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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 47
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    मात॑लीक॒व्यैर्य॒मो अङ्गि॑रोभि॒र्बृह॒स्पति॒रृक्व॑भिर्वावृधा॒नः। यांश्च॑ दे॒वावा॑वृ॒धुर्ये च॑ दे॒वांस्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मात॑ली । क॒व्यै । य॒म: । अङ्गि॑र:ऽभि: । बृह॒स्पति॑: । ऋक्व॑ऽभि: । व॒वृ॒धा॒न: । यान् । च॒ । दे॒वा: । व॒वृ॒धु: । ये । च॒ । दे॒वान् । ते । न॒: । अ॒व॒न्तु॒ । पि॒तर॑: । हवे॑षु ॥१.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मातलीकव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिरृक्वभिर्वावृधानः। यांश्च देवावावृधुर्ये च देवांस्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मातली । कव्यै । यम: । अङ्गिर:ऽभि: । बृहस्पति: । ऋक्वऽभि: । ववृधान: । यान् । च । देवा: । ववृधु: । ये । च । देवान् । ते । न: । अवन्तु । पितर: । हवेषु ॥१.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 47
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    हिन्दी (3)

    विषय

    पितरों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (मातली) ऐश्वर्य सिद्धकरनेवाला, (यमः) संयमी और (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं का रक्षक पुरुष] (कव्यैः) बुद्धिमानों के हितकारी (अङ्गिरोभिः) विज्ञानी महर्षियों द्वारा (ऋक्वभिः) बड़ाईवाले कामों से (वावृधानः) बढ़नेवाला होता है। (च) और (यान्) जिन [पितरों] को (देवाः) विद्वानों ने (वावृधुः) बढ़ाया है, (च) और (ये) जिन [पितरों]ने (देवान्) विद्वानों को [बढ़ाया है], (ते) वे (पितरः) पितर [पालन करनेवाले]लोग (नः) हमें (हवेषु) संग्रामों में (अवन्तु) बचावें ॥४७॥

    भावार्थ

    ऐश्वर्य चाहनेवालाजितेन्द्रिय पुरुष बड़े-बड़े विद्वानों के उपदेश और वेदादि शास्त्रों के मनन सेउन्नति करके संसार की रक्षा करें ॥४७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१४।३। और ऋग्वेद पाठ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण मेंउद्धृत है ॥

    टिप्पणी

    ४७−(मातली) अ० ८।९।५। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। मा+तलप्रतिष्ठायाम्-इन्। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। मां लक्ष्मीं तालयतिस्थापयतीतीति मातलिः (कव्यैः) कविभ्यो हितैः (यमः) संयमी पुरुषः (अङ्गिरोभिः) अ०२।१२।४। अङ्गतेरसिरिरुडागमश्च। उ० ४।२३६। अगि गतौ-असि, इरुडागमश्च विज्ञानिभिः।महर्षिभिः (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालको जनः (ऋक्वभिः) ऋचस्तुतौ-क्विप्। छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। वा० पा० ५।२।१०२। मत्वर्थे वनिप्, छान्दसं कुत्वम्। स्तुतिमद्भिः कर्मभिः (ववृधानः) वर्धमानः (यान्) पितॄन् (च) (देवाः) विद्वांसः (ववृधुः) वर्धितवन्तः (ये) पितरः (च) (देवान्) विदुषःपुरुषान्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४४ ॥

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    विषय

    मातली-यम-बृहस्पति

    पदार्थ

    १. [मा लक्ष्मी तालयति-तल प्रतिष्ठायाम्] 'मातलि' बुद्धि है। बुद्धिवाला होने से इन्द्र "मातली' [मातलि+ई] कहलाता है। यह (मातली) = समझदार, बुद्धिमान् पुरुष (कव्यैः) = पितरों को-वृद्ध माता-पिता को दिये जानेवाले अन्नों से (वावृधानः) = धर्ममार्ग पर खूब बढ़नेवाला होता है। एक समझदार व्यक्ति माता-पिता को श्रद्धा व आदर से भोजन कराके, बाद में स्वयं भोजन करता है। इस माता-पिता के श्राद्ध को ही वह प्रत्यक्ष धर्म मानता है। इस सेवा से ही वह 'आयु, विद्या, यश बबल' में वावृधान होता है। २. (यमः) = संयमी पुरुष (ङ्गिरोभिः) = अङ्ग प्रत्यङ्ग में रस से वावृधान होता है। संयम इसकी शक्तियों की वृद्धि व स्थिरता का कारण बनता है। (बृहस्पतिः) -=उत्कृष्ट वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाला यह (ब्रह्मणस्पतिः) = बृहस्पति (ऋक्वभिः) = विज्ञानों के द्वारा बढ़नेवाला होता है। यह विज्ञान के द्वारा उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचनेवाला होता है। २. ये वे व्यक्ति हैं (ये) = जो (च) = निश्चय से (देवान् वावृधुः) = यज्ञों द्वारा देवों का वर्धन करते हैं, (यान् च) = और जिनको (देवा: वावृधुः) = वृष्टि आदि द्वारा देव बढ़ानेवाले होते हैं। (ते) = वे देवों को यज्ञों द्वारा प्रीणित करनेवाले (पितर:) = पितर (न:) = हमें (हवेषु) = हमारी पुकारों के होने पर (अवन्तु) = रक्षित व प्रीणित करनेवाले हों।

    भावार्थ

    हम समझदार बनकर माता-पिता को श्रद्धा से भोजनादि प्राप्त कराएँ, संयमी बनकर अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाले हों, बृहस्पति बनकर विज्ञानों को प्राप्त करें। हम यज्ञों द्वारा देवों का वर्धन करें। अपने पितरों के प्रिय हों।

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    भाषार्थ

    (कव्यैः) वेदकाव्य के कवि परमेश्वर के उपासकों समेत (मातली) मातृरूप परमेश्वर में लीन होनेवाला योगेश्वर; (अङ्गिरोभिः) प्राणायामाभ्यासी शिष्यों समेत (यमः) यम-नियमों में सिद्ध संयमी; (ऋक्वभिः) ऋचाओं का स्वाध्याय करनेवाले शिष्यों समेत (बृहस्पतिः) बृहती = वेदवाणी का आचार्य; (वावृधानः) इन में से प्रत्येक, जो कि अपने शिष्यवर्ग की वृद्धि करता है, उन-उन विषयों की दृष्टि से उन्हें बढ़ाता है; तथा (देवाः) देवकोटि के प्रजाजन (यान्) जिन इन उपर्युक्त साधकों को बढ़ाते; (च) और (ये) जो ये साधक (देवान्) प्रजाजनों में देवकोटि के लोगों की वृद्धि निज सदुपदेशों द्वारा करते हैं, - (ते) वे ऐसे (पितरः) पितर (हवेषु) हमारे निमन्त्रणों पर (नः) हमें (भवन्तु) प्राप्त हों, और सदुपदेशों द्वारा हमारी रक्षा करें।

    टिप्पणी

    [अङ्गिराः = प्राणः, "अङ्गानां रसः" (बृहदारण्यक० १।३९। ३)। बृहस्पतिः= बृहती = वाक्, तस्याः पतिः। कवि= परमेश्वरः - "कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः" (यजु० ४०।८)। मातली = मातरि जगन्मातरि लीयते इति, विभक्तिलोपः छान्दसः। "मातली" शब्द पर निम्नलिखित मन्त्र विशेष प्रकाश डालते हैं । यथा- १. मा॒या ह॑ जज्ञे मा॒याया॑ मा॒याया॒ मात॑ली॒ परि॑। (अथर्व० ८।९।५)। (माया) अर्थात् प्रज्ञा। निघं० ३।९ (मायायाः) अर्थात् प्रज्ञान ब्रह्म की प्रज्ञा से (जज्ञे) प्रकट हुई। और इस प्रकट हुई (मायायाः परि) प्रज्ञा से (मातली) मातली प्रकट हुआ। अभिप्राय यह कि योगी की प्रज्ञा, प्रज्ञानमय ब्रह्म के अनुग्रह से प्रकट होती है। और यौगिक प्रज्ञा से जगन्माता में लीन होनेवाला योगेश्वर प्रकट होता है। २. यन्मात॑ली रथक्री॒तम॒मृतं॒ वेद॑ भेष॒जम्। तदिन्द्रो॑ अ॒प्सु प्रावे॑शय॒त्तदा॑पो दत्त भेष॒जम् ॥ (अथर्व० ११।६।२३) (मातली) मातली ने (यत्) जिस (अमृतम्) अमर ब्रह्म को (रथक्रीतम्) अपने शरीर-रथ और मनोरथ के मूल्य द्वारा खरीदा, उसे मातली ने (भेषजम्) भेषजरूप (वेद) जाना। (इन्द्रः) तदनन्तर प्रबुद्ध जीवात्मा ने (तत्) उस भेषज को (अप्सु) अपने रस-रक्त और कर्मों में (प्रावेशयत्) प्रविष्ट कर दिया। (आपः) तदनन्तर कर्मों ने (तद्) वह (भेषजम्) भेषज (दत्त) अन्यों को भी प्रदान किया। इस मन्त्र द्वारा भी "मातली" जगन्माता में ध्यानप्रकर्ष द्वारा लीन योगी ही प्रतीत होता है। योगाभ्यासी जब अपनी शारीरिक चेष्टाओं और मानसिक संकल्प-विकल्पों को परमेश्वर के प्रति भेंटरूप में चढ़ा देता है, तब वह परमेश्वर के भेषजरूप को जान पाता है। इस भेषज द्वारा उस के सब अन्तराय और अविद्यारूपी रोग नष्ट होने लगते हैं। योगी इस भेषज को अपने जीवन के साधनभूत रस-रक्त में तथा कर्मों में प्रविष्ट कर, अपने रस-रक्त और कर्मों के रोगों की निवृत्ति करता है। तत्पश्चात् निज कर्मों द्वारा उस भेषज का ज्ञान अन्यों को भी देता है। [आपः; अपः= उदकम् (निघं० १।१२); तथा कर्म (निघं० २।१)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    May Matali, master creator of knowledge and power with wise experts of Vedic science, Yama, the yogi with vibrant pranic energies, Brhaspati, eminent scholar with all round versatility rising with the application of Rk verses, those whose natural knowledge of life and environment has raised them to eminence, and those who advance natural knowledge and extend the work of earlier dedicated scholars, may all these parental seniors protect and promote us in the serious struggles we face for the advancement of life and knowledge.

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    Subject

    Yama

    Translation

    Matali with the kavas, Yama with the Angirases, Brhaspati increasing with the rkvans (praisers); both they whom the gods increased and who (increased) the gods - let those Fathers aid us at our calls. [Rg X.14.3.var]

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    Translation

    An aspirant after knowledge prospers through learned teachers, an ascetic prospers through learned sages a guardian of Vedic knowledge prospers through Vedic scholars. Those whom the learned exalt, they who exalt the learned, may such elders aid us in battles and sacrifices (Yajnas).

    Footnote

    See Rig 10-14-3. Griffith translates Matali: a divine being identified with Indra whose charioteer was Matali. Kavyas: he translates as a class of Manes, the spirits of a pious race of ancient time. He translates Angirases as the typical first charioteers. He translates Rikvans has a class of spirits or deities who attend Brihaspati, and sing his praises. These explanations are unacceptable as they refer to history, but the Vedas arc free from history.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४७−(मातली) अ० ८।९।५। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। मा+तलप्रतिष्ठायाम्-इन्। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। मां लक्ष्मीं तालयतिस्थापयतीतीति मातलिः (कव्यैः) कविभ्यो हितैः (यमः) संयमी पुरुषः (अङ्गिरोभिः) अ०२।१२।४। अङ्गतेरसिरिरुडागमश्च। उ० ४।२३६। अगि गतौ-असि, इरुडागमश्च विज्ञानिभिः।महर्षिभिः (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालको जनः (ऋक्वभिः) ऋचस्तुतौ-क्विप्। छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। वा० पा० ५।२।१०२। मत्वर्थे वनिप्, छान्दसं कुत्वम्। स्तुतिमद्भिः कर्मभिः (ववृधानः) वर्धमानः (यान्) पितॄन् (च) (देवाः) विद्वांसः (ववृधुः) वर्धितवन्तः (ये) पितरः (च) (देवान्) विदुषःपुरुषान्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४४ ॥

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