अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
ऋषिः - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - षट्पदा जगती
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
1
तस्मै॑ घृ॒तं सुरां॒ मध्वन्न॑मन्नं क्षदामहे। स नः॑ पि॒तेव॑ पु॒त्रेभ्यः॒ श्रेयः॑ श्रेयश्चिकित्सतु॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्वो॑ दे॒वेभ्यो॑ म॒णिरेत्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । घृ॒तम् । सुरा॑म् । मधु॑ । अन्न॑म्ऽअन्नम् । क्ष॒दा॒म॒हे॒ । स: । न॒: । पि॒ताऽइ॑व । पु॒त्रेभ्य॑: । श्रेय॑:ऽश्रय: । चि॒कि॒त्स॒तु॒ । भूय॑:ऽभूय: । श्व:ऽश्व॑: । दे॒वेभ्य॑: । म॒णि: । आ॒ऽइत्य॑ ॥६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मै घृतं सुरां मध्वन्नमन्नं क्षदामहे। स नः पितेव पुत्रेभ्यः श्रेयः श्रेयश्चिकित्सतु भूयोभूयः श्वःश्वो देवेभ्यो मणिरेत्य ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै । घृतम् । सुराम् । मधु । अन्नम्ऽअन्नम् । क्षदामहे । स: । न: । पिताऽइव । पुत्रेभ्य: । श्रेय:ऽश्रय: । चिकित्सतु । भूय:ऽभूय: । श्व:ऽश्व: । देवेभ्य: । मणि: । आऽइत्य ॥६.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।
पदार्थ
(तस्मै) उस [वैदिक नियम की प्राप्ति] के लिये (मधु) मधुविद्या [यथार्थज्ञान], (सुराम्) ऐश्वर्य, (घृतम्) तेज और (अन्नमन्नम्) अन्न पर अन्न को (क्षदामहे) हम बाँटते हैं। (सः) वह (मणिः) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] (देवेभ्यः) विद्वानों से (एत्य) आकर (नः) हमें, (पिता इव) पिता के समान (पुत्रेभ्यः) पुत्रों के लिये, (श्रेयःश्रेयः) कल्याण के पीछे कल्याण को (भूयोभूयः) बहुत-बहुत, (श्वः श्वः) कल्प के पीछे कल्प [नित्य आगामी काल में] (चिकित्सतु) वैद्यरूप से बतावे ॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य वेदविद्या की प्राप्ति के लिये अपनी शरीररक्षा कर के दूसरों को विद्यादान आदि करते हैं, वे संसार में नित्य नये आनन्द भोगते हैं ॥५॥
टिप्पणी
५−(तस्मै) तस्य प्राप्तये (घृतम्) तेजः (सुराम्) अ० ६।६९।१। षुर ऐश्वर्यदीप्त्योः-क, टाप्। ऐश्वर्यम् (मधु) मधुविद्याम्। यथार्थज्ञानम् (अन्नमन्नम्) अन्नस्य पश्चादन्नम् (क्षदामहे) क्षद संपेषणे भक्षणे विभागे च, सौत्रः। वण्टयामः (सः) वैदिकनियमः (नः) अस्मभ्यम् (पिता इव) (पुत्रेभ्यः) (श्रेयःश्रेयः) कल्याणस्य परिकल्याणम् (चिकित्सतु) कित रोगापनयने। वैद्यवत् प्रज्ञापयतु (भूयोभूयो) बहुतरं बहुतरम् (श्वः श्वः) नित्यमागामिनि दिने (देवेभ्यः) विदुषां सकाशात् (मणिः) प्रशंसनीयो वैदिकनियमः (एत्य) आगत्य ॥
विषय
घृतं, सुरां, मधु, अन्नम्-अन्नम्
पदार्थ
१. (तस्मै) = उस वीर्यमणि के लिए हम (घृतम्) = घृत को (सुराम्) = [अपां च वा एष ओषधीनां च रसो यत्सुरा-श०१२।८।१।४] जल व ओषधियों के रस को, (मधु) = शहद को तथा (अन्नं अन्नम्) = खाने योग्य सात्त्विक अन्न को (क्षदामहे) = [क्षद भक्षणे] खाते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न वीर्यमणि शरीर में सुरक्षित रहता है। २. (स:) = वह (मणिः) = वीर्यमणि (देवेभ्यः) = दिव्य गुणों के विकास के लिए (भूयः भूय:) = अधिकाधिक (श्वःश्व:) = अगले-अगले दिन (एत्य) = प्राप्त होकर (नः) = हमें उसी प्रकार (श्रेयः श्रेयः चिकित्सतु) = उत्तम कल्याणों में निवास कराए, (इव) = जैसे पिता-पिता (पुत्रेभ्य:) = पुत्रों के लिए उत्तम निवास प्राप्त कराता है।
भावार्थ
उत्तम अन्नों द्वारा उत्पन्न वीर्य शरीर में सुरक्षित रहता है। यह हमें उसी प्रकार कल्याण में निवास कराता है जैसे पिता पुत्रों को। सुरक्षित हुआ-हुआ वीर्य हमारे अन्दर दिव्य गुणों का वर्धन करता है।
भाषार्थ
(देवेभ्यः) देवों से (मणिः) कृष्यन्न (एत्य) आकर, प्राप्त कर, तदनन्तर (तस्मै) उस [घर में बसे] अतिथि के लिये [मन्त्र ४] (घृतम्) घी, (सुराम्) शुद्ध जल, (मधु) शहद, (अन्नमन्नम्) तथा नानाविध अन्न (क्षदामहे) हम प्रदान करते हैं। (सः) वह [घर में बसा अतिथि], (श्वः श्वः) प्रत्येक आने वाले दिन में (भूयो भूयः) बार-बार (नः) हमें (श्रेयः श्रेयः) उत्तमोत्तम शिक्षा देकर (चिकित्सतु) हमारे अध्यात्मिक रोगों की चिकित्सा करे (पिता इव पुत्रेभ्यः) जैसे कि पिता पुत्रों के लिये शिक्षा देता है।
टिप्पणी
[चिकित्सतु = कित निवासे रोगापनयने च (भ्वादिः)। क्षदामहे, क्षद वैदिक धातु है। देवेभ्यः= देवयज्ञों के करने से वायु, सूर्य, जल आदि देवों से कृष्यन्न प्राप्त होता रहता है। "सुरा उदकनाम" (निघं० १।१२)। यह Distilled water वाष्पीकृत जल है, जोकि भारी नहीं होता]।
विषय
शिरोमणि पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ
(तस्मै) उस शिरोमणि रूप अतिथि के लिये (घृतम्) घी, (सुराम्) जल, (मधु) मधु, शहद (अन्नम् अन्नम्) और प्रत्येक प्रकार का अन्न, (क्षदामहे) खिलाते हैं। (पुत्रेभ्यः) पुत्रों को (पिता इव) जिस प्रकार पिता (श्रेयः श्रेयः) परम कल्याण का ही उपदेश करता है उसी प्रकार (सः) वह भी (नः) हमारे (पिता) पिता के समान पूजनीय होकर हमें (श्रेयः श्रेयः) सब प्रकार के कल्याणमय कर्त्तव्य का ही (चिकित्सतु) ज्ञान करावे और वह (मणिः) शिरोमणि (भूयः भूयः) बार बार (श्वः श्वः) प्रत्येक दिन (देवेभ्यः) विद्वानों से शिक्षा (एत्य) प्राप्त कर हमें उपदेश दिया करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहस्पतिर्ऋषिः। फालमणिस्त वनस्पतिर्देवता। १, ४, २१ गायत्र्याः, ३ आप्या, ५ षट्पदा जगती, ६ सप्तपदा विराट् शक्वरी, ७-९ त्र्यवसाना अष्टपदा अष्टयः, १० नवपदा धृतिः, ११, २३-२७ पथ्यापंक्तिः, १२-१७ त्र्यवसाना षट्पदाः शक्वर्यः, २० पथ्यापंक्तिः, ३१ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ३५ पञ्चपदा अनुष्टुब् गर्भा जगती, २, १८, १९, २१, २२, २८-३०, ३२-३४ अनुष्टुभः। पञ्चत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Manibandhana
Meaning
To that jewel visitor we offer ghrta, exhilarating drink, honey and food of many varieties. May the visitor, come from the divinities, bring us, like father for his children, honour, goodness and greatness again and again, day by day.
Translation
For it we give the purified butter, the strong drink, and sweet food of every kind. Like a father for his sons, may this provide us with better and better things, more and more, morrow to morrow (svāsvo), coming from the bounties of Nature.
Translation
We use to give ghee, water, honey, and palatable good to this citron tree so that let it provide boon of medicine for us as a father provides everything for his son. Let this citron medicine coming frequently from the hands of the learned physicians benefit us every day.
Translation
For the acquisition of Vedic Law we utilize correct knowledge, sovereignty, brain, and all sorts of good food. May it, be preached by the learned, provide each boon for us as doth a father for his sons, again and again, from morn to morn.
Footnote
It: Vedic Law. Madhu: Correct knowledge, Surama: Sovereignty, superhuman power, Gharitam: Brain ,तेज.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(तस्मै) तस्य प्राप्तये (घृतम्) तेजः (सुराम्) अ० ६।६९।१। षुर ऐश्वर्यदीप्त्योः-क, टाप्। ऐश्वर्यम् (मधु) मधुविद्याम्। यथार्थज्ञानम् (अन्नमन्नम्) अन्नस्य पश्चादन्नम् (क्षदामहे) क्षद संपेषणे भक्षणे विभागे च, सौत्रः। वण्टयामः (सः) वैदिकनियमः (नः) अस्मभ्यम् (पिता इव) (पुत्रेभ्यः) (श्रेयःश्रेयः) कल्याणस्य परिकल्याणम् (चिकित्सतु) कित रोगापनयने। वैद्यवत् प्रज्ञापयतु (भूयोभूयो) बहुतरं बहुतरम् (श्वः श्वः) नित्यमागामिनि दिने (देवेभ्यः) विदुषां सकाशात् (मणिः) प्रशंसनीयो वैदिकनियमः (एत्य) आगत्य ॥
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