अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - भुरिक् त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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न वा उ॑ ते त॒नूंत॒न्वा॒ सं पि॑पृच्यां पा॒पमा॑हु॒र्यः स्वसा॑रं नि॒गच्छा॑त्। असं॑यदे॒तन्मन॑सोहृ॒दो मे॒ भ्राता॒ स्वसुः॒ शय॑ने॒ यच्छयी॑य ॥
स्वर सहित पद पाठन । वै । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । त॒नूम् । त॒न्वा᳡ । सम् । प॒पृ॒च्या॒म् । पा॒पम् । आ॒हु॒: । य: । स्वसा॑रम् । नि॒ऽगच्छा॑त् । अस॑म्ऽयत् । ए॒तत् । मन॑स: । हृ॒द: । मे॒ । भ्राता॑ । स्वसु॑: । शय॑ने । यत् । श॒यी॒य॒ ॥१.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
न वा उ ते तनूंतन्वा सं पिपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात्। असंयदेतन्मनसोहृदो मे भ्राता स्वसुः शयने यच्छयीय ॥
स्वर रहित पद पाठन । वै । ऊं इति । ते । तनूम् । तन्वा । सम् । पपृच्याम् । पापम् । आहु: । य: । स्वसारम् । निऽगच्छात् । असम्ऽयत् । एतत् । मनस: । हृद: । मे । भ्राता । स्वसु: । शयने । यत् । शयीय ॥१.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पदार्थ
(वै उ) कभी भी (तेतनूम्) तेरे शरीर को (तन्वा) [अपने] शरीर से (न) नहीं (सम्) मिलकर (पपृच्याम्)छूऊँगा, [उस मनुष्य को] (पापम्) पापी (आहुः) वे [शिष्ट लोग] कहते हैं, (यः) जो (स्वसारम्) बहिन को (निगच्छात्) नीचपन से प्राप्त करे। (एतत्) यह [बात] (मे)मेरे (मनसः) मन [संकल्प] के और (हृदः) हृदय [निश्चय] के (असंयत्) असंगत है−(यत्)कि (भ्राता) मैं भाई (स्वसुः) बहिन की (शयने) सेज पर (शयीय) सोऊँ ॥१४॥
भावार्थ
यह भी पुरुष का वचनहै। मैं कभी भी तेरे साथ विवाह न करूँगा। बड़े लोग भाई के साथ बहिन का विवाह पापमानते हैं और मैं भी अन्तःकरण से इसे पाप समझता हूँ ॥१४॥इस मन्त्र कापूर्वार्द्ध ऋग्वेद में है−१०।१०।१२ ॥
टिप्पणी
१४−(न) निषेधे (वै उ) कदापि (ते) तव (तनूम्) शरीरम् (तन्वा) स्वशरीरेण (सम्) संगत्य (पपृच्याम्) संपर्चयाम् (पापम्)पापिनं तं पुरुषम् (आहुः) कथयन्ति शिष्टाः (यः) भ्राता (स्वसारम्) भगिनीम् (निगच्छात्) नीचं प्राप्नुयात् (असंयत्) यमु उपरमे-क्विप्। असंगतम् (एतत्) इदंकर्म (मनसः) चित्तस्य। संकल्पस्य (हृदः) हृदयस्य। निश्चयस्य (मे) मम (भ्राता) (स्वसुः) भगिन्याः (शयने) शय्यायाम् (यत्) अर्थबोधने (शयीय) अहं शयनं कुर्याम् ॥
विषय
महान् असंयम्
पदार्थ
१. (वा उ) = निश्चय से (ते तनूम्) = तेरे शरीर का (तन्वा) = अपने शरीर से (न संपपृच्याम्) = नहीं सम्मृक्त करता हूँ। (यः) = जो (स्वसारम) = बहिन को (निगच्छात्) = पतिभाव से प्राप्त होता है-सम्भोग के लिए प्राप्त होता है, उसे (पापं आहुः) = पापी कहते हैं। २. (एतत्) = यह (मे) = मेरे (मनस:) = मन का तथा (हृदः) = हृदय का (असंयत्) = असंयम ही होगा, (यत्) = यदि (भ्राता) = भाई होता हुआ मैं (स्वस:) = बहिन के (शयने) = बिछौने पर (शयीय) = सोऊँ।
भावार्थ
यह बड़ा भारी पाप है तथा असंयम की बात है कि भाई बहिन को पतिभाव से प्राप्त हो।
भाषार्थ
(वै उ) निश्चय ही (तन्वा) अपनी तनू के साथ मैं (ते तनूम्) तेरी तनू का (सं पपृच्यां न) सम्पर्क नहीं करूंगा। (यः) जो (स्वसारम्) बहिन के साथ (नि गच्छात्) संगम करता है, उसे (पापम्) पापी (आहुः) कहते हैं। (मे) मेरे (मनसः) मन के और (हृदः) हृदय के (असंयत्) प्रतिकूल (एतत्) यह है कि (यत्) जो (भ्राता) भाई होकर (स्वसुः) बहिन की (शयने) शय्या में (शयीय) मैं सोऊ [असंयत् = संयमरहित।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
And I would not touch your body with mine. The wise say that for a twin it is sin to meet a sister in conjugality. It is against my mind and heart that a brother should even think of sleeping with a sister.
Translation
Verily, I may not mingle my body with thy body; they call him wicked who should sister. That is not consonant with my mind (and) heart, that I, a brother, should lie in a sister's bed (sayana).
Translation
N/A
Translation
O Yami, I will not fold my arms about thy body: the sages call it sin that a brother should cohabit his sister! This is abhorrent to my mind and spirit, that a brother should sleep on the same couch beside his sister.
Footnote
See Rig, 10-10-12.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(न) निषेधे (वै उ) कदापि (ते) तव (तनूम्) शरीरम् (तन्वा) स्वशरीरेण (सम्) संगत्य (पपृच्याम्) संपर्चयाम् (पापम्)पापिनं तं पुरुषम् (आहुः) कथयन्ति शिष्टाः (यः) भ्राता (स्वसारम्) भगिनीम् (निगच्छात्) नीचं प्राप्नुयात् (असंयत्) यमु उपरमे-क्विप्। असंगतम् (एतत्) इदंकर्म (मनसः) चित्तस्य। संकल्पस्य (हृदः) हृदयस्य। निश्चयस्य (मे) मम (भ्राता) (स्वसुः) भगिन्याः (शयने) शय्यायाम् (यत्) अर्थबोधने (शयीय) अहं शयनं कुर्याम् ॥
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