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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    सूक्त - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    रक्षो॒हणं॑ वा॒जिन॒मा जि॑घर्मि मि॒त्रं प्रथि॑ष्ठ॒मुप॑ यामि॒ शर्म॑। शिशा॑नो अ॒ग्निः क्रतु॑भिः॒ समि॑द्धः॒ स नो॒ दिवा॒ स रि॒षः पा॑तु॒ नक्त॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र॒क्ष॒:ऽहन॑म् । वा॒जिन॑म् । आ । जि॒घ॒र्मि॒ । मि॒त्रम् । प्रथि॑ष्ठम् । उप॑ । या॒मि॒ । शर्म॑ । शिशा॑न: । अ॒ग्नि: । क्रतु॑ऽभि: । सम्ऽइ॑ध्द: । स: । न॒: । दिवा॑ । स: । रि॒ष: । पा॒तु॒ । नक्त॑म् ॥३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रक्षोहणं वाजिनमा जिघर्मि मित्रं प्रथिष्ठमुप यामि शर्म। शिशानो अग्निः क्रतुभिः समिद्धः स नो दिवा स रिषः पातु नक्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रक्ष:ऽहनम् । वाजिनम् । आ । जिघर्मि । मित्रम् । प्रथिष्ठम् । उप । यामि । शर्म । शिशान: । अग्नि: । क्रतुऽभि: । सम्ऽइध्द: । स: । न: । दिवा । स: । रिष: । पातु । नक्तम् ॥३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (रक्षोहणम्) = राक्षसी भावों को नष्ट करनेवाले, (वाजिनम्) = प्रशस्त बलवाले उस प्रभु को (आजिघर्मि) = अपने हृदयदेश में दीस करता हूँ तथा (मित्रम्) = सबको मृत्यु व पाप से बचानेवाले अनिशायित विस्तारवाले-सर्वव्यापक उस प्रभु की (शर्म उपयामि) = शरण में जाता है। २. (सः अग्निः) = वह अग्नणी प्रभु (क्रतुभिः समिद्धः) = यज्ञादि कर्मों से हृदयदेश में दीप्स किया हुआ (शिशान:) = हमारी बुद्धियों को तीक्ष्ण करनेवाला है। ये बुद्धियाँ ही तो हमारे कर्मों को पवित्र करनेवाली होंगी। (स:) = वे प्रभु (न:) = हमें (दिवा) = दिन में तथा (नक्तम्) = रात्रि में (रिष:) = हिंसक तत्त्वों से (पातु) = बचाएँ। प्रभु सदा हमारा रक्षण करनेवाले हों। प्रभु से रक्षित हुए-हुए हम तीव्र बुद्धिवाले और यज्ञादि पवित्र कर्मोंवाले बनें।

    भावार्थ -

    हम प्रभु को हदयदेश में समिद्ध करें। उत्तम कर्मों में लगे हुए प्रभ के प्रिय बनें। प्रभु से दीस बुद्धि पाकर हम दिन-रात अपना रक्षण कर पाएँ।

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