अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
सूक्त - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
अयो॑दंष्ट्रो अ॒र्चिषा॑ यातु॒धाना॒नुप॑ स्पृश जातवेदः॒ समि॑द्धः। आ जि॒ह्वया॒ मूर॑देवान्रभस्व क्र॒व्यादो॑ वृ॒ष्ट्वापि॑ धत्स्वा॒सन् ॥
स्वर सहित पद पाठअय॑:ऽदंष्ट्र: । अ॒र्चिषा॑ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । उप॑ । स्पृ॒श॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । सम्ऽइ॑ध्द: । आ । जि॒ह्वया॑ । मूर॑ऽदेवान् । र॒भ॒स्व॒ । क्र॒व्य॒ऽअद॑: । वृ॒ष्ट्वा । अपि॑ । ध॒त्स्व॒ । आ॒सन् ॥३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अयोदंष्ट्रो अर्चिषा यातुधानानुप स्पृश जातवेदः समिद्धः। आ जिह्वया मूरदेवान्रभस्व क्रव्यादो वृष्ट्वापि धत्स्वासन् ॥
स्वर रहित पद पाठअय:ऽदंष्ट्र: । अर्चिषा । यातुऽधानान् । उप । स्पृश । जातऽवेद: । सम्ऽइध्द: । आ । जिह्वया । मूरऽदेवान् । रभस्व । क्रव्यऽअद: । वृष्ट्वा । अपि । धत्स्व । आसन् ॥३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
विषय - ज्ञान+उपासना
पदार्थ -
१.हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (समिद्धः) = गतमन्त्र के अनुसार क्रतुओं द्वारा दीप्त हुए-हुए (अयोदंष्ट्र:) = तीक्ष्ण दंष्ट्राओंवाले आप (अर्चिषा) = अपनी ज्ञानज्वाला से (यातुधानान्) = पीड़ा का आधान करनेवाली राक्षसी वृत्तियों को (उपस्पृशम्) = समीपता से स्पर्श करते हुए भस्म कर देते हैं। आपके द्वारा सब अशुभ वृत्तियों दूर की जाती हैं। २. आप (मूरदेवान्) = [दिव् व्यवहारे] मूढ़तापूर्ण व्यवहार करनेवालों को (जिह्वया) = [Flame] ज्ञानज्वाला के द्वारा (आरभस्व) = [to form] उत्तम जीवनवाला बनाइए। (क्रव्यादः) = मांसभक्षण करनेवालों को वृष्ट्वा [to bestow]-ज्ञान देकर (आसन् अपिधत्स्व) = अपने मुख में धारण कीजिए [आसन्-face]। इसे अपने सामने अपनी उपासना में संलग्न कीजिए।
भावार्थ -
प्रभु के अनुग्रह से ज्ञानज्वाला द्वारा हमारे अशुभ कर्म नष्ट हो जाएँ और उपासना के द्वारा हमारा जीवन पवित्र बन जाए।
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