अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
ती॒क्ष्णेना॑ग्ने॒ चक्षु॑षा रक्ष य॒ज्ञं प्राञ्चं॒ वसु॑भ्यः॒ प्र ण॑य प्रचेतः। हिं॒स्रं रक्षां॑स्य॒भि शोशु॑चानं॒ मा त्वा॑ दभन्यातु॒धाना॑ नृचक्षः ॥
स्वर सहित पद पाठती॒क्ष्णेन॑ । अ॒ग्ने॒ । चक्षु॑षा । र॒क्ष॒ । य॒ज्ञम् । प्राञ्च॑म् । वसु॑ऽभ्य: । न॒य॒ । प्र॒ऽचे॒त॒: । हिं॒स्रम् । रक्षां॑सि । अ॒भि । शोशु॑चानम् । मा । त्वा॒ । द॒भ॒न् । या॒तु॒ऽधाना॑: । नृ॒ऽच॒क्ष॒: ॥३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
तीक्ष्णेनाग्ने चक्षुषा रक्ष यज्ञं प्राञ्चं वसुभ्यः प्र णय प्रचेतः। हिंस्रं रक्षांस्यभि शोशुचानं मा त्वा दभन्यातुधाना नृचक्षः ॥
स्वर रहित पद पाठतीक्ष्णेन । अग्ने । चक्षुषा । रक्ष । यज्ञम् । प्राञ्चम् । वसुऽभ्य: । नय । प्रऽचेत: । हिंस्रम् । रक्षांसि । अभि । शोशुचानम् । मा । त्वा । दभन् । यातुऽधाना: । नृऽचक्ष: ॥३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
विषय - राजकर्तव्य
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = राष्ट्र के अग्रणी राजन् ! तू (तीक्ष्णेन चक्षुषा) = बड़ी तीन दृष्टि से (यज्ञं रक्ष) = यज्ञ की रक्षा कर। इस राष्ट्र-यज्ञ को यातुधानों के द्वारा किये जानेवाले विध्वंस से बचा। हे (प्रचेत:) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले राजन्! (वसुभ्यः) = उत्तम निवासवालों के लिए-जीवन को उत्तमता से बितानेवालों के लिए तू इस राष्ट्र-यज्ञ को (प्राञ्चं प्रणय) = सदा अग्रगतिवाला कर। यह राष्ट्र निरन्तर उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाला हो और यातुधानों से विपरीत वसुओं के लिए स्वयं उत्तम जीवन बितानेवाले तथा औरों को उत्तम जीवन बिताने देनेवालों के लिए इस राष्ट्र को तू उन्नत कर । यहाँ वसुओं को उन्नति के सब साधन प्राप्त हों। २. हे (नृचक्षः) = प्रजाओं का ध्यान करनेवाले राजन्! (रक्षांसि हिंस्त्रम्) = राक्षसीवृत्तियों को समास करने के स्वभाववाले (अभि शोशुचानम्) = बाहर व भीतर दीप्तिवाले-बाहर स्वास्थ्य के तेज से सम्पन्न और भीतर ज्ञानज्योति से दीस (त्वा) = तुझे (यातुधाना:) = ये प्रजापीड़क (मा दभन्) = हिंसित करनेवाले न हों। ये तुझे अपने दबाव में न ला सकें।
भावार्थ -
राजा का मूल कर्त्तव्य यही है कि वह राष्ट्रयज्ञ के विनकारी यातुधानों को दूर करे। यातुधानों को दूर करके वसुओं के लिए उन्नति के साधन प्राप्त कराए।
इस भाष्य को एडिट करें