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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 15
    सूक्त - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यः पौरु॑षेयेण क्र॒विषा॑ सम॒ङ्क्ते यो अश्व्ये॑न प॒शुना॑ यातु॒धानः॑। यो अ॒घ्न्याया॒ भर॑ति क्षी॒रम॑ग्ने॒ तेषां॑ शी॒र्षाणि॒ हर॒सापि॑ वृश्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । पौरु॑षेयेण । क्र॒विषा॑ । स॒म्ऽअ॒ङ्क्ते । य: । अश्व्ये॑न । प॒शुना॑ । या॒तु॒ऽधान॑: । य: । अ॒घ्न्याया॑: । भर॑ति । क्षी॒रम् । अ॒ग्ने॒ । तेषा॑म् । शी॒र्षाणि॑ । हर॑सा । अपि॑ । वृ॒श्च॒ ॥३.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः। यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । पौरुषेयेण । क्रविषा । सम्ऽअङ्क्ते । य: । अश्व्येन । पशुना । यातुऽधान: । य: । अघ्न्याया: । भरति । क्षीरम् । अग्ने । तेषाम् । शीर्षाणि । हरसा । अपि । वृश्च ॥३.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 15

    पदार्थ -

    १. हे (अग्ने) = राजन्! (तेषाम्) = उनके (शीर्षाणि) = शिरों को (हरसा) = अपने ज्वलित तेज से (वृश्च) = तू छिन्न करनेवाला हो, अर्थात् इनको उचित दण्ड देकर इनके अपवित्र कार्यों से इन्हें रोक। सबसे प्रथम उसे रोक (यः) जो अपने को (पौरुषेयेण क्रविषा) = पुरुष-सम्बन्धी मांस से (संमक्ते) = संगत करता है। जो नर-मांस का सेवन करता है अथवा औरों को नष्ट करके अपने भोगों को बढ़ाता है, २. उसे तू रोक य:-जो अश्व्ये न-घोड़े के मांस से अपने को संगत करता है-जो घोड़े को दिन-रात जोते रखकर अपनी भोगवृत्ति को बढ़ाने का यत्न करता है। यः यातधान:-जो औरों को पीड़ित करनेवाला पशुना-अन्य पशुओं को पीड़ित करके अपने धन को बढ़ाना चाहता है। हे राजन्! तू उसे रोक य: जो अघ्न्याया: अहन्तव्य गौ के क्षीरं भरति-दूध को दूहने की बजाय पीड़ित करके हरना चाहता है। 'बछड़े को भी उचित मात्रा में दूध न देकर सारे दूध को स्वयं ले-लेने की कामना करता है,' उसे भी राजा दण्ड देकर इस अपराध से रोके।

    भावार्थ -

    राजनियम ऐसा हो कि कोई भी मनुष्य अन्य मनुष्यों पर, घोड़ों व अन्य पशुओं पर, विशेषकर गौओं पर क्रूरता न कर सके।

     

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