ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 24
अनु॑ त्रि॒तस्य॒ युध्य॑त॒: शुष्म॑मावन्नु॒त क्रतु॑म् । अन्विन्द्रं॑ वृत्र॒तूर्ये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । त्रि॒तस्य॑ । युध्य॑तः । शुष्म॑म् । आ॒व॒न् । उ॒त । क्रतु॑म् । अनु॑ । इन्द्र॑म् । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु त्रितस्य युध्यत: शुष्ममावन्नुत क्रतुम् । अन्विन्द्रं वृत्रतूर्ये ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । त्रितस्य । युध्यतः । शुष्मम् । आवन् । उत । क्रतुम् । अनु । इन्द्रम् । वृत्रऽतूर्ये ॥ ८.७.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 24
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ तेषां जागरूकत्वं वर्ण्यते।
पदार्थः
(वृत्रतूर्ये) असुरसंग्रामे (युध्यतः, त्रितस्य, अनु) युद्धं कुर्वतः सेनात्रयाधिपस्य पश्चात् (शुष्मम्, आवन्) तस्य बलं रक्षन्ति (उत) अथ च (क्रतुम्) तदीयं राष्ट्रकर्म च रक्षन्ति (इन्द्रम्) सम्राजं च (अनु) अनुरक्षन्ति ॥२४॥
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
त्रितस्य=त्रिततस्य=त्रिषु स्थानेषु भूमौ, अन्तरिक्षे दिवि च ततस्य व्याप्तस्य । युध्यतः=स्वकार्य्ये व्याप्रियमाणस्य । अग्नेः=शुष्मम्=बलम् । अन्वावन्=अन्वरक्षन्=आनुकूल्येन रक्षन्ति । उत=अपि च । क्रतुम्=कर्म=सत्ताञ्च । ते रक्षन्ति । पुनः । वृत्रतूर्य्ये=वृत्राणाम्=विघ्नानाम् । तूर्य्ये=संग्रामे । इन्द्रम्=सूर्य्यं च । अन्ववन्ति ॥२४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब उन योद्धाओं का अपने सब कामों में जागरूक होना कथन करते हैं।
पदार्थ
(वृत्रतूर्ये) असुरों के संग्राम में (युध्यतः, त्रितस्य, अनु) युद्ध करते हुए तीन सेनाओं के अधिपति के पीछे (शुष्मं, आवन्) उसके बल की रक्षा करते (उत) और साथ ही (क्रतुम्) राष्ट्रकर्म की भी रक्षा करते तथा (इन्द्रम्) सम्राट् को (अनु) सुरक्षित रखते हैं ॥२४॥
भावार्थ
ये अग्रणी विद्वान् योद्धा संग्राम में युद्ध करते हुए पिछले तीसरे मण्डल की रक्षा करते और सम्राट् को भी सुरक्षित रखते हुए राष्ट्र की रक्षा करते हैं, जिससे वे कृतकार्य्य होकर राष्ट्र को मङ्गलमय बनाते हैं ॥२४॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
पुनः मरुद्गण के कर्म कहे जाते हैं । वे मरुत् (त्रितस्य) भूमि, अन्तरिक्ष और द्युलोक में व्याप्त और (युध्यतः) स्वव्यापार में लगे हुए अग्नि के (शुष्मम्) बल की (अनु+आवन्) अनुकूलता के साथ रक्षा करते हैं (उत) और (क्रतुम्) अग्नि की सत्ता की भी रक्षा करते हैं । तथा (वृत्रतूर्ये) विघ्नों के साथ संग्राम में (इन्द्रम्+अनु) सूर्य को भी साहाय्य पहुँचाते हैं ॥२४ ॥
भावार्थ
अग्नि का भी सहायक वायु होता है और सूर्य्य का भी, विज्ञानशास्त्र के अध्ययन से इस विषय को जानो ॥२४ ॥
विषय
उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( वृत्रतूर्ये इन्द्रं अनु शुष्मम् क्रतुम् आवन् ) मेघ के छिन्न करने के अवसर में वायुगण सूर्य के अनुकूल ही बलयुक्त कर्म को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार वीर सैन्य जन भी (वृत्र-तूर्ये) शत्रु के नाशकारी संग्राम के अवसर में ( त्रितस्य युद्धयतः ) स्व और पर से अतिरिक्त तीसरे बलशाली से लड़ते हुए ( इन्द्रम् अनु ) अपने सेनापति के कथनानुसार ( उत ) ही ( शुष्मम् क्रतुम् ) बल और उद्योग कर्म को ( अनु आवन् ) खूब प्राप्त करते और बलवान् और क्रियावान् भाग की खूब रक्षा करते हैं।
टिप्पणी
त्रितः–तीर्णतमो मेधया बभूव। अपिवा संख्यानामैवाभिप्रेतः स्यादेकतो द्वितस्त्रित इति त्रयो बभूवः। निरु० अ० ४ । पा० १ । ६ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
शुष्म-क्रतु [ शक्ति - प्रज्ञान ]
पदार्थ
[१] (युध्यतः) = वासनाओं से युद्ध करते हुए (त्रितस्य) = मेधा से तीर्णतम [नि० ४/१/६], अर्थात् अत्यन्त मेधावी पुरुष के (शुष्मम्) = शत्रु-शोषक बल को ये प्राण (अनु आवन्) = अनुकूलता से रक्षित करते हैं। (उत) = और (क्रतुम्) = इसके प्रज्ञान का रक्षण करते हैं। [२] (वृत्रतूर्ये) = वासना विनाशवाले संग्राम में ये प्राण (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अनु) = अनुकूलता से रक्षित करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - जिस समय मेधावी पुरुष वासनाओं से युद्ध करता है तो ये प्राण उसके बल व प्रज्ञान का रक्षण करते हैं । इन्द्र इन प्राणों की सहायता से ही वासना का संहार कर पाता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
They reinforce the powers of life struggling for positive forces fighting against three negativities of body, mind and soul, and they support and reinforce the ruler in his battle against evil and darkness.
मराठी (1)
भावार्थ
अग्रणी विद्वान योद्धे युद्धात युद्ध करताना मागच्या तिन्ही सेनांचे रक्षण करतात व सम्राटालाही सुरक्षित ठेवत राष्ट्राचे रक्षण करतात. ज्यामुळे ते कृतकार्य होऊन राष्ट्राला मंगलमय बनवितात. ॥२४॥
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