अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
य॒ज्ञैरिषूः॑ सं॒नम॑मानो अग्ने वा॒चा श॒ल्याँ अ॒शनि॑भिर्दिहा॒नः। ताभि॑र्विध्य॒ हृद॑ये यातु॒धाना॑न्प्रती॒चो बा॒हून्प्रति॑ भङ्ग्ध्येषाम् ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञै: । इषू॑: । स॒म्ऽनम॑मान: । अ॒ग्ने॒ । वा॒चा । श॒ल्यान् । अ॒शनि॑ऽभि: । दि॒हा॒न: । ताभि॑: । वि॒ध्य॒ । हृद॑ये । या॒तु॒ऽधाना॑न् । प्र॒ती॒च: । बा॒हून् । प्रति॑ । भ॒ङ्ग्धि॒ । ए॒षा॒म् ॥३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञैरिषूः संनममानो अग्ने वाचा शल्याँ अशनिभिर्दिहानः। ताभिर्विध्य हृदये यातुधानान्प्रतीचो बाहून्प्रति भङ्ग्ध्येषाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञै: । इषू: । सम्ऽनममान: । अग्ने । वाचा । शल्यान् । अशनिऽभि: । दिहान: । ताभि: । विध्य । हृदये । यातुऽधानान् । प्रतीच: । बाहून् । प्रति । भङ्ग्धि । एषाम् ॥३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
विषय - प्रेरणा व ज्ञान प्राप्त करना
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! अथवा राष्ट्र की अग्रगति को सिद्ध करनेवाले राजन्! आप (यज्ञैः) = उत्तम कर्मों से (इषु:) = प्रेरणाओं को (संनममान:) = प्रेरित करते हुए और (अशनिभि:) = [अशनि-master] आचार्यों के द्वारा (वाचा) = ज्ञान की वाणियों से (शल्यान्) = हृदयवेधी भावनाओं को (दिहान:) = बढ़ाते हुए (ताभिः) = उन प्रेरणाओं से तथा ज्ञानवाणियों से (यातुधानान्) = प्रजापीड़कों को (हृदये विध्य) = हदय में विद्ध कीजिए। इनके हदयों में इनके अपने अपवित्र कार्य ही चुभने लगें। ज्ञान की वाणियाँ इनके हृदयों में इसप्रकार की तीव्र वेदना उत्पन्न करें कि इनका हृदय तीव्र प्रायश्चित्त की भावनावाला हो उठे। २. इसप्रकार इन्हें पापों के प्रति तीन वेदनावाला करके (एषाम्) = इनकी (प्रतीचः बाहून) = पापकर्म में प्रवृत्त [Turmed away-धर्ममार्ग से दूर गई हुई] बाहुओं को (भंग्धि) = तोड़ दे, इनमें पापकर्म करने की शक्ति ही न रहे।
भावार्थ -
राजा उत्तम कौ तथा ज्ञान-प्रकाश के द्वारा यातुधानों के हृदयों में ऐसी चभन पैदा करे कि वे पापकर्म से घृणा करनेवाले बनकर, उनके लिए प्रायश्चित्त करके पवित्र हो जाएँ।
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