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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    आ घा॒ ताग॑च्छा॒नुत्त॑रा यु॒गानि॒ यत्र॑ जा॒मयः॑ कृ॒णव॒न्नजा॑मि। उप॑ बर्बृहि वृष॒भाय॑बा॒हुम॒न्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । घ॒ । ता । ग॒च्छा॒न् । उत्ऽत॑रा । यु॒गानि॑ । यत्र॑ । जा॒मय॑: । कृ॒णव॑न् । अजा॑मि । उप॑ । ब॒र्बृ॒ही॒ । वृ॒ष॒भाय॑ । बा॒हुम् । अ॒न्यम् । इ॒च्छ॒स्व॒ । सु॒ऽभ॒गे॒ । पति॑म् । मत् ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ घा तागच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि। उप बर्बृहि वृषभायबाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । घ । ता । गच्छान् । उत्ऽतरा । युगानि । यत्र । जामय: । कृणवन् । अजामि । उप । बर्बृही । वृषभाय । बाहुम् । अन्यम् । इच्छस्व । सुऽभगे । पतिम् । मत् ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।

    पदार्थ

    (ता) वे (उत्तरा) अगले (युगानि) युग [समय] (घ) निःसन्देह (आ गच्छान्) आवें, (यत्र) जिन में (जामयः) कुलस्त्रियाँ [वा बहिनें] (अजामि) कुलस्त्रियों [वा बहिनों] के अयोग्य काम को (कृणवन्) करने लगें। (वृषभाय) श्रेष्ठ वर के लिये (बाहुम्) [अपनी] भुजा (उपबर्बृहि) आगे बढ़ा, (सुभगे) हे सुभगे ! [बड़े ऐश्वर्य] वाली (मत्) मुझ से (अन्यम्) दूसरे (पतिम्) पति को (इच्छस्व) ढूँढ़ ॥११॥

    भावार्थ

    पुरुष का वचन है। चाहेकुलस्त्रियाँ धर्म छोड़ कर अधर्म करने लगें, मैं अधर्म न करूँगा, तू अपने लियेदूसरा पति वर के गृहस्थ आश्रम कर ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(आ गच्छान्) आगच्छेयुः (घ) निश्चयेन (ता) तानि (उत्तरा) आगामीनि (युगानि) समयविशेषाः (यत्र) येषु युगेषु (जामयः)कुलस्त्रियः। भगिन्यः (कृणवन्) कृवि हिंसाकरणयोः। कुर्युः (अजामि) कुलस्त्रीणांभगिनीनां वा अयोग्यं कर्म (उप) समीपे (बर्बृहि) बृह वृद्धौ यङ्लुकि लोट्। भृशंवर्धय (वृषभाय) श्रेष्ठाय वराय (बाहुम्) स्वभुजम् (अन्यम्) भिन्नपुरुषम् (इच्छस्व) कामयस्व (सुभगे) हे बह्वैश्वर्यवति (पतिम्) भर्तारम् (मत्) मत्तः ॥

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    विषय

    उत्कृष्ट युग

    पदार्थ

    १. यम चाहता है कि (घा) = निश्चय से (ता) = वे (उत्तरा युगानि) = उत्कृष्ट युग-समय (आगच्छान्) = आएँ (यत्र) = जहाँ (जामयः) = बहिनें (अजामि) = [अभ्रातरम्] न भाई को ही, न रिश्तेदार को ही, अर्थात् सुदूर गोत्रवाले को ही (कृणवन्) = पतिरूपेण स्वीकार करें। वस्तुत: सुदूर सम्बन्धों से ही उत्कृष्ट सन्तानों का निर्माण होता है। तभी एक समाज उत्कृष्ट युग में पहुँचता है। २. हे यमि! तू (वृषभाय) = एक शक्तिशाली श्रेष्ठ पुरुष के लिए (बाहुम्) = अपनी भुजा को (उपबर्बहि) = उपबर्हण व तकिया बनानेवाली हो, अर्थात् उस श्रेष्ठ पुरुष के साथ तेरा सम्बन्ध प्रेमपूर्ण हो। हे सुभगे उत्तम भाग्यवाली! (मत् अन्यम्) = मुझसे भिन्न विलक्षण पुरुष को ही (पतिम्) = पति के रूप में (इच्छस्व) = चाहनेवाली हो।

    भावार्थ

    सुदुर सम्बन्ध में ही सौभाग्य व सौन्दर्य है। यह सुदुर सम्बन्ध ही एक राष्ट्र में उत्कृष्ट युग को लाने का कारण बनता है।

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    भाषार्थ

    (घ) निश्चय से (ता) वे (उत्तरा युगानि) अगले युग (आ गच्छान्) आएंगे, (यत्र) जिन में कि (जामयः) स्त्रियाँ (कृण्वन्) वे काम करेंगी, (अजामि) जो कि स्त्रियों को नहीं करने चाहिये। इसलिये हे यमी ! तू किसी (वृषभाय) वीर्यवान, पुरुष के लिये (बाहुम्) अपनी बाहू को, पाणिग्रहण के लिये अपने हाथ को (उपबर्वृहि) पुरुष के हाथ के समीप ऊंचा कर, उद्यत कर। (सुभगे) हे सौभाग्यवती ! (मत् अन्यम्) मुझ से भिन्न को (पतिम् इच्छस्व) पतिरूप में चाह।

    टिप्पणी

    [सत्ययुग या कृतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग-इन का क्रम बन्धा हुआ है। सृष्टि-नियम के अनुसार एक युग के पश्चात् अगला-अगला युग आता रहता है। और युगानुसार विचारों तथा आचरणों में भी परिवर्तन आता रहता है। मन्त्र में कलियुग की ओर निर्देश किया है। युग-परिवर्तन का यह सामान्य नियम है। भूमण्डल की जनता के सामूहिक प्रयत्न, इस सामान्य नियम के अपवाद है। [बर्बृहि = बृह्, उद्यमने ऊंचा करना।] यम भाई होने के कारण असमर्थ है यमी से सन्तानोत्पत्ति करने में। इसलिये वह यमी को प्रेरित करता है कि यमी यम से अन्य किसी वीर्यवान् और श्रेष्ठ पुरुष को पाणिग्रहण द्वारा पतिरूप में स्वीकार करे। इससे यह भावना द्योतित होती है कि विवाहित पति भी यदि अपने आप को सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ पाएं, और पत्नी यदि सन्तान की कामनावाली हो, तो पति अपनी पत्नी को स्वीकृति देवे कि वह अन्य किसी वीर्यवान् श्रेष्ठ पुरुष के द्वारा, उसे पतिरूप में स्वीकार कर, सन्तान प्राप्त कर ले इसीलिये महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ४ के नियोग-प्रकरण में "अन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत्" की व्याख्या में लिखा है कि– "जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे, तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे सुभगे ! सौभाग्य की इच्छा करनेहारी स्त्री! तू मुझ से दूसरे पति की इच्छा कर, क्योंकि अब मुझ से सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी। तब स्त्री दूसरे से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति करे।" ऊपर के मन्त्रों में "जन्युः पतिः" (संख्या ३); तथा "जायेव पत्ये" (संख्या ८) इस उपमा द्वारा यमी, यम के साथ सन्तानोत्पत्ति के लिये केवल तानविक अर्थात् शारीरिक सम्बन्ध चाहती है, जो कि नियोग की विधि का सूचक है। यमी ने मन्त्र (१) द्वारा पहिले तो विवाह का प्रस्ताव किया, परन्तु यम द्वारा यह प्रस्ताव अस्वीकृत होने पर भी उस के सामने नियोग का प्रस्ताव प्रस्तुत करती है। यमी मन्त्र (५) द्वारा एक मातृगर्भ में निवास के कारण, यम और अपने में दाम्पत्यभाव को मानकर उसे पति स्वीकार कर चुकी है। इसलिये एक प्रकार से यम, पतिरूप में, यमी को नियोग की आज्ञा दे रहा है- यह माना जा सकता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Yami, those times would follow long long ages hence when contraries would lie together and co¬ exist without contradictions. Therefore for the time being, O sweet and debonair, extend your hand to someone else other than me, a real virile man.

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    Translation

    Verily there shall come those later ages in which next of kin shall do what is unkinly. Put thine arm underneath a hero; seek, O fortunate one, another husband.

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    Translation

    Sure there will come future times when brothers and sisters will do acts unfit for kinsfolk. O fair one, seek another husband besides me, and extend thine arm for thy consort!

    Footnote

    See Rig, 10-10-10. A time may come when brothers and sisters? will be united in wedlock, but I am not prepared to commit this immoral act.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(आ गच्छान्) आगच्छेयुः (घ) निश्चयेन (ता) तानि (उत्तरा) आगामीनि (युगानि) समयविशेषाः (यत्र) येषु युगेषु (जामयः)कुलस्त्रियः। भगिन्यः (कृणवन्) कृवि हिंसाकरणयोः। कुर्युः (अजामि) कुलस्त्रीणांभगिनीनां वा अयोग्यं कर्म (उप) समीपे (बर्बृहि) बृह वृद्धौ यङ्लुकि लोट्। भृशंवर्धय (वृषभाय) श्रेष्ठाय वराय (बाहुम्) स्वभुजम् (अन्यम्) भिन्नपुरुषम् (इच्छस्व) कामयस्व (सुभगे) हे बह्वैश्वर्यवति (पतिम्) भर्तारम् (मत्) मत्तः ॥

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