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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
    सूक्त - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अग्ने॒ त्वचं॑ यातु॒धान॑स्य भिन्धि हिं॒स्राशनि॒र्हर॑सा हन्त्वेनम्। प्र पर्वा॑णि जातवेदः शृणीहि क्र॒व्यात्क्र॑वि॒ष्णुर्वि चि॑नोत्वेनम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । त्वच॑म् । या॒तु॒ऽधान॑स्य । भि॒न्धि॒ । हिं॒स्रा । अ॒शनि॑: । हर॑सा । ह॒न्तु॒ । ए॒न॒म् । प्र । पर्वा॑णि । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । शृ॒णी॒हि॒ । क्र॒व्य॒ऽअत् । क्र॒वि॒ष्णु: । वि । चि॒नो॒तु॒ । ए॒न॒म् ॥३..४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने त्वचं यातुधानस्य भिन्धि हिंस्राशनिर्हरसा हन्त्वेनम्। प्र पर्वाणि जातवेदः शृणीहि क्रव्यात्क्रविष्णुर्वि चिनोत्वेनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । त्वचम् । यातुऽधानस्य । भिन्धि । हिंस्रा । अशनि: । हरसा । हन्तु । एनम् । प्र । पर्वाणि । जातऽवेद: । शृणीहि । क्रव्यऽअत् । क्रविष्णु: । वि । चिनोतु । एनम् ॥३..४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. हे (अग्ने) = राष्ट्र को उन्नतिपथ पर ले-चलनेवाले राजन्! (यातुधानस्य) = प्रजापीड़क के (त्वचम्) = सम्पर्क को (भिन्धि) = तोड़ दे, इसे अपने साथियों से अलग कर दे। अलग होने पर यह अपने जीवन के मार्ग के विषय में ठीक सोच सकता है। (हिंस्त्राशनि:) = [अशनि-master] अज्ञान को नष्ट करनेवाला अध्यापक (हरसा) = वासनाओं को विनष्ट करने की शक्ति से (एनं हन्तु) = इस यातुधान को प्राप्त हो [हन् गतौ]। वह ज्ञान देकर इसे अधर्म मार्ग से हटानेवाला हो। २. हे (जातवेदः) = ज्ञानीपुरुष! तू (पर्वाणि) = इसकी वासना-ग्रन्थियों को (प्रशृणीहि) = प्रकर्षेण नष्ट करनेवाला बन। ज्ञान के द्वारा तू इसे वासनामय जगत् से ऊपर उठा। तू उसे इसप्रकार का ज्ञान दे कि वह (क्रविष्णु:) = औरों के मांस की इच्छावाला (क्रव्यात्) = मांसभक्षक पुरुष-औरों के नाश में लगा हुआ पुरुष (एनम्) = इन द्वेषों व दोषों को (वि चिनोतु) = अपने से पृथक् करनेवाला हो। यह औरों के विनाश पर अपने (आमोद) = भवन को खड़ा न करे।

    भावार्थ -

    राजा यातुधान को उसके साथियों से अलग करे। ज्ञानी पुरुष उसे ज्ञान दें। इस ज्ञान द्वारा वे उसकी वासना-ग्रन्थियों को विनष्ट करें।

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