अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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अ॒न्यमू॒ षुय॑म्य॒न्य उ॒ त्वां परि॑ ष्वजातै॒ लिबु॑जेव वृ॒क्षम्। तस्य॑ वा॒ त्वं मन॑ इच्छा॒स वा॒ तवाधा॑ कृणुष्व संविदं॒ सुभ॑द्राम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्यम् । ऊं॒ इति॑ । सु । य॒मि॒ । अ॒न्य: । ऊं॒ इति॑ । त्वाम् । परि॑ । स्व॒जा॒तै॒ । लिबु॑जाऽइव । वृ॒क्षम् । तस्य॑ । वा॒ । त्वम् । मन॑: । इ॒च्छ । स: । वा॒ । तव॑ । अध॑ । कृ॒णु॒ष्व॒ । स॒म्ऽविद॑म् । सुऽभ॑द्राम् ॥१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्यमू षुयम्यन्य उ त्वां परि ष्वजातै लिबुजेव वृक्षम्। तस्य वा त्वं मन इच्छास वा तवाधा कृणुष्व संविदं सुभद्राम् ॥
स्वर रहित पद पाठअन्यम् । ऊं इति । सु । यमि । अन्य: । ऊं इति । त्वाम् । परि । स्वजातै । लिबुजाऽइव । वृक्षम् । तस्य । वा । त्वम् । मन: । इच्छ । स: । वा । तव । अध । कृणुष्व । सम्ऽविदम् । सुऽभद्राम् ॥१.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पदार्थ
(यमि) हे यमी ! [जोड़िया बहिन] तू (अन्यम्) दूसरे पुरुष से (सु उ) अच्छे प्रकार [मिल], (उ) और (अन्यः) दूसरा पुरुष (त्वाम्) तुझ से (परि ष्वजातै) मिले, (लिबुजा इव) जैसे बेल [लता] (वृक्षम्) वृक्ष से। (वा) और (त्वम्) तू (तस्य) उसके (मनः) मन को (इच्छ)चाह, (वा) और (सः) वह (तव) तेरे [मन को चाहे], (अध) फिर तू (सुभद्राम्) बड़ेमङ्गलयुक्त (संविदम्) संगति (कृणुष्व) कर ॥१६॥
भावार्थ
पुरुष का अन्तिम वचनहै। हे बहिन ! तू प्रसन्न होकर दूसरे योग्य वर से विवाह कर ले। तुम दोनों परस्परप्रीति बढ़ाकर आनन्द भोगो ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(अन्यम्) भिन्नपुरुषम्-परिष्वजेति शेषः (उ) एव (सु) सुष्ठु (यमि) म० ८। हे यमजे भगिनि (अन्यः) इतरः पुरुषः (उ) (त्वाम्) (परिष्वजातै) आलिङ्गेत् (लिबुजा) अ० ६।८।१। लता (इव) यथा) (वृक्षम्) (तस्य)वरस्य (वा) समुच्चये। च (त्वम्) (मनः) चित्तम् (इच्छ) कामयस्व (सः) वरः (वा) च (तव) (अध) अथ। अनन्तरम् (कृणुष्व) कुरु (संविदम्) संगतिम् (सुभद्राम्)अत्यन्तमङ्गलप्रदाम् ॥
विषय
'सुभद्रां सवित्'
पदार्थ
१. यम भी बहिन के लिए मंगलकामना करता हुआ कहता है कि हे (यमि) = संयत जीवनबाली! (त्वम्) = तू (उ) = निश्चय से (अन्यम्) = अपने से विलक्षण रुधिरादि धातुओंवाले पुरुष को ही (सुपरिष्वजातै) = सम्यक् आलिंगन करे। उसीप्रकार (इव) = जैसेकि (लिबुजा) = बेल (वृक्षं) = वृक्ष को आलिंगित करती है। २. (त्वम्) = तू (तस्य मन:) = उसके मन को (वा) = निश्चय से (इच्छा) = चाहनेवाली बन। (वा स तव) = और वह भी तेरे मन को चाहनेवाला हो। तुम्हारा परस्पर प्रेम हो, तुम एक दूसरे के भावों को आदृत करनेवाले होओ, तुम्हारा परस्पर ऐकमत्य हो। (अधा) = अब (सुभद्रां संविदम्) = कल्याणी बुद्धि को [Understanding] परस्पर ऐक्यमतिता को [agreement] (कृणुष्व) = तु करनेवाली हो। तुम्हारे घर में शुभविचार व सामञ्जस्य बना रहे।
भावार्थ
पति पत्नी का परस्पर प्रेम हो। घर में सदा 'सुभद्रा संवित्' बनी रहे।
भाषार्थ
(यमि) हे यमी ! (च) निश्चय से (अन्यम्) दूसरे पुरुष को तू, (उ) और निश्चय से (अन्यः) दूसरा पुरुष (त्वाम्) तुझे (सु परिष्वजातै) अच्छी तरह आलिङ्गन करेगा, (इव) जैसे कि (लिबुजा) बेल या लता (वृक्षम्) वृक्ष का आलिङ्गन करती है। (तस्य) उस पुरुष के (मनः) मन को (त्वं वा इच्छ) या तू चाह, (वा) या वह (तव) तेरे मन को चाहे (अधा) तदनन्तर तू (सुभद्राम्) सुखदायी और कल्याणकारी (संविदम्) सहानुभूति वा ऐकमत्य उस के साथ (कृणुष्व) प्रकट कर।
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Yama: O Yami, you too find some other partner. Some other may embrace you, and you too embrace him like a creeper embracing the tree. Love you the other man heart and soul, and may he too love you heart and soul. Thus may you create and achieve a happy union in love and good fortune.
Translation
Another man, truly, O Yami, another man shall embrace thee, as twining plant a tree; either do thou seek his mind or he thine; then make for thyself very excellent concord.
Translation
N/A
Translation
O Yami, embrace another person. Let some one else embrace thee, as the woodbine clings round a tree! Win thou his heart and let him win thy fancy; so make with him a bond of blest alliance.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(अन्यम्) भिन्नपुरुषम्-परिष्वजेति शेषः (उ) एव (सु) सुष्ठु (यमि) म० ८। हे यमजे भगिनि (अन्यः) इतरः पुरुषः (उ) (त्वाम्) (परिष्वजातै) आलिङ्गेत् (लिबुजा) अ० ६।८।१। लता (इव) यथा) (वृक्षम्) (तस्य)वरस्य (वा) समुच्चये। च (त्वम्) (मनः) चित्तम् (इच्छ) कामयस्व (सः) वरः (वा) च (तव) (अध) अथ। अनन्तरम् (कृणुष्व) कुरु (संविदम्) संगतिम् (सुभद्राम्)अत्यन्तमङ्गलप्रदाम् ॥
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