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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 53
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    त्वष्टा॑दुहि॒त्रे व॑ह॒तुं कृ॑णोति॒ तेने॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ समे॑ति। य॒मस्य॑ मा॒ताप॑र्यु॒ह्यमा॑ना म॒हो जा॒या विव॑स्वतो ननाश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वष्टा॑ । दु॒हि॒त्रे । व॒ह॒तुम् । कृ॒णो॒ति॒ । तेन॑ । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । सम् । ए॒ति॒ । य॒मस्य॑ । मा॒ता । प॒रि॒ऽउ॒ह्यमा॑ना । म॒ह: । जा॒या । विव॑स्वत: । न॒ना॒श॒ ॥१.५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वष्टादुहित्रे वहतुं कृणोति तेनेदं विश्वं भुवनं समेति। यमस्य मातापर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वष्टा । दुहित्रे । वहतुम् । कृणोति । तेन । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । सम् । एति । यमस्य । माता । परिऽउह्यमाना । मह: । जाया । विवस्वत: । ननाश ॥१.५३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 53
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अज्ञान के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्वष्टा) त्वष्टा [प्रकाशमान सूर्य] (दुहित्रे) दुहिता [पूर्ति करनेवाली उषा] का (वहतुम्) चलाना (कृणोति) करता है, (तेन) उस [चलने] के साथ (इदम्) यह (विश्वम्) सब (भुवनम्) जगत् (सम्) ठीक-ठीक (एति) चलता है। (यमस्य) यम [दिन] की (माता) माता [बनानेवाली], (महः) बड़े (विवस्वतः) प्रकाशमान सूर्य की (जाया) पत्नी रूप [रात्रि] (पर्युह्यमाना) सब ओर हटायी गयी (ननाश) छिप जाती है ॥५३॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य उषाअर्थात् प्रभातकिरणों को फैलाता जाता है, सब जगत् अपने-अपने कामों में चेष्टाकरता है, और जैसे-जैसे दिन चढ़ता जाता है, रात्रि का अन्धकार हटता जाता है, इसीप्रकार ज्ञानी पितर लोग अज्ञान हटाकर ज्ञान के प्रकाश से संसार को सुख पहुँचावें॥५३॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१७।१ ॥भगवान् यास्क मुनि ने निरुक्त१२।११ में व्याख्या की है−“त्वष्टा दुहिता का वहन [चलाना] करता है, यह सब भुवनठीक-ठीक चलता है और यह सब प्राणी सब ओर से आकर मिलते हैं, यम की माता सब ओर कोले जायी गयी छिप गयी। रात्रि सूर्य की [पत्नी] सूर्य के उदय होने पर छिप जातीहै” ॥

    टिप्पणी

    ५३−(त्वष्टा) प्रकाशमानः सूर्यः (दुहित्रे) षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। दुहितुः।प्रपूरयित्र्या उषसः (वहतुम्) वहनम्। चालनम्। (कृणोति) करोति (तेन) पूर्वोक्तेनकर्मणा गमनेन (इदम्) विश्वम् सर्वम् (भुवनम्) जगत् (सम्) सम्यक् (एति) गच्छति।चेष्टते (यमस्य) दिनस्य (माता) निर्मात्री। रात्रिः (पर्युह्यमाना) प्रकाशेनपर्य्युत्सार्यमाणा (महः) महतः (जाया) पत्नीरूपा रात्रिः (विवस्वतः)प्रकाशमानस्य सूर्यस्य (ननाश) लडर्थे-लिट्। नश्यति। अदृष्टा भवति ॥

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    विषय

    त्वष्टा की दुहिता का परिणय

    पदार्थ

    १. (त्वष्टा) = संसार के निर्माता व सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले [त्वक्षतेर्वा स्याद् गतिकर्मण:] तथा दीतिमय [विष्णोर्वा स्याद् दीतिकर्मण:] प्रभु अपनी (दुहित्रे) = वेदवाणीरूप दुहिता [मानव जीवन का प्रपूरण करनेवाली] के लिए (वहुतं कृणोति) = विवाह को रचते हैं। (तेन) = इस विवाह के हेतु से (इदं विश्वं भुवनम्) = यह सारा भुवन उपस्थित [संगत] होता है। वस्तुत: इस वेदवाणी का विवाह सब चाहनेवाले मनुष्यों के साथ होता है। जो वेदवाणी को चाहते हैं, उन्हें यह प्राप्त होती है 'काम्यो हि वेदाधिगमः । २. यह (पर्युह्यमाना) = परिणीत होती हुई वेदवाणी (यमस्य माता) = एक संयत जीवनवाले पुरुष का निर्माण करती है। वेदवाणी के साथ हम अपना सम्बन्ध स्थापित करेंगे तो यह हमारे जीवन को अवश्य उत्कृष्ट बनाएगी। यह वेदवाणी (महः) = तेजस्वी (विवस्वत:) = ज्ञान की किरणोंवाले [ज्ञानी] पुरुष की जाया-जन्म देनेवाली है। [तद्धि जायाया जायात्वं यदस्यां जायते पुनः] । इस वेदवाणी में जन्म लेकर यह द्विज बन जाता है। इसप्रकार यह (ननाश) = [नश् to reach, attain, meet with, find] उस प्रभु के साथ मिलानेवाली होती है। वेदवाणी को जीवन का अंग बनाते हुए हम प्रभु को पाते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु अपनी वेदवाणीरूप दुहिता को हमें साथी के रूप में देते हैं। यह साथी हमें 'बड़े संयत जीवनवाला, तेजस्वी व ज्ञानी' बनाता है। ऐसा बनकर हम प्रभु को पाने के अधिकारी बनते हैं।

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    भाषार्थ

    (त्वष्टा) उषा के रूप का निर्माण करनेवाला अनुदित सूर्य, (दुहित्रे) उषारूपी दुहिता के लिये (वहतुम्) विवाह (कृणोति) रचाता है, (तेन) इस कारण (विश्वं भुवनम्) समग्र प्राणी और अप्राणी जगत (समेति) मानो इकट्ठा होता है। (यमस्य) दिन और रात के जोड़े का (माता) निर्माण करनेवाली उषा (पर्युह्यमाना) जब चली जा रही होती है, तब (महः) तेजस्वी चमकते (विवस्वतः) सूर्य की (जाया) जायारात्री (ननाश) विनष्ट हो जाती है, अदृष्ट हो जाती है।

    टिप्पणी

    [त्वष्टा = "त्वष्टा वै रूपाणि करोति" (तै० २।७।२।१)। त्वष्टा से अभिप्राय अनुदित सूर्य का है। उस काल में सूर्य की रङ्ग-बिरङ्गी रश्मियां उषा के रूप में पूर्वी आकाश में चमकने लगती हैं। यह मानो उषा का पूर्वी आकाश से विवाह है। इस समय प्राणी जगत् जाग उठा होता है, और अप्राणी जगत् भी चमकने लगता है, मानो वह उषा के विवाह में सम्मिलित हुआ है। तदनन्तर तेजस्वी सूर्य चमकने लगता है तब सूर्य की जाया अर्थात् रात्री अदृष्ट हो जाती है। पितृ-प्रकरण में इस मन्त्र का उल्लेख यह दर्शाने के लिये है कि पितृयज्ञ इस काल में होना चाहिये, रात्रीकाल में नहीं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Tvashta, cosmic maker of the forms of existence, for fulfilment of the creative urge of nature, Prakrti, initiates the onward process of evolution, and the entire universe comes into being in cosmic time. While Prakrti, consort of the self-refulgent creator Savita and mother origin of the order of evolution, is fertilized and moves on to its generative function, it disappears, that is, it transforms from its original intangible essence into the tangible creative form and generative power in existence.

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    Subject

    Tvastar

    Translation

    Tvastar makes a wedding-car for his daughter; by reason of this, all this creation comes together; the mother of Yama, wife of great Vivasvant, being drawn about, disappeared.

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    Translation

    God creates this vast universe out of Matter, hence this whole world remains in tact. The world producing Matter, a mighty creative force, regularly controlled by God, assumes different forms out of the power of God, the Lord of infinite worlds.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५३−(त्वष्टा) प्रकाशमानः सूर्यः (दुहित्रे) षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। दुहितुः।प्रपूरयित्र्या उषसः (वहतुम्) वहनम्। चालनम्। (कृणोति) करोति (तेन) पूर्वोक्तेनकर्मणा गमनेन (इदम्) विश्वम् सर्वम् (भुवनम्) जगत् (सम्) सम्यक् (एति) गच्छति।चेष्टते (यमस्य) दिनस्य (माता) निर्मात्री। रात्रिः (पर्युह्यमाना) प्रकाशेनपर्य्युत्सार्यमाणा (महः) महतः (जाया) पत्नीरूपा रात्रिः (विवस्वतः)प्रकाशमानस्य सूर्यस्य (ननाश) लडर्थे-लिट्। नश्यति। अदृष्टा भवति ॥

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