Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 14
    सूक्त - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    परा॒द्य दे॒वा वृ॑जि॒नं शृ॑णन्तु प्र॒त्यगे॑नं श॒पथा॑ यन्तु सृ॒ष्टाः। वा॒चास्ते॑नं॒ शर॑व ऋच्छन्तु॒ मर्म॒न्विश्व॑स्यैतु॒ प्रसि॑तिं यातु॒धानः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । अ॒द्य । दे॒वा: । वृ॒जि॒नम् । शृ॒ण॒न्तु॒ । प्र॒त्यक् । ए॒न॒म् । श॒पथा॑: । य॒न्तु॒ । सृ॒ष्टा: । वा॒चाऽस्ते॑नम् । शर॑व: । ऋ॒च्छ॒न्तु॒ । मर्म॑न् । विश्व॑स्य । ए॒तु॒ । प्रऽस‍ि॑तिम् । या॒तु॒ऽधान॑: ॥३.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पराद्य देवा वृजिनं शृणन्तु प्रत्यगेनं शपथा यन्तु सृष्टाः। वाचास्तेनं शरव ऋच्छन्तु मर्मन्विश्वस्यैतु प्रसितिं यातुधानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा । अद्य । देवा: । वृजिनम् । शृणन्तु । प्रत्यक् । एनम् । शपथा: । यन्तु । सृष्टा: । वाचाऽस्तेनम् । शरव: । ऋच्छन्तु । मर्मन् । विश्वस्य । एतु । प्रऽस‍ितिम् । यातुऽधान: ॥३.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. (अद्य) = आज (देवा:) = ज्ञान का प्रसार करनेवाले विद्वान् (वृजिनम्) = पाप को (पराशृणन्तु) = दूर शीर्ण कर दें। ज्ञान-प्रसार से पापवृत्ति दूर हो। राष्ट्र में राजा ज्ञान-प्रसार का पूर्ण ध्यान करे। (तृष्टा:) = उत्पन्न किये हुए कर्कश (शपथा:) = अभिशाप (एनम्) = इस शाप देनेवाले को (प्रत्यक यन्तु) = लौटकर आभिमुख्येन प्राप्त हों। समझदार मनुष्य गालियों का उत्तर गालियों में नहीं देता और इसप्रकार अपशब्द बोलनेवाले के पास ही उसके अपशब्द लौट जाते हैं। २. (वाचास्तेनम्) = वाणी की चोरी करनेवाले, अर्थात् अनृत व कटु शब्द बोलनेवाले इस व्यक्ति को इसके वचन ही (शरवः मर्मन् ऋच्छन्तु) = शरतुल्य होकर मर्मस्थलों में प्राप्त हों। इस वाचास्तेन को जहाँ अपने शब्द ही पीड़ाकर हों, वहाँ यह (यातुधाना:) = औरों को पीड़ित करनेवाला व्यक्ति (विश्वस्य) = उस सर्वव्यापक प्रभु के [विशति सर्वत्र] (प्रसितिं एतु) = बन्धन को प्राप्त हो। यह वाचास्तेन पशु-पक्षियों की योनियो में भटकता है। अपने जीवनकाल में भी अपने वचनों से स्वयं कष्ट प्राप्त करता है।

    भावार्थ -

    ज्ञान से पाप दूर होता है। ज्ञानी अपशब्दों को न लेकर बोलनेवाले को ही लौटा देता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top