अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
स॒नाद॑ग्ने मृणसि यातु॒धाना॒न्न त्वा॒ रक्षां॑सि॒ पृत॑नासु जिग्युः। स॒हमू॑रा॒ननु॑ दह क्र॒व्यादो॒ मा ते॑ हे॒त्या मु॑क्षत॒ दैव्या॑याः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒नात् । अ॒ग्ने॒ । मृ॒ण॒सि॒ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । न । त्वा॒ । रक्षां॑सि । पृत॑नासु । जि॒ग्यु॒: । स॒हऽमू॑रान् । अनु॑ । द॒ह॒ । क्र॒व्य॒ऽअद॑: । मा । ते॒ । हे॒त्या: । मु॒क्ष॒त॒ । दैव्या॑या: ॥३.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
सनादग्ने मृणसि यातुधानान्न त्वा रक्षांसि पृतनासु जिग्युः। सहमूराननु दह क्रव्यादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्यायाः ॥
स्वर रहित पद पाठसनात् । अग्ने । मृणसि । यातुऽधानान् । न । त्वा । रक्षांसि । पृतनासु । जिग्यु: । सहऽमूरान् । अनु । दह । क्रव्यऽअद: । मा । ते । हेत्या: । मुक्षत । दैव्याया: ॥३.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 18
विषय - ज्ञान-प्रसार द्वारा यातुधान का अन्त
पदार्थ -
१. है (अग्ने) = राष्ट्र को आगे ले-जानेवाले राजन् ! तू (सनात्) = चिरकाल से (यातुधानान्) = प्रजा व पशुओं के पीड़कों को (मृणसि) = कुचल देता है। (त्वा) = तुझे (पृतनासु) = संग्रामों में (रक्षांसि) = ये राक्षसीवृत्ति के लोग (न) = नहीं (जिग्युः) = जीत पाते। तू (क्रव्याद:) = इन मांसभक्षियों को (सहमूरान्) = जड़ समेत [सह+मूर-मूल] (अनुदह) = भस्म कर दे। इन्हें जड़ समेत भस्म करने का भाव यह है कि "ये न तो मांस खाएँ और न ही इनकी मांस खाने की रुचि रह जाए। विषय तो जाएँ विषरस भी जाए'। (ते) = आपके (दैव्याया: हेत्या:) = दिव्य वज्र से-प्रकाशमय वन से (मा मुक्षत) = कोई भी यातुधान मुक्त न रह जाए। ज्ञान-प्रकाश के फैलने से उनका यातुधानत्व व क्रव्यादपना ही समाप्त हो जाए|
भावार्थ -
राजा राष्ट्र में ज्ञान-प्रसार के द्वारा यातुधानत्व को समाप्त करे।