अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 17
सूक्त - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
सं॑वत्स॒रीणं॒ पय॑ उ॒स्रिया॑या॒स्तस्य॒ माशी॑द्यातु॒धानो॑ नृचक्षः। पी॒यूष॑मग्ने यत॒मस्तितृ॑प्सा॒त्तं प्र॒त्यञ्च॑म॒र्चिषा॑ विध्य॒ मर्म॑णि ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽव॒त्स॒रीण॑म् । पय॑: । उ॒स्रिया॑या: । तस्य॑ । मा । आ॒शी॒त् । या॒तु॒ऽधान॑: । नृ॒ऽच॒क्ष॒: । पी॒यूष॑म् । अ॒ग्ने॒ । य॒त॒म: । तितृ॑प्सात् । तम् । प्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒र्चिषा॑ । वि॒ध्य॒ । मर्म॑णि ॥३.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
संवत्सरीणं पय उस्रियायास्तस्य माशीद्यातुधानो नृचक्षः। पीयूषमग्ने यतमस्तितृप्सात्तं प्रत्यञ्चमर्चिषा विध्य मर्मणि ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽवत्सरीणम् । पय: । उस्रियाया: । तस्य । मा । आशीत् । यातुऽधान: । नृऽचक्ष: । पीयूषम् । अग्ने । यतम: । तितृप्सात् । तम् । प्रत्यञ्चम् । अर्चिषा । विध्य । मर्मणि ॥३.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 17
विषय - गोपीड़क को दण्ड
पदार्थ -
१. हे (नृचक्ष:) = मनुष्यों का ध्यान करनेवाले प्रजापालक राजन्! (यातुधान:) = गौओं को पीड़ित करके उनके दूध को छीननेवाला यातुधान (उस्त्रियायाः) = गौ का जो (सर्वत्सरीणं पयः) = वर्षभर में मिलनेवाला दूध है (तस्य मा अशीत) = उसका भोजन न करें। उस यातुधान को वर्षभर गौ का दूध पीने को न मिले। वह गौ की सेवा करे, परन्तु उसे गौ के दूध से वंचित रक्खा जाए। क्रूरता से दुग्धहरण का यही समुचित दण्ड है। २. (यतमः) = जो भी यातुधान, (अग्ने) = हे राजन्! (पीयूषम्) = अभिनव पय को-सर्वारम्भ में स्तनों से बाहर आनेवाले दूध को जोकि वस्तुत: बछड़े का भाग है, (तितृप्सात्) = अपनी तृप्ति का साधन बनाने की इच्छा करता है, (तम्) = उस (प्रत्यञ्चम्) = प्रतिकूल मार्ग पर चलनेवाले व्यक्ति के (मर्मणि) = मर्मस्थलों को तू (अर्चिषा) = ज्ञानज्वाला से विध्य बीध दे। तू उसे ऐसे शब्दों में समझाने का प्रयत्न कर कि 'बच्चे भूखे बैठे हों और माता-पिता आनन्द से खा रहे हों तो क्या यह दृश्य माता-पिता की मानवता का सूचक है? इसीप्रकार गौ का बछड़ा तरसता रह जाए और तुम गौ के ऊधस् से एक-एक बूंद दूध को निकालने का प्रयत्न करो तो यह कहाँ तक ठीक है? इसप्रकार उसे ज्ञान दिया जाए कि यह उसके हृदय में घर कर जाए-उसे अपना अपराध मर्माहत करने लगे।
भावार्थ -
पीड़ा देकर गोदुग्ध हरण करनेवाले को वर्षभर दूध न मिलने का दण्ड दिया जाए।
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