अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 42
सर॑स्वतींपि॒तरो॑ हवन्ते दक्षि॒ना य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः। आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑मादयध्वमनमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे ॥
स्वर सहित पद पाठसर॑स्वतीम् । पि॒तर॑: । ह॒व॒न्ते॒ । द॒क्षि॒णा । य॒ज्ञम् । अ॒भि॒ऽनक्ष॑माणा: । आ॒ऽसद्य॑ । अ॒स्मिन् । ब॒र्हिषि॑ । मा॒द॒य॒ध्व॒म् । अ॒न॒मी॒वा: । इष॑: । आ । धे॒हि॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥१.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
सरस्वतींपितरो हवन्ते दक्षिना यज्ञमभिनक्षमाणाः। आसद्यास्मिन्बर्हिषिमादयध्वमनमीवा इष आ धेह्यस्मे ॥
स्वर रहित पद पाठसरस्वतीम् । पितर: । हवन्ते । दक्षिणा । यज्ञम् । अभिऽनक्षमाणा: । आऽसद्य । अस्मिन् । बर्हिषि । मादयध्वम् । अनमीवा: । इष: । आ । धेहि । अस्मे इति ॥१.४२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सरस्वती के आवाहन का उपदेश।
पदार्थ
(सरस्वतीम्) सरस्वती [विज्ञानवती वेदविद्या] को (दक्षिणा) सरल मार्ग में (यज्ञम्) यज्ञ [संयोगव्यवहार] को (अभिनक्षमाणाः) प्राप्त करते हुए (पितरः) पितर [पालनकरनेवाले विज्ञानी] लोग (हवन्ते) बुलाते हैं। [हे विद्वानो !] (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) वृद्धि कर्म में (आसद्य) बैठकर (मादयध्वम्) [सबको] तृप्त करो, [हेसरस्वती !] (अस्मे) हम में (अनमीवाः) पीड़ा रहित (इषः) इच्छाएँ (आ धेहि)स्थापित कर ॥४२॥
भावार्थ
विद्वान् लोगनिर्विघ्न होकर सरल रीति में सबसे मिलकर वेदविद्या के प्रचार से विज्ञान कीवृद्धि और इष्ट पदार्थ की सिद्धि करते हैं ॥४२॥
टिप्पणी
४२−(सरस्वतीम्) विज्ञानवतींवेदविद्याम् (पितरः) पालनशीला विज्ञानिनः (हवन्ते) आह्वयन्ति (दक्षिणा)दक्षिण-आच्। दक्षिणतः। सरलमार्गे (यज्ञम्) संयोगव्यवहारम् (अभिनक्षमाणाः) अभितोगच्छन्तः (आसद्य) उपविश्य (अस्मिन्) (बर्हिषि) बृंहेर्नलोपश्च। उ० २।१०९। बृहिवृद्धौ-इषि। वृद्धिकर्मणि (मादयध्वम्) तर्पयत सर्वान्, हे विद्वांसः (अनमीवाः)पीडारहिताः (इषः) इच्छाः (आ धेहि) स्थापय, हे सरस्वति (अस्मे) अस्मासु ॥
विषय
सरस्वती की आराधना का फल
पदार्थ
१. (सरस्वतीम्) = इस ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता को (पितर:) = रक्षणात्मक कार्यों में व्याप्त पिता (हवन्ते) = पुकारते हैं। यह ज्ञाररुचि ही उन्हें पवित्र जीवनवाला बनाकर अपने कार्य को सुचारु रूप से करने में समर्थ करती है। (दक्षिणा) = [दक्ष् to grow] उन्नति व विकास के हेतु से (यज्ञम् अभिनक्षमाणा:) = [यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म] श्रेष्ठतम कर्मों को प्राप्त होते हुए लोग इस सरस्वती को ही पुकारते हैं। सरस्वती ही तो उन्हें इन यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त करके उन्नत करती है। २. हे पुरुषो! तुम (अस्मिन् बर्हिषि) = [बृहि वृद्धी] इस वृद्धि के निमित्तभूत सरस्वती के आराधन में (आसद्य) = आसीन होकर (मादयध्वम्) = आनन्द का अनुभव करो। स्वाध्याय में तुम्हें रस की प्रतीति हो। हे सरस्वति । तू (अस्मे) = हमारे लिए (अनमीवा:) = व्याधिरहित (इषः) = अन्नों को (आधेहि) = स्थापित कर। राजस् अन्न [दुःखशोकामयप्रदाः] ही रोगों का कारण बनते हैं। उन्हें न ग्रहण करके हम सात्त्विक अनों का ही सेवन करें। यह सात्विक अन्न का सेवन हमारी बुद्धि की वृद्धि करता हुआ हमें और अधिक सरस्वती का आराधक बनाएगा।
भावार्थ
सरस्वती की आराधना हमें रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त करती है [पितरः], यह हमें श्रेष्ठतम कर्मों की ओर ले-जाती है [यज्ञम्], यही वृद्धि का निमित्त बनती है [बर्हिषि], अत: हम सात्त्विक अन्नों का सेवन करते हुए तीन बुद्धि बनें और सरस्वती के आराधक हों।
भाषार्थ
(दक्षिणा = दक्षिणावन्तः) दक्षिणाएं देते हुए, और (यज्ञम्) यज्ञों में (अभि नक्षमाणाः) व्याप्त रहते हुए (पितरः) गृहस्थी माता-पिता या पति-पत्नी, (सरस्वतीं हवन्ते) तदनुकूल वेदवाणियों का उच्चारण करते हैं। हे पितरो ! (अस्मिन् बर्हिषि) इस वृद्धिकारक यज्ञकर्म में (आसद्य) निष्ठावान् होकर आप (मादयध्वम्) स्वयं भी आनन्दित रहिये, और अन्यों को भी आनन्दित कीजिये। हे सरस्वती= ज्ञानप्रदा वेदवाणी ! तू (अस्मे) हम में (अनमीवाः वाः) नीरोग (इषः) इच्छाओं का (आ धेहि) आधान कर, अर्थात् तेरे स्वाध्याय द्वारा हमारी इच्छाएं सात्त्विक हो जायें।
टिप्पणी
[बर्हि= बृंहति वर्द्धते तद् बर्हिः (उणा० २।१११), दयानन्द भाष्य। नक्षति व्याप्तिकर्मा (निघं० २।१८)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Parental house-holders eager to perform yajna with generous gifts of Dakshina invoke and worship Sarasvati, mother Spirit of Voice divine. O mother, come and grace this holy vedi with your divine presence, rejoice with the dedicated worshippers and bring us food and energy, wealth, honour and excellence free from all kinds of negativities.
Translation
On Sarasvati do the Fathers call, arriving at the sacrifice on the south; sitting on this barhis do ye revel; assign thou to us food free from disease.
Translation
N/A
Translation
Seated in the south of the Yajna, the learned recite the Vedas. Seated in this sacred Yajna, rejoice you worshippers. O Vedic knowledge, give thou us strengthening food that brings no disease!
Footnote
See Rig, 10-17-8.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४२−(सरस्वतीम्) विज्ञानवतींवेदविद्याम् (पितरः) पालनशीला विज्ञानिनः (हवन्ते) आह्वयन्ति (दक्षिणा)दक्षिण-आच्। दक्षिणतः। सरलमार्गे (यज्ञम्) संयोगव्यवहारम् (अभिनक्षमाणाः) अभितोगच्छन्तः (आसद्य) उपविश्य (अस्मिन्) (बर्हिषि) बृंहेर्नलोपश्च। उ० २।१०९। बृहिवृद्धौ-इषि। वृद्धिकर्मणि (मादयध्वम्) तर्पयत सर्वान्, हे विद्वांसः (अनमीवाः)पीडारहिताः (इषः) इच्छाः (आ धेहि) स्थापय, हे सरस्वति (अस्मे) अस्मासु ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal