अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 45
आहंपि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑। ब॑र्हि॒षदो॒ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त॑ इ॒हाग॑मिष्ठाः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒हम् । पि॒तॄन् । सु॒ऽवि॒दत्रा॑न् । अ॒वि॒त्सि॒ । नपा॑तम् । च॒ । वि॒ऽक्रम॑णम् । च॒ । विष्णो॑: । ब॒र्हि॒ऽसद॑: । ये । स्व॒धया॑ । सु॒तस्य॑ । भज॑न्त । पि॒त्व: । ते । इ॒ह । आऽग॑मिष्ठा: ॥१.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
आहंपितॄन्त्सुविदत्राँ अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः। बर्हिषदोये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अहम् । पितॄन् । सुऽविदत्रान् । अवित्सि । नपातम् । च । विऽक्रमणम् । च । विष्णो: । बर्हिऽसद: । ये । स्वधया । सुतस्य । भजन्त । पित्व: । ते । इह । आऽगमिष्ठा: ॥१.४५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैंने (विष्णोः) विष्णु [सर्वव्यापक परमात्मा] से (सुविदत्रान्) बड़े ज्ञानी वा बड़ेधनी (पितॄन्) पितरों [पालनेवाले विद्वानों] को (च च) और भी (नपातम्) न गिरनेवाली (विक्रमणम्) विविध प्रवृत्ति को (आ अवित्सि) पाया है। (ये) जिन आप (बर्हिषदः)उत्तम पद पर बैठनेवालों ने (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (सुतस्य) ऐश्वर्ययुक्त (पित्वः) रक्षासाधन अन्न का (भजन्त) सेवन किया है, (ते) वे तुम सब (इह) यहाँ (आगमिष्ठाः) आये हो ॥४५॥
भावार्थ
प्रधान पुरुष परमात्माकी कृपा से धर्मात्माओं के साथ कार्यकुशलता को प्राप्त करे और जो बड़े पराक्रमीविद्वान् हों, उनका उचित सत्कार करके प्रजा की रक्षा करे ॥४५॥
टिप्पणी
४५−(आ) समन्तात् (अहम्) प्रधानजनः (पितॄन्) पालकान् विदुषः (सुविदत्रान्) अ० १।३१।४। सुविदेःकत्रन्। उ० ३।१०८।सु+विद ज्ञाने विद्लृ लाभे च-कत्रन्। उत्तमज्ञानान्। बहुधनान् (अवित्सि) विद्लृ लाभे-लुङ्। लब्धवानस्मि (नपातम्) पातरहितम्। अनश्वरम् (च) (विक्रमणम्) विविधप्रवृत्तिम् (च) अपि (विष्णोः) सर्वव्यापकात् परमेश्वरात् (बर्हिषदः) उत्तमपदस्थाः (ये) पितरः (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (सुतस्य)ऐश्वर्ययुक्तस्य (भजन्त) अभजन्त। सेवनं कृतवन्तः (पित्वः) कमिमनिजनि०। उ० १।७३।पा रक्षणे-तु, पिभावः। पितुरित्यन्ननाम पातेर्वा पिबतेर्वा प्यायतेर्वा-निरु०९।२४। रक्षासाधनस्यान्नस्य (ते) तादृशाः पितरः (इह) अत्र (आगमिष्ठाः) लुङिरूपम्। यूयम् आगताःस्थ ॥
विषय
'सुविदा और बर्हिषद्' पितर
पदार्थ
१. (अहम्) = मैं (सुविदत्रान्) = उत्तम ज्ञान के द्वारा रक्षण करनेवाले (पितृृन्) = पितरों को (आ अवित्सि) = सर्वथा प्राप्त होऊ। माता-पिता, आचार्य व अतिथि-ये सब ज्ञान के द्वारा हमारा रक्षण करनेवाले हों (च) = और परिणामतः मैं (न-पातम्) = न गिरने को, अर्थात् धर्ममार्ग में स्थिरता को, प्राप्त करूँ (च) = तथा (विष्णो: विक्रमणम्) = विष्णु के विक्रमण को भी मैं प्राप्त करूँ, अर्थात् विष्णु ने जैसे तीन पगों में त्रिलोकी को व्यास किया हुआ है, उसी प्रकार में भी त्रिलोकी का विजेता बन, अर्थात् 'स्वस्थ शरीर, निर्मल मन व दीस मस्तिष्क' वाला होऊँ। २. मैं उन पितरों को प्राप्त करूँ ये जो (बर्हिषदः) = यज्ञों में आसीन होनेवाले हैं और (स्वधया) = प्राणशक्ति के धारण के हेतु से (पित्वः) = अन्न के (सुतस्य) = परिणामभूत [उत्पन्न] सोम का (भजन्त) = सेवन करते हैं, अर्थात् इस सोम को शरीर में ही सुरक्षित रखते हैं। इस वीर्यरक्षण के द्वारा ही वे दीप्त ज्ञानाग्निवाले बनकर आत्मतत्त्व का धारण करनेवाले बनते हैं। (ते) = वे पितर (इह आगमिष्ठा:) = इस जीवन में हमें प्राप्त हों।
भावार्थ
हमें उन पितरों की प्राप्ति हो जो ज्ञान के द्वारा हमारा रक्षण करें, यज्ञशील हों, प्रभु-प्राप्ति के उद्देश्य से [आत्मशक्ति के धारण के उद्देश्य से] वीर्य का रक्षण करनेवाले हों। इनके सम्पर्क से हम भी मार्गभ्रष्ट न होकर शरीर, मन व मस्तिष्क की उन्नतिरूप तीन पगों को रखनेवाले हों।
भाषार्थ
श्रद्धावान् गृहस्थी कहता है कि मेरे दिये निमन्त्रण पर (अहम्) मैंने (सुविदत्रान्) सुविज्ञ (पितॄन्) पितरों को (आ अवित्सि) प्राप्त किया है। और उन के सदुपदेशों द्वारा मैंने (विष्णोः) सर्वव्यापक परमेश्वर की उन नियम-व्यवस्थाओं को (न पातम्) जिन से कि मनुष्य का पतन नहीं होता, तथा (विक्रमण च) सर्वव्यापक परमेश्वर के विक्रम और पराक्रम को मैंने जान लिया है। (ये) जो पितर कि (बर्हिषदः) कुशासनों पर बैठ कर, (स्वधया) अपनी-अपनी धारणा के अनुसार, (सुतस्य) पुत्र के (पित्वः) अन्न का (भजन्त) सेवन करते हैं, (ते) वे पितर (इह) इस मेरे घर में (आ गमिष्ठाः) आ पधारे हैं।
टिप्पणी
[नपातम् का अर्थ कइयों ने "पोता" किया है। क्या विष्णु का भी कोई "पोता" है? स्वधा = स्व + धा (धारणा)। पितुः= अन्न (निघं० २।७); पित्वः षष्ठ्येकवचन। विक्रमणम् = सर्वव्यापक परमेश्वर बड़ा पराक्रमी है। उस की नियम व्यवस्थाओं का उल्लंघन कर दण्ड से वञ्चित कोई नहीं हो सकता।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
I know and join the holy, wise, generous and parental powers of humanity. I know the stable, radiative and expansive powers and presence of yajna and its creative effects. O scholars and scientists of yajna who join the creative fire enterprise here on the vedi with your inputs of knowledge and expertise, come and partake of the freshness and fragrance of fruits produced and given by yajna.
Translation
I have won hither the beneficent Fathers, both the grandson and the wide-striding of Visnu; they who, sitting on the barhis, partake of the pressed drink with svadha - they come especially hither. [Also Rg.X.I5.3]
Translation
N/A
Translation
I know the elders, who impart sound knowledge. I know the eternal strength of God and His Creation of the universe. May those visit our houses, who solely devoted to God, with their soul-force and self-realization, worship the Blissful Creator.
Footnote
See Rig, 10-15-3. Yajur, 19-56.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४५−(आ) समन्तात् (अहम्) प्रधानजनः (पितॄन्) पालकान् विदुषः (सुविदत्रान्) अ० १।३१।४। सुविदेःकत्रन्। उ० ३।१०८।सु+विद ज्ञाने विद्लृ लाभे च-कत्रन्। उत्तमज्ञानान्। बहुधनान् (अवित्सि) विद्लृ लाभे-लुङ्। लब्धवानस्मि (नपातम्) पातरहितम्। अनश्वरम् (च) (विक्रमणम्) विविधप्रवृत्तिम् (च) अपि (विष्णोः) सर्वव्यापकात् परमेश्वरात् (बर्हिषदः) उत्तमपदस्थाः (ये) पितरः (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (सुतस्य)ऐश्वर्ययुक्तस्य (भजन्त) अभजन्त। सेवनं कृतवन्तः (पित्वः) कमिमनिजनि०। उ० १।७३।पा रक्षणे-तु, पिभावः। पितुरित्यन्ननाम पातेर्वा पिबतेर्वा प्यायतेर्वा-निरु०९।२४। रक्षासाधनस्यान्नस्य (ते) तादृशाः पितरः (इह) अत्र (आगमिष्ठाः) लुङिरूपम्। यूयम् आगताःस्थ ॥
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