अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
सूक्त - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
उ॒तार॑ब्धान्त्स्पृणुहि जातवेद उ॒तारे॑भा॒णाँ ऋ॒ष्टिभि॑र्यातु॒धाना॑न्। अग्ने॒ पूर्वो॒ नि ज॑हि॒ शोशु॑चान आ॒मादः॒ क्ष्विङ्का॒स्तम॑द॒न्त्वेनीः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । आऽर॑ब्धान् । स्पृ॒णु॒हि॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । उ॒त । आ॒ऽरे॒भा॒णान् । ऋ॒ष्टिऽभि॑: । या॒तु॒ऽधाना॑न् । अग्ने॑ । पूर्व॑: । नि । ज॒हि॒ । शोशु॑चान: । आ॒म॒ऽअद॑: । क्ष्विङ्का॑: । तम् । अ॒द॒न्तु॒ । एनी॑: ॥३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
उतारब्धान्त्स्पृणुहि जातवेद उतारेभाणाँ ऋष्टिभिर्यातुधानान्। अग्ने पूर्वो नि जहि शोशुचान आमादः क्ष्विङ्कास्तमदन्त्वेनीः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । आऽरब्धान् । स्पृणुहि । जातऽवेद: । उत । आऽरेभाणान् । ऋष्टिऽभि: । यातुऽधानान् । अग्ने । पूर्व: । नि । जहि । शोशुचान: । आमऽअद: । क्ष्विङ्का: । तम् । अदन्तु । एनी: ॥३.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
विषय - अपरिपक्वता को दूर करनेवाली ज्ञान की वाणियाँ
पदार्थ -
१.हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! आप (आरेभाणान्) = आपके स्तवन में प्रवृत्त हमें (स्पृणुहि) = [पालय] रक्षित कीजिए, (उत) = और (आरब्धान) = जिन्होंने हमें जकड़ लिया है। [रभ to clasp] उन (यातुधानान) = पीड़ा का आधान करनेवाले राक्षसीभावों को (ऋष्टिभि:) = [ऋषु गतौ, ऋषिर्दर्शनात्] क्रियाशीलता व ज्ञानरूप शस्त्रों के द्वारा [स्मृणुहि] नष्ट कीजिए [स्मृ to kill]। २. हे अने अग्रणी प्रभो! (शोशचान:) = ज्ञान से दीस होते हुए आप मुझे भी ज्ञानदीप्ति प्राप्त कराके (पूर्व:) = [पृ पालनपूरणयोः] मेरा पालन व पूरण करनेवाले होते हुए (निजहि) = इन राक्षसीभावों को नष्ट कर दीजिए। (आमादः) = [आम अद्] कच्चेपन को समास कर देनेवाली (एनी:) = उज्वल-शुभ्र (श्विङ्का:) = [क्षु शब्दे] ज्ञान की वाणियाँ (तम्) = उस राक्षसीभाव को (अदन्तु) = खा जाएँ।
भावार्थ -
हमारे अशुभभाव दूर होकर हमारे जीवनों में शुद्धभावों का वर्धन हो। ये ज्ञान की वाणियाँ हमारी अपरिपक्वता को दूर कर दें। परिपक्व विचारोंवाले बनकर हम अशुभ वासनाओं में न फंस जाएँ।
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