अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः। अनु॒ सूर्य॑ उ॒षसो॒अनु॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । अ॒ग्नि: । उ॒षसा॑म् । अग्र॑म् । अ॒ख्य॒त् । अनु॑ । अहा॑नि । प्र॒थ॒म: । जा॒तऽवे॑दा: । अनु॑ । सूर्य॑: । उ॒षस॑: । अनु॑ । र॒श्मीन् । अनु॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥१.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः। अनु सूर्य उषसोअनु रश्मीननु द्यावापृथिवी आ विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । अग्नि: । उषसाम् । अग्रम् । अख्यत् । अनु । अहानि । प्रथम: । जातऽवेदा: । अनु । सूर्य: । उषस: । अनु । रश्मीन् । अनु । द्यावापृथिवी इति । आ । विवेश ॥१.२७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अग्निः) सर्वव्यापकपरमेश्वर ने (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) विकाश को (अनु) निरन्तर, [उसी] (प्रथमः)सबसे पहिले वर्तमान (जातवेदाः) उत्पन्न वस्तुओं के ज्ञान करानेवाले परमेश्वर ने (अहानि) दिनों को (अनु) निरन्तर (अख्यत्) प्रसिद्ध किया है। (सूर्यः) [उसी]सूर्य [सब में व्यापक वा सबको चलानेवाले परमेश्वर] ने (उषसः) उषाओं में (अनु)लगातार, (रश्मीन्) व्यापक किरणों में (अनु) लगातार, (द्यावापृथिवी) सूर्य औरपृथिवी में (अनु) लगातार (आविवेश) प्रवेश किया है ॥२७॥
भावार्थ
जिस परमेश्वर नेसूक्ष्म और स्थूल पदार्थों को रचकर सबको अपने वश में कर रक्खा है, वही सबमनुष्यों का उपास्य है ॥२७॥मन्त्र २७, २८ आ चुके हैं-अ० ७।८२।४, ५ ॥मन्त्र २७ काप्रथम पाद ऋग्वेद में है−४।१३।१ ॥
टिप्पणी
२७−मन्त्रौ २७, २८ पूर्वत्र व्याख्यातौ-अ०७।८२।४, ५ ॥
विषय
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार हम अपने निवास को उत्तम बनाने के लिए प्रभु का स्मरण करें कि (अग्नि:) = वह अग्रणी प्रभु (उषसाम् अग्रम्) = उषाकालों के पूर्वभाग को (अनु अख्यत्) = क्रम से प्रकाशित करते हैं। वही (जातवेदः) = सर्वज्ञ व सर्वव्यापक [जातं जातं वेत्ति, जाते जाते विद्यते] (प्रथमः) = सबके आदिमूल प्रभु (अहानि) = दिनों को (अनु) [अख्यत्] = प्रकट करते हैं। २. वे प्रभु ही (सूर्य अनु) = सूर्य को प्रकाशित करते हैं, (उषसः अनु) = उषाकालों को प्रकाशित करते हैं, (रश्मीन्) = सब प्रकाशमय किरणों को (अनु) [अख्यत्] = प्रकाशित करते हैं। वे प्रभु ही (द्यावापृथिवी आविवेश) = द्यावापृथिवी में प्रविष्ट हो रहे हैं। अपने प्रवेश से ही वे इन्हें दीप्त व दृढ़ बनाते हैं।
भावार्थ
प्रभु ही उषाकालों में, दिनों में, सूर्य में व रश्मिमात्र में दीप्त हो रहे हैं, द्यावापृथिवी में प्रविष्ट होकर प्रभु ही इन्हें दीप्त व दृढ़ बना रहे हैं।
भाषार्थ
(प्रथमः) अनादि, (जातवेदाः) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में विद्यमान, प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ का ज्ञाता, वेद प्रदाता (अग्निः) ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर कभी तो उपासक को (उषसाम्) उषाकालों के (अग्रम् अनु) प्रारम्भ के पश्चात् (अख्यत्) प्रत्यक्ष हो जाता है, कभी (अहानि अनु) दिनों के समाप्ति काल में प्रत्यक्ष हो जाता है। (सूर्यः) सूर्यो का सूर्य वह कभी (उषसः अनु) उषाकाल के पश्चात्, और कभी (रश्मीन् अनु) रश्मियों की केवल चमक के पश्चात् प्रकट हो जाता है। वह (द्यावापृथिवी अनु) द्यूलोक और भूलोक में निरन्तर (आ विवेश) व्याप्त है।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि परमेश्वर की भक्ति में सदा निरत रहना चाहिये, कुछ पता नहीं कि वह कब दर्शन दे दे।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Agni, cosmic light of existence, all pervasive, first presence, self-manifestive, omniscient of all forms, potential and actual, one with the sun, exists in advance of the dawns and days, and pervades the stars, the dawns, the radiating rays and the earth and heaven (as they come into existence).
Subject
Agni
Translation
Agni hath looked after the apex of the dawns, after the days, (he) first, Jatavedas; a sun, after the dawns, after the rays; after heaven-and earth he entered
Translation
N/A
Translation
The All-Pervading God hath incessantly created the vast Dawns. The Primordial; Knowledge-bestowing God hath uninterruptedly brought the days into existence. The same All-impelling God, hath pervaded the earth and heaven, after the Dawns, after their rays of brightness.
Footnote
See Atharva, 7-82-4. See Rig 4-13-1.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२७−मन्त्रौ २७, २८ पूर्वत्र व्याख्यातौ-अ०७।८२।४, ५ ॥
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