अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 13
परा॑ शृणीहि॒ तप॑सा यातु॒धाना॒न्परा॑ग्ने॒ रक्षो॒ हर॑सा शृणीहि। परा॒र्चिषा॒ मूर॑देवाञ्छृणीहि॒ परा॑सु॒तृपः॒ शोशु॑चतः शृणीहि ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । शृ॒णी॒हि॒ । तप॑सा । या॒तु॒ऽधाना॑न् । परा॑ । अ॒ग्ने॒ । रक्ष॑: । हर॑सा । शृ॒णी॒हि॒ । परा॑ । अ॒र्चिषा॑ । मूर॑ऽदेवान् । शृ॒णी॒हि॒ । परा॑ । अ॒सु॒ऽतृप॑: । शोशु॑चत: । शृ॒णी॒हि॒ ॥३.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
परा शृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा शृणीहि। परार्चिषा मूरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपः शोशुचतः शृणीहि ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । शृणीहि । तपसा । यातुऽधानान् । परा । अग्ने । रक्ष: । हरसा । शृणीहि । परा । अर्चिषा । मूरऽदेवान् । शृणीहि । परा । असुऽतृप: । शोशुचत: । शृणीहि ॥३.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 13
विषय - 'तप, तेज व ज्योति' से पाप दूर करना
पदार्थ -
१. (तपसा) = तप के द्वारा (यातुधानान्) = पीड़ा देनेवालों को (पराशृणीहि) = दूर विनष्ट कर । जिस समय जीवन में तप की कमी आ जाती है तब भोगवृत्ति बढ़ जाती है, उसी समय मनुष्य औरों को पीड़ित करनेवाला बनता है। यदि प्रजा में तपस्या की भावना बनी रहे तो उनके जीवनों में यातुधानत्व' आता ही नहीं। हे अने-राजन्! आप हरसा-[ज्वलितेन तेजसा-द०] तेजस्विता के द्वारा रक्ष:-राक्षसीवृत्तिवालों को (पराशृणीहि) = सुदूर विनष्ट करनेवाले होओ। तेजस्विता अशुभ वृत्तियों को विनष्ट करनेवाली है। २. अर्चिषा-ज्ञान की ज्वाला से मूरदेवान् मूर्खतापूर्ण व्यवहार करनेवालों को पराशृणीहि-विनष्ट कीजिए। ज्ञान-प्रसार के द्वारा मूर्खता के नष्ट होने पर सब व्यवहार विवेक व सभ्यता के साथ होने लगते हैं। असुतपः केवल अपने प्राणों को तृप्त करने में लगे हुए शोशुचत:-[to burn, consume] औरों के शोक का कारण बनते हुए इन लोगों को तू पराशृणीहि-सुदूर विनष्ट कर।
भावार्थ -
जीवन में तपस्या के द्वारा यातुधानत्व का विनाश हो, तेजस्विता से राक्षसीवृत्ति का विलोप हो और ज्ञान-प्रसार के द्वारा 'मूर्खतापूर्ण व्यवहार तथा केवल अपने को तृस करने की वृत्ति' का-स्वार्थ का विलोप हो।
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