ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
उदी॑रयन्त वा॒युभि॑र्वा॒श्रास॒: पृश्नि॑मातरः । धु॒क्षन्त॑ पि॒प्युषी॒मिष॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ई॒र॒य॒न्त॒ । वा॒युऽभिः॑ । वा॒श्रासः॑ । पृश्नि॑ऽमातरः । धु॒क्षन्त॑ । पि॒प्युषी॑म् । इष॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीरयन्त वायुभिर्वाश्रास: पृश्निमातरः । धुक्षन्त पिप्युषीमिषम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ईरयन्त । वायुऽभिः । वाश्रासः । पृश्निऽमातरः । धुक्षन्त । पिप्युषीम् । इषम् ॥ ८.७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ वेदवाग् माता स्वतःप्रमाणं चास्तीति कथ्यते।
पदार्थः
(पृश्निमातरः) सरस्वतीमातरः (वाश्रासः) शब्दायमाना मरुतः (वायुभिः) सेनाभिः (उदीरयन्त) शत्रून् प्रेरयन्ति (पिप्युषीम्) बलादीनां वर्धयित्रीम् (इषम्) सम्पत्तिं (धुक्षन्त) दुहन्ति ॥३॥
विषयः
प्राणायामफलमाह ।
पदार्थः
वाश्रासः=वाशनशीलाः शब्दकारिणः प्राणायामकाले । पृश्निमातरः=पृश्निर्माध्यमिका वाक् सा माता जननी येषां ते पृश्निमातरः=आन्तरिकवाणीप्रेरिता इत्यर्थः । इदृशा मरुतः प्राणाः । यदा । वायुभिर्बाह्यैः सह । उदीरयन्त=ऊर्ध्वं गच्छन्ति । तदा । पिप्युषीम्=वर्धयित्रीम् । इषम्=मेधान्नम् । धुक्षन्त=दुहन्ति=प्राप्नुवन्ति ॥३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब वेदवाणी को माता तथा स्वतःप्रमाण कथन करते हैं।
पदार्थ
(पृश्निमातरः) सरस्वती मातावाले (वाश्रासः) शब्दायमान योद्धा लोग (वायुभिः) वायुसदृश सेना द्वारा (उदीरयन्त) शत्रुओं को प्रेरित करते हैं (पिप्युषीम्) बलादि को बढ़ानेवाली (इषम्) सम्पत्ति को (धुक्षन्ति) दुहते हैं ॥३॥
भावार्थ
जिन लोगों की एकमात्र ईश्वर की वाणी माता है, वे लोग सदैव विजय को प्राप्त होते हैं, क्योंकि ईश्वर की वाणी को मानकर ईश्वर के नियमों पर चलने के समान संसार में और कोई बल नहीं, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह वेदवाणी को स्वतःप्रमाण मानता हुआ ईश्वर के नियमों पर चले ॥३॥
विषय
प्राणायाम का फल कहते हैं ।
पदार्थ
(वाश्रासः) प्राणायामकाल में शब्द करनेवाले (पृश्निमातरः) और आन्तरिक वायु से प्रेरित प्राण जब (वायुभिः) बाह्य वायुओं के साथ (उदीरयन्त) ऊपर उठते हैं तब (पिप्युषीम्+इषम्) नित्य बढ़नेवाले मेधा को (धुक्षन्त) आत्मा से प्राप्त करते हैं ॥३ ॥
भावार्थ
जब आन्तरिक वायु बाह्य वायु के साथ मिलकर प्राणायामकाल में ऊपर को चढ़ता है, तब प्रत्येक नयनादिक प्राण को पूर्ण बल और बुद्धि प्राप्त होती है अर्थात् धीरे-२ शक्ति और ज्ञान का प्रकाश होने लगता है ॥३ ॥
विषय
मेघ और वृष्टि लाने वाले वायुगण का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( पृश्नि-मातरः ) प्रबल धारा वर्षण करने वाली नीहारिका से उत्पन्न ( वाश्रासः ) गर्जनाशील मेघ ( वायुभिः इत् ईरयन्त ) वायुओं के साथ उठते हैं तब वे ( पिष्युषीम् इषं धुक्षन्त ) अन्न वनस्पति-आदि को बढ़ाने वाली जलवृष्टि को प्रदान करते हैं। इसी प्रकार ( पृश्नि-मातरः ) माता भूमि विद्वान् गुरुओं और विदुषी माताओं के पुत्र ( वाश्रासः ) उपदेष्टा पुरुष ( वायुभिः ) वायुवत् बलवान् प्राणों और नेता पुरुषों से युक्त होकर ( उद् ईरयन्ते ) ऊपर को उठते हैं तब वे ( पिष्युषीम् ) राष्ट्र को बढ़ाने वाली ( इषम् ) सेना को ( धुक्षन्त ) पूर्ण करते हैं । वा राष्ट्र से वृद्धिकारक बल और अन्न का दोहन करते हैं । अर्थात् प्रयाण के पूर्व अन्न और बल का सञ्चय करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
वाश्रासः पृश्निमातरः
पदार्थ
[१] ये साधक लोग (वायुभिः) = इन प्राणों के द्वारा, प्राणसाधना के द्वारा (उदीरयन्त) = ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं। (वाश्रासः) = प्रभु के नामों का उच्चारण करते हैं। (पृश्निमातरः) = प्रकाश की किरणों का अपने अन्दर निर्माण करनेवाले होते हैं। [२] ये (पिप्युषीम्) = जीवन को आप्यायित करनेवाले (इषम्) = अन्न को (धुक्षन्त) = अपने में पूरित करते हैं। प्राणसाधना के साथ इस सात्त्विक अन्न का सेवन इनको योग मार्ग में आगे बढ़ानेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणायाम के साथ सात्त्विक अन्न का सेवन करते हुए ये साधक प्रभु के नामों का उच्चारण करते हैं और स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान-रश्मियों का वर्धन करते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Children of earth and heaven chanting holy songs with the winds, the Maruts bring down streams of food and energy from the skies.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या लोकांची एकमेव माता ईश्वराची वाणी आहे त्या लोकांचा सदैव विजय होतो. कारण ईश्वराची वाणी मानून ईश्वराच्या नियमाप्रमाणे चालण्याने जगात दुसरे कोणते बल नाही. त्यासाठी माणसांनी वेदवाणीला स्वत: प्रमाण मानून ईश्वराच्या नियमाप्रमाणे वागावे. ॥३॥
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