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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 29
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
    1

    तमि॒मं दे॒वता॑ म॒णिं मह्यं॑ ददतु॒ पुष्ट॑ये। अ॑भि॒भुं क्ष॑त्र॒वर्ध॑नं सपत्न॒दम्भ॑नं म॒णिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । इ॒मम् । दे॒वता॑: । म॒णिम् । मह्य॑म् । द॒द॒तु॒ । पुष्ट॑ये । अ॒भि॒ऽभुम् । क्ष॒त्र॒ऽवर्ध॑नम् । स॒प॒त्न॒ऽदम्भ॑नम् । म॒णिम् ॥६.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमिमं देवता मणिं मह्यं ददतु पुष्टये। अभिभुं क्षत्रवर्धनं सपत्नदम्भनं मणिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । इमम् । देवता: । मणिम् । मह्यम् । ददतु । पुष्टये । अभिऽभुम् । क्षत्रऽवर्धनम् । सपत्नऽदम्भनम् । मणिम् ॥६.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवताः) देवता [विद्वान् जन] (मह्यम्) मुझे (पुष्टये) पुष्टि [वृद्धि] के लिये (तम् इमम्) उस ही (मणिम्) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम], (अभिभुम्) [शत्रुओं को] हरानेवाले, (क्षत्रवर्धनम्) राज्य बढ़ानेवाले, (सपत्नदम्भनम्) वैरियों के दबानेवाले (मणिम्) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] को (ददतु) दान करें ॥२९॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से वैदिक मार्ग पर चल कर सब के पालन-पोषण के लिये राज्य आदि व्यवहार सिद्ध करें ॥२९॥

    टिप्पणी

    २९−(देवताः) विद्वज्जनाः (ददतु) प्रयच्छन्तु (पुष्टये) पालनाय (अभिभुम्) शत्रूणामभिभवितारं पराजेतारम् (क्षत्रवर्धनम्) राज्यवर्धकम् (सपत्नदम्भनम्) शत्रुनाशकम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    'अभिभु-क्षत्रवर्धन'मणि

    पदार्थ

    १. (देवता:) = संसार के सूर्य, चन्द्र आदि देव (मह्यम्) = मेरे लिए (तम् इमम् मणिम्) = इस वीर्यमणि को (पुष्टये ददतु) = पुष्टि के लिए प्राप्त कराएँ। सब बाह्य देवों की अनुकूलता हमारे शरीरों में इस मणि का रक्षण करे। २. उस (मणिम्) = मणि को देव हमें दें जोकि (अभिभूम्) = सब रोगों का अभिभव करनेवाली है, (क्षत्रवर्धनम्) = बल को बढ़ानेवाली है तथा (सपत्नदम्भनम्) 'काम, क्रोध, लोभ' रूप शत्रुओं को हिंसित करनेवाली है।

    भावार्थ

    सूर्य-चन्द्र आदि सब देवों की अनुकूलता हमारे शरीरों में वीर्यमणि का रक्षण करे। यह रोगों को अभिभूत करती है, बल को बढ़ाती है तथा काम, क्रोध, लोभ' रूप शत्रुओं को नष्ट करती है।

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    भाषार्थ

    (देवताः) देव (तम् इमम्) पूर्ववर्णित इस (मणिम्) मणि को (पुष्टये) पुष्टि के लिये (मह्यम्) मुझे (ददतु) देवें, जो कि (मणिम्) मणि (अभिभुम्) पराभव करने वाली है, (क्षत्रवर्धनम्) क्षतियों से त्राण करने की शक्ति की वृद्धि करती है, (सपत्नदम्भनम्) शत्रुओं को दबाने वाली या उन का विनाश करने वाली है।

    टिप्पणी

    [देवताः= प्रकरणानुसार, पूर्व के मन्त्रों में वर्णित "देवेभ्यः” का निर्देश "देवताः" द्वारा हुआ है, या इस का अभिप्राय है दिव्यगुणी महात्मा आदि। मन्त्र में "मणि" का अभिप्राय है, शुभकामना, तथा शुभ संकल्प। इस द्वारा आसुर विचार और कर्मरूपी शत्रुओं का पराभव तथा दमन होता, तथा क्षत्रशक्ति प्राप्त होती है। क्षत्रम् = क्षतात् त्राणम्]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Manibandhana

    Meaning

    May the divinities of nature and brilliancies of humanity give me that jewel power and potential for growth and prosperity which sunpasses the rivals, overcomes the adversaries, defeats the enemies and leads the social order to excellence and advancement, yes, that power, potential, and the order of law for existence.

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    Translation

    May the deities grant me this blessing for my development the overpowering, dominates increasing and rival-killing blessing.

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    Translation

    Let the enlightened persons give that citron plant to me for gaining success and this plant is conqueror of diseases, in-creaser of strength and destroyer of disease-affections.

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    Translation

    May the learned bestow on me to win success, the Vedic Law, which is conquering, strength-increasing and the suppressor of enemies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २९−(देवताः) विद्वज्जनाः (ददतु) प्रयच्छन्तु (पुष्टये) पालनाय (अभिभुम्) शत्रूणामभिभवितारं पराजेतारम् (क्षत्रवर्धनम्) राज्यवर्धकम् (सपत्नदम्भनम्) शत्रुनाशकम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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