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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 34
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    दु॒र्मन्त्वत्रा॒मृत॑स्य॒ नाम॒ सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भवा॑ति। य॒मस्य॒ योम॒नव॑ते सु॒मन्त्व॑ग्ने॒ तमृ॑ष्व पा॒ह्यप्र॑युच्छन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒:ऽमन्तु॑ । अत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । नाम॑ । सऽल॑क्ष्मा । यत् । विषु॑ऽरूपा । भवा॑ति । य॒मस्य॑ । य: । म॒नव॑ते । सु॒ऽमन्तु॑ । अग्ने॑ । तम् । ऋ॒ष्व॒ । पा॒हि॒ । अप्र॑ऽयुच्छन् ॥१.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुर्मन्त्वत्रामृतस्य नाम सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति। यमस्य योमनवते सुमन्त्वग्ने तमृष्व पाह्यप्रयुच्छन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दु:ऽमन्तु । अत्र । अमृतस्य । नाम । सऽलक्ष्मा । यत् । विषुऽरूपा । भवाति । यमस्य । य: । मनवते । सुऽमन्तु । अग्ने । तम् । ऋष्व । पाहि । अप्रऽयुच्छन् ॥१.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 34
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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अत्र) यहाँ [संसारमें] (अमृतस्य) अमर [अविनाशी परमात्मा] का (नाम) नाम (दुर्मन्तु) दुर्माननीय [सर्वथा अपूजनीय] [होवे], (यत्) यदि (सलक्ष्मा) एकसे लक्षणवाली [धर्मव्यवस्था] (विषुरूपा) नाना स्वभाववाली [चंचल, अधार्मिक] (भवाति) हो जावे। (यः) जो कोई [मनुष्य] (यमस्य) [तुझ] न्यायकारी परमेश्वर के [नाम को] (सुमन्तु) बड़ा माननीय (मनवते) मानता है, (अग्ने) हे ज्ञानमय ! (ऋष्व) हे महान् परमेश्वर ! (तम्) उसको (अप्रयुच्छन्) बिना चूके हुए (पाहि) पाल ॥३४॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा अन्यायकरे तो सब संसार उलट-पलट हो जावे। जो कोई मनुष्य उसकी न्यायव्यवस्था पर चलते हैं, वे सुख पाते हैं ॥३४॥इस मन्त्र का दूसरा पाद मन्त्र २ में आया है॥

    टिप्पणी

    ३४−(दुर्मन्तु) कमिमनिजनि०। उ० १।७३। मन पूजायाम्-तु, दुर्माननीयम्। नकदापिसत्करणीयम् (अत्र) संसारे (अमृतस्य) अविनाशिनः परमेश्वरस्य (नाम) नामधेयम् (सलक्ष्मा) समानलक्षणा धर्मव्यवस्था (यत्) यदि (विषुरूपा) नानास्वभावा। चञ्चला।अधार्मिका (भवाति) भवेत् (यमस्य) न्यायकारिणः परमेश्वरस्य, नाम-इत्यस्यानुवृत्तिः (यः) कश्चित् पुरुषः (मनवते) मनुते। जानाति (सुमन्तु)सुमाननीयम् (अग्ने) हे ज्ञानमय परमेश्वर (तम्) पुरुषम् (ऋष्व)सर्वनिघृष्वरिष्व०। उ० १।१५३। महन्नाम-निघ० ३।३। हे महन् परमेश्वर (पाहि) पालय (अप्रयुच्छन्) अप्रमाद्यन् ॥

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    विषय

    नाम-स्मरण की दुष्करता

    पदार्थ

    १. प्रभु को भूल गये तो प्रभु को क्या प्राप्त करेंगे, अत: प्रभु-स्मरण आवश्यक है। यह बात भी ठीक है कि (अत्र) = यहाँ-इस संसार में (अमृतस्य नाम) = अविनाशी प्रभु का नाम (दुर्मन्तु) = स्मरण करना कठिन है, (यत्) = क्योंकि (सलक्ष्मा) = यह उत्तम लक्षणोंवाली [लक्ष्मभिः सहिता] प्रकृति (विषुरूपा भवाति) = विविध सुन्दर रूपोंवाली होती है। यह हिरण्मयी प्रकृति हमारे ध्यान को आकृष्ट करके हमें प्रभु से दूर ले-जाती है। २. (य:) = जो मनुष्य (यमस्य) = उस नियन्ता प्रभु के (सुमन्तु) = उत्तम मननयोग्य नाम का (मनवते) = मनन करता है, (अग्ने) = हे अग्रणी! (ऋष्व) = दर्शनीय व जानने योग्य प्रभो! (तम्) = उस नामस्मरण करनेवाले को (अप्रयुच्छन्) = प्रमादरहित होते हुए आप (पाहि) = रक्षित करते हो। यह स्तोता अवश्य आपकी रक्षा का पात्र होता है।

    भावार्थ

    प्रकृति की चमक के कारण यहाँ-इस संसार में मनुष्य प्रभु को भूल जाता है, प्रभु-नामस्मरण से दूर हो जाता है, परन्तु जब भी हम उस प्रभु के नाम का स्मरण कर पाते हैं तब प्रभु के द्वारा रक्षणीय होते हैं।

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    भाषार्थ

    (अत्र) इस जीवन में (अमृतस्य) अमर परमात्मा का (नाम) ओ३म् नाम, मनन किया भी (दुर्मन्तु) दुर्मनन हो जाता है, (यद्) जब कि (सलक्ष्मा) समान लक्षणोंवाली चितिशक्ति (विषुरुपा) विभिन्न लक्षणोंवाली (भवाति) हो जाती है। (यः) जो मनुष्य (यमस्य) अमर नियन्ता के "ओ३म्" नाम का (मनवते) सलक्ष्म होकर मनन करता है, उस का मनन (सुमन्तु) सुमनन होता है। (ऋष्व) हे महान् (अग्ने) ज्योतिर्मय परमात्मन् ! (तम्) ऐसे मननकर्ता की आप (अप्रयुच्छन्) लगातार सदा (पाहि) रक्षा कीजिये।

    टिप्पणी

    [सलक्ष्मा = चितिशक्ति अर्थात् जीवात्मा, परमात्मा के सदृश लक्षणोंवाला है। दोनों आत्मरूप हैं, दोनों चिद्रूप हैं, दोनों नित्य सद्रूप हैं। दोनों साथ-साथ रहनेवाले सखा हैं = सयुजा सखाया। परन्तु अज्ञानवश जब चितिशक्ति अर्थात् जीवात्मा अपने आप को देहरूप या मनरूप समझकर देहादि के पालन में रत हो जाता है, या मानसिक संकल्प-विकल्पों को निज ध्येय समझ लेता है, तब यह चितिशक्ति "विषुरूपा" हो जाती है। विषुरूपा में “ओ३म्” का मनन वास्तविक मनन नहीं होता। यह किया मनन भी वास्तव में दुर्मनन ही रहता है। इसलिये "सलक्ष्म" होकर "ओ३म्” नाम का मनन करना ही सुमनन है। ऋष्व= महन्नाम (निघं० ३।३)। अप्रयुच्छन् = विना प्रमाद के।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Incomprehensible is this mystery of immortal Agni and its power, for sure, since arising from the same one source and homogeneous, it grows to boundless variety of forms which, nevertheless, for the man who knows the One Supreme Agni, ordainer and controller of this existential variety, is simple and clearly understandable. This man, O lord great and gracious, protect and promote without relent.

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    Translation

    Hard to reverence here is the name of the immortal, that she of like sign should become of diverse form: whoso shall reverence, him O Agni, exalted one, do thou protect unremitting. [Also Rg X.I2.6]

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    Translation

    In this world it is hard to understand the nature of soul, as the same uniform soul assumes different forms. O Great God, guard ceaselessly, him who ponders over Thy attributes easy to be comprehended.

    Footnote

    See Rig, 10-12-6

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३४−(दुर्मन्तु) कमिमनिजनि०। उ० १।७३। मन पूजायाम्-तु, दुर्माननीयम्। नकदापिसत्करणीयम् (अत्र) संसारे (अमृतस्य) अविनाशिनः परमेश्वरस्य (नाम) नामधेयम् (सलक्ष्मा) समानलक्षणा धर्मव्यवस्था (यत्) यदि (विषुरूपा) नानास्वभावा। चञ्चला।अधार्मिका (भवाति) भवेत् (यमस्य) न्यायकारिणः परमेश्वरस्य, नाम-इत्यस्यानुवृत्तिः (यः) कश्चित् पुरुषः (मनवते) मनुते। जानाति (सुमन्तु)सुमाननीयम् (अग्ने) हे ज्ञानमय परमेश्वर (तम्) पुरुषम् (ऋष्व)सर्वनिघृष्वरिष्व०। उ० १।१५३। महन्नाम-निघ० ३।३। हे महन् परमेश्वर (पाहि) पालय (अप्रयुच्छन्) अप्रमाद्यन् ॥

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