अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 22
परि॑ त्वाग्ने॒ पुरं॑ व॒यं विप्रं॑ सहस्य धीमहि। धृ॒षद्व॑र्णं दि॒वेदि॑वे ह॒न्तारं॑ भङ्गु॒राव॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । त्वा॒ । अ॒ग्ने॒ । पुर॑म् । व॒यम् । विप्र॑म् । स॒ह॒स्य॒ । धी॒म॒हि॒ । धृ॒षत्ऽव॑र्णम् । दि॒वेऽदि॑वे । ह॒न्तार॑म् । भ॒ङ्गु॒रऽव॑त: ॥३.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
परि त्वाग्ने पुरं वयं विप्रं सहस्य धीमहि। धृषद्वर्णं दिवेदिवे हन्तारं भङ्गुरावतः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । त्वा । अग्ने । पुरम् । वयम् । विप्रम् । सहस्य । धीमहि । धृषत्ऽवर्णम् । दिवेऽदिवे । हन्तारम् । भङ्गुरऽवत: ॥३.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 22
विषय - प्रभ का धारण
पदार्थ -
१.हे (अग्ने) = परमात्मन्! (सहस्य) = शत्रुओं का मर्षण करनेवालों में उत्तम प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको (परिधीमहि) = अपने में धारण करते हैं, जो आप (पुरम) = [पृ पालनपुरणयो:] हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। आपकी कृपा से ही हम रोगाक्रान्त शरीरोंवाले नहीं होते और आपकी कृपा से ही हमारे मन हीन भावनाओं से रहित रहते हैं। आप विप्रम-ज्ञान देकर हमारा विशेषरूप से पुरण करनेवाले हैं। २. उन आपको हम धारण करते हैं, जिनके (धृषद् वर्णम्) = गुणों का वर्णन व नामोच्चारण ही हमारे शत्रुओं का धर्षण करनेवाला होता है। उन आपको हम (दिवेदिवे) = प्रतिदिन हृदय में धारण करने का प्रयत्न करते हैं। आप (भंगुरावत:) = हमारा भंग करनेवाली राक्षसीवृत्तियों का (हन्तारम्) = नाश करनेवाले हैं।
भावार्थ -
हम प्रभु का स्मरण करें, प्रभु को हृदय में धारण करें। प्रभु हमारी राक्षसीवृत्तियों का विनाश करके हमारा पालन करते हैं।
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