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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 30
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
    1

    ब्रह्म॑णा॒ तेज॑सा स॒ह प्रति॑ मुञ्चामि मे शि॒वम्। अ॑सप॒त्नः स॑पत्न॒हा स॒पत्ना॒न्मेऽध॑राँ अकः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑णा । तेज॑सा । स॒ह । प्रति॑ । मु॒ञ्चा॒मि॒ । मे॒ । शि॒वम् । अ॒स॒प॒त्न: । स॒प॒त्न॒ऽहा । स॒ऽपत्ना॑न् । मे॒ । अध॑रान् । अ॒क॒ ॥६.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मणा तेजसा सह प्रति मुञ्चामि मे शिवम्। असपत्नः सपत्नहा सपत्नान्मेऽधराँ अकः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मणा । तेजसा । सह । प्रति । मुञ्चामि । मे । शिवम् । असपत्न: । सपत्नऽहा । सऽपत्नान् । मे । अधरान् । अक ॥६.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (तेजसा सह) प्रकाश के साथ (मे) अपने लिये (शिवम्) शिव [मङ्गलकारी परमात्मा] को (प्रति मुञ्चामि) मैं स्वीकार करता हूँ। (असपत्नः) शत्रुरहित, (सपत्नहा) शत्रुनाशक [परमेश्वर] ने (मे) मेरे (सपत्नान्) शत्रुओं को (अधरान्) नीचे (अकः) कर दिया है ॥३०॥

    भावार्थ

    वेद द्वारा परमात्मा के विचार से जिनकी बुद्धि प्रकाशमयी हो जाती है, वे अपने शत्रुओं को नाश करके सुख पाते हैं ॥३०॥

    टिप्पणी

    ३०−(ब्रह्मणा) वेदद्वारा (तेजसा) प्रकाशेन सह (प्रति मुञ्चामि) स्वीकरोमि (मे) मह्यम्। आत्मने (शिवम्) मङ्गलप्रदं परमात्मानम् (असपत्नः) शत्रुनाशकः (सपत्नान्) शत्रून् (मे) मम (अधरान्) नीचान् (अकः) अ० १।८।१। अकार्षीत्। कृतवान् ॥

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    विषय

    ब्रह्मणा तेजसा

    पदार्थ

    १. (तेजसा सह ब्रह्मणा) = तेजस्विता के साथ ज्ञान के हेतु से (मे शिवम्) = मेरे लिए कल्याणकर इस वीर्यमणि को मैं (प्रतिमुञ्चामि) = धारण करता हूँ। यह मणि (असपत्न:) = सपलों [शत्रुओं] से रहित है। इसके धारण करने पर कोई शत्रु हमपर आक्रमण नहीं कर सकता। यह मणि (असपत्न:) = सब शत्रुओं को नष्ट करनेवाली है। यह (मे असपत्न:) = मेरे शत्रुओं को (अधरान् अक:) = पराजित करे-पाँव तले रौंद दे।

    भावार्थ

    शरीर में रक्षित वौर्यमणि हमारे शत्रुओं को नष्ट करके हमें तेजस्विता व ज्ञान प्रास कराती है।

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    भाषार्थ

    (ब्रह्मणा तेजसा) ब्रह्म और उस के तेज के (सह) साथ-साथ (मे) मेरे लिये (शिवम्) शिवरूप, कल्याणरूप [शिव कामना तथा शिवसंकल्प-रूपी] मणि को (प्रति मुञ्चामि) मैं धारण करता हूं। [यह मणि] (असपत्नः) सपत्नों से रहित करती है, (सपत्नहा) सपत्नों का हनन करती है, इसने (सपत्नान्) सपत्नों को (मे) मेरे (अधरान्) नीचे (अकः) कर दिया है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में शिवकामना या शिवसंकल्परूपी मणि का फल दर्शाया है। (१) आसुर विचारों और आसुर कर्मों के क्षय के कारण मुझे ब्रह्म और उस का तेज प्राप्त हुआ है। (२) इसके साथ ही मेरे जीवन में मेरा कोई सपत्न [काम, क्रोध आदि] नहीं रहा। (३) यदि कोई सपत्न अवशिष्ट हैं। तो यह मणि उस का हनन कर देगी। (४) वस्तुतः इस मणि ने मेरे सब सपत्नों को मेरे बश में कर दिया है]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Manibandhana

    Meaning

    With the divine law, with honour, lustre and excellence, I take on and dedicate myself to this peaceful and blessed power and potential, jewel-mani gifted by Brhaspati, power which has no rival, no adversary, which has overthrown all my rivals and adversaries, and which has rendered me free.

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    Translation

    I put on (this blessing) along with knowledge and dignity. May it be propitious to me. Rivalless, destroyer of rivals (asapatnah, sapatnahā), may it put my rivals under me.

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    Translation

    I accept for me this pleasant plant with the prophylactic method and energy and this undiseased and disease-destroying plant cast down my disease-like foes.

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    Translation

    With Vedic Light, I acknowledge for myself God as my Well-wisher, Who is foeless, destroyer of the foe, and has brought my enemies under me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३०−(ब्रह्मणा) वेदद्वारा (तेजसा) प्रकाशेन सह (प्रति मुञ्चामि) स्वीकरोमि (मे) मह्यम्। आत्मने (शिवम्) मङ्गलप्रदं परमात्मानम् (असपत्नः) शत्रुनाशकः (सपत्नान्) शत्रून् (मे) मम (अधरान्) नीचान् (अकः) अ० १।८।१। अकार्षीत्। कृतवान् ॥

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