ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 15
ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः
देवता - मरूतः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒ताव॑तश्चिदेषां सु॒म्नं भि॑क्षेत॒ मर्त्य॑: । अदा॑भ्यस्य॒ मन्म॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ताव॑तः । चि॒त् । एषाम् । सु॒म्नम् । भि॒क्षे॒त॒ । मर्त्यः॑ । अदा॑भ्यस्य । मन्म॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतावतश्चिदेषां सुम्नं भिक्षेत मर्त्य: । अदाभ्यस्य मन्मभिः ॥
स्वर रहित पद पाठएतावतः । चित् । एषाम् । सुम्नम् । भिक्षेत । मर्त्यः । अदाभ्यस्य । मन्मऽभिः ॥ ८.७.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 15
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अदाभ्यस्य) केनचिदपि धृष्टुमशक्यानाम् (एतावतः) एतावन्महिम्नाम् (एषाम्) एषां योद्धॄणाम् (सुम्नम्) सुखम् (मर्त्यः) मनुष्यः (मन्मभिः) ज्ञानैः (भिक्षेत) याचेत ॥१५॥
विषयः
आत्मज्ञानेन सुखं भवतीति दर्शयति ।
पदार्थः
एतावतश्चित्=इयत्परिमाणस्य=एतद्देहपरिमाणस्य । अदाभ्यस्य=केनापि हिंसितुमशक्यस्य आत्मनः । मन्मभिः=मननैः । मर्त्यः । एषामिन्द्रियाणाम् । सुम्नम्=सुखम् । भिक्षेत=याचेत ॥१५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अदाभ्यस्य) किसी से भी तिरस्कार करने में अशक्य (एतावतः) इतनी महिमावाले (एषाम्) इन योद्धाओं के (सुम्नम्) सुख को (मर्त्यः) मनुष्य (मन्मभिः) अनेकविध ज्ञानों द्वारा (भिक्षेत) लब्ध करे ॥१५॥
भावार्थ
जो योधा किसी से तिरस्कृत नहीं होते अर्थात् जो अपने क्षात्रबल में पूर्ण हैं, उन्हीं से अपनी रक्षा की भिक्षा माँगनी चाहिये ॥१५॥
विषय
आत्मज्ञान से सुख होता है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(एतावतः+चित्) इस शरीर के बराबर और (अदाभ्यस्य) सदा अविनश्वर आत्मा के (मन्मभिः) मनन, निदिध्यासन और दर्शन से (एषाम्) इन इन्द्रियों का (सुम्नम्) सुख (मर्त्यः+भिक्षेत) उपासक माँगे ॥१५ ॥
भावार्थ
आत्मा आत्मा को जाने, तब ही सुख प्राप्त होगा ॥१५ ॥
विषय
उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( मर्त्यः ) मनुष्य ( एषां ) इन वीर वा विद्वान् पुरुषों में से ( अदाभ्यस्य ) शत्रुओं से नाश न होने वाले, ( एतावतः ) ऐसे ही महान् गुणवान् पुरुष से ( मन्मभिः ) उत्तम स्तुति युक्त वचनों से ( सुम्नम् भिक्षेत ) सुखप्रद धन और शुभ ज्ञान की याचना करें। निर्गुण अल्प चित्त वाले से ज्ञान, धनादि लेना न चाहे। इति विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्राणरक्षण व ज्ञान का मनन
पदार्थ
[१] (एतावतः) = इतने से, अर्थात् गतमन्त्र के अनुसार क्योंकि ये मरुत् [प्राण] हमें इन सोमकणों के रक्षण के द्वारा आनन्दित करते हैं, इसलिए (एषाम्) = इन प्राणों के (सुम्नम्) = रक्षण को (भिक्षेत) = माँगे। 'प्राणों का रक्षण हमें प्राप्त हो' ऐसी कामना उपासक करे। [२] (अदाभ्यस्य) = उस अहिंसनीय प्रभु के (मन्मभिः) = दिये गये इन ज्ञानों के साथ हम प्राणों के रक्षण की कामना करें। ये प्रभु से दिये जानेवाले ज्ञान हमें प्राप्त हों। और प्राणायाम द्वारा प्राणों की साधना करते हुए हम अपना रक्षण कर पायें। प्राणसाधना से ही शरीर में सोम का रक्षण होगा। उसके रक्षण से ही सब रक्षणों का सम्भव होगा।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्राणसाधना करें और प्रभु से दिये गये इन ज्ञानों को प्राप्त करने का प्रयत्न करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
To these warriors of the winds of this high order of indomitable powers, let mortal man pray for peace and joy with thoughts and words of full awareness of the giver and the supplicant.
मराठी (1)
भावार्थ
जे योद्धे कुणाकडून तिरस्कृत होत नाहीत, अर्थात् जे क्षात्रबलाने परिपूर्ण आहेत त्यांनाच आपल्या रक्षणाची भिक्षा मागितली पाहिजे. ॥१५॥
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