अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 21
सूक्त - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
तद॑ग्ने॒ चक्षुः॒ प्रति॑ धेहि रे॒भे श॑फा॒रुजो॒ येन॒ पश्य॑सि यातु॒धाना॑न्। अ॑थर्व॒वज्ज्योति॑षा॒ दैव्ये॑न स॒त्यं धूर्व॑न्तम॒चितं॒ न्योष ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । अ॒ग्ने॒ । चक्षु॑: । प्रति॑ । धे॒हि॒ । रे॒भे । श॒फ॒ऽआ॒रुज॑: । येन॑ । पश्य॑सि । या॒तु॒ऽधाना॑न् । अ॒थ॒र्व॒ऽवत् । ज्योति॑षा । दैव्ये॑न । स॒त्यम् । धूर्व॑न्तम् । अ॒चित॑म् । नि । ओ॒ष॒ ॥३.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
तदग्ने चक्षुः प्रति धेहि रेभे शफारुजो येन पश्यसि यातुधानान्। अथर्ववज्ज्योतिषा दैव्येन सत्यं धूर्वन्तमचितं न्योष ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । अग्ने । चक्षु: । प्रति । धेहि । रेभे । शफऽआरुज: । येन । पश्यसि । यातुऽधानान् । अथर्वऽवत् । ज्योतिषा । दैव्येन । सत्यम् । धूर्वन्तम् । अचितम् । नि । ओष ॥३.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 21
विषय - "शफारुज, यातुधान व रेभ' पर कड़ी दृष्टि रखना
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = राष्ट्र के अग्रणी राजन्! तू (येन) = जिस दृष्टि से (शफारुज:) = [शफा: नखा: सा०] नखों से औरों का विदारण करनेवाले (यातुधानान्) = प्रजाओं को पीड़ित करनेवाले राक्षसों को (पश्यसि) = देखता है, (तत् चक्षुः) = उस आँख को (रेभे) = व्यर्थ कोलाहल करनेवाले-पागल के समान बकनेवाले पुरुष पर भी (प्रतिधेहि) = स्थापित कर। तू राष्ट्र में 'शफारुजों, यातुधानों व रेभों' पर दृष्टि रख। ये धार्मिक प्रजा को पीड़ित करनेवाले न बन पाएँ। इनपर तेरा नियन्त्रण हो। २. (अथर्ववत्) = [न थर्व-move] कर्तव्य-पथ से विचलित न होनेवाले प्रजापति [राजा] के समान (दैव्येन ज्योतिषा) = प्रभु-प्रदत्त वेदज्ञान की ज्योति के द्वारा (सत्यं धूर्वन्तम्) = सत्य को हिंसित करनेवाले (अचितम्) = [अ चित्] इस नासमझ, कर्त्तव्यविमुख व्यक्ति को (न्योष) = तू नितरां दग्ध करनेवाला हो। ज्ञानज्योति प्राप्त करके सत्य का हिंसन न करता हुआ यह एक समझदार नागरिक बन जाए।
भावार्थ -
राजा राष्ट्र में उन लोगों पर कड़ी दृष्टि रक्खे जो नखों से औरों का विदारण करते हैं, नाना प्रकार से प्रजा को पीड़ित करते हैं तथा व्यर्थ का कोलाहल मचाये रहते हैं। राजा को चाहिए कि अपने कर्तव्य में ढीला न होता हुआ, वेदज्ञान के द्वारा इन्हें समझदार बनाने का प्रयत्न करे, जिससे ये सत्य का हिंसन करने से निवृत्त हों।
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