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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 24
    सूक्त - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    वि ज्योति॑षा बृह॒ता भा॑त्य॒ग्निरा॒विर्विश्वा॑नि कृणुते महि॒त्वा। प्रादे॑वीर्मा॒याः स॑हते दु॒रेवाः॒ शिशी॑ते॒ शृङ्गे॒ रक्षो॑भ्यो वि॒निक्ष्वे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ज्योति॑षा । बृ॒ह॒ता । भा॒ति॒ । अ॒ग्नि: । आ॒वि: । विश्वा॑नि । कृ॒णु॒ते॒ । म॒हि॒ऽत्वा । प्र । अदे॑वी: । मा॒या: । स॒ह॒ते॒ । दु॒:ऽएवा॑: । शिशी॑ते । शृङ्गे॒ इति॑ । रक्ष॑:ऽभ्य: । वि॒ऽनिक्ष्वे॑ ॥३.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि ज्योतिषा बृहता भात्यग्निराविर्विश्वानि कृणुते महित्वा। प्रादेवीर्मायाः सहते दुरेवाः शिशीते शृङ्गे रक्षोभ्यो विनिक्ष्वे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । ज्योतिषा । बृहता । भाति । अग्नि: । आवि: । विश्वानि । कृणुते । महिऽत्वा । प्र । अदेवी: । माया: । सहते । दु:ऽएवा: । शिशीते । शृङ्गे इति । रक्ष:ऽभ्य: । विऽनिक्ष्वे ॥३.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 24

    पदार्थ -

    १. (अग्ने:) = वह अनेणी प्रभु (बृहता ज्योतिषा) = हमारी वृद्धि की कारणभूत महती ज्ञानज्योति से (विभाति) = विशिष्टरूप से दीप्त हो रहा है। वह प्रभु (महित्वा) = अपनी महिमा से (विश्वानि) = सब लोक-लोकान्तरों को (आवि: कृणुते) = प्रकट करता है अथवा तेज के द्वारा सबके प्रति अपने को प्रकट करता है। २. वे हृदयस्थ प्रभु (अदेवी:) = आसुरी (दुरेवा:) = दुर्गमन-[दुराचार]-रूप (माया:) = छल कपट को (प्रसहते) = अभिभूत करते हैं-प्रभु छल-कपट की वृत्तियों को विनष्ट करते हैं। वे प्रभु (रक्षोभ्यः विनिवे) = राक्षसी वृत्तियों के विनाश के लिए (शङ्गे शिशीते) = उपासक के शृंगों को तीव्र करते हैं। [शंगे शृणाते:-नि०] 'ज्ञान और कर्म' ही साधक के शृंग हैं। ये उसके शत्रुभूत काम क्रोध का विनाश करनेवाले होते हैं। उपासक के 'ब्रह्म व क्षत्र' का विकास करके प्रभु काम क्रोध को दूर भगा देते हैं।

    भावार्थ -

    प्रभु का प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है। प्रभु अपनी महिमा से सब लोकों को प्रकाशित करते हैं। वे ही हमारी आसुरी वृत्तियों को विनष्ट करते हैं और हमारे राक्षसीभावों के विनाश के लिए हमारे 'ब्रह्म+क्षत्र' को विकसित करते हैं।

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