ग पर चलकर आनन्द भोगें ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(देवताः) विद्वांसः (प्रति अमुञ्चन्त) स्वीकृतवन्तः (आभ्यः) देवताभ्यः (विश्वम्) प्रत्येकं वस्तु। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    विश्वम्

    पदार्थ

    १. (बृहस्पतिः यं मणिम् अबध्नात्) = [मन्त्र ११ में द्रष्टव्य है] २. (तं शंभुवम् मणिम्) = उस शान्ति उत्पन्न करनेवाली वीर्यमणि को (देवता:) = देववृत्ति के पुरुष प्रत्यमुञ्चन्त-कवच के रूप में धारण करते हैं। (सः) = वह मणि (आभ्य:) = इन देवलोगों के लिए (भूयःभूयः) = अधिकाधिक (श्वःश्व:) = अगले-अगले दिन (इत्) = निश्चय से (विश्वं दुहे) = सम्पूर्ण [स्वस्थ] शरीर को प्रपूरित करती है। (तेन) = उस मणि के द्वारा (त्वम्) = तू (द्विषतः जहि) = अप्रीतिकर शत्रुओं को नष्ट कर डाल।

     

    भावार्थ

    देववृत्ति का पुरुष वीर्यरक्षण द्वारा सम्पूर्ण [स्वस्थ] शरीर प्रास करता है और सब शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला बनता है।

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    भाषार्थ

    (बृहस्पतिः) बृहत् ब्रह्माण्ड के पति परमेश्वर ने (आशवे वाताय) शीघ्रगतिवाली वायु के निर्माण के लिये (यम्, मणिम्) जिस कामनारूपी मणि को (अबध्नात्) बान्धा, (तम्, मणिम्) उस कामनारूपी मणि को (शंभुवम्) जो कि शान्ति पैदा करने वाली है, (देवताः) विजिगीषु सेनाओं ने भी (प्रत्यमुञ्चन्त) धारण किया। (सः) उस बृहस्पति ने (आभ्यः) इन सेनाओं के लिये, या इन सेनाओं से (विश्वम् इत्) विश्व को (दुहे) दोहा, (भूयोभूयः) बार-बार या अधिकाधिक रूप में (तेन) उस दोहन द्वारा हे बृहस्पति ! (त्वम्) तू (द्विषतः) हमारे द्वेषी शत्रुओं का (जहि) हनन कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र १६ में "देवाः" द्वारा विजिगीषु सेनाधिकारियों का वर्णन हुआ है। मन्त्र १७ में "देवताः" द्वारा सेनाएं, अभिप्रेत हैं, यथा "देवसेनाः" अर्थात् देवों की सेनाएं"। सेनाधिकारी तथा सेनाएं, इन दोनों में जब विजिगीषा की उग्रभावना होती है, तभी युद्ध में विजय पाई जा सकती है। "शंभुवम्" द्वारा युद्ध का उद्देश्य दर्शाया है- “शान्ति", न कि परराष्ट्रलिप्सा। विश्वम् = सकल भूमण्डल, या सब अभीष्ट पदार्थ]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Manibandhana

    Meaning

    That jewel-mani of divine thought which Brhaspati set in motion for the origination of dynamic energy for the evolution of existence, that very jewel of thought and energy, giver of peace and well being, the Devatas, people of excellence and their mind and senses, received and bore, and that jewel distilled for them and still distils all the experience of the world more and ever more, day by day. O man, by the same energy, mind, senses and experience, rule out the forces of hate and enmity which negate and obstruct the honour and excellence of life.

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    Translation

    The blessing, which the Lord supreme has bestowed upon the fast-moving wind, this same bliss-bestowing blessing the bounties of Nature has put on. That, verily, yields all to them (feminine), more and more, morrow to morrow. With that may you destroy the malicious enemies.

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    Translation

    That citron medicine which the master of the Vedic speech binds on the man of swift activity and that pleasant the men of might accepts, gives them everything frequently and every day. By this, O man! destroy your diseases which hurt you.

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    Translation

    The laudable Vedic Law, which God, the Lord of mighty worlds hath created for an enterprising person, has been accepted by the learned as giver of tranquility. This law yieldeth all kinds of joys for the learned, again and again, from morn to morn. With this subdue thine enemies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(देवताः) विद्वांसः (प्रति अमुञ्चन्त) स्वीकृतवन्तः (आभ्यः) देवताभ्यः (विश्वम्) प्रत्येकं वस्तु। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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