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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 28
    ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यदे॑षां॒ पृष॑ती॒ रथे॒ प्रष्टि॒र्वह॑ति॒ रोहि॑तः । यान्ति॑ शु॒भ्रा रि॒णन्न॒पः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ए॒षा॒म् । पृष॑तीः । रथे॑ । प्रष्टिः॑ । वह॑ति । रोहि॑तः । यान्ति॑ । शु॒भ्राः । रि॒णन् । अ॒पः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदेषां पृषती रथे प्रष्टिर्वहति रोहितः । यान्ति शुभ्रा रिणन्नपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । एषाम् । पृषतीः । रथे । प्रष्टिः । वहति । रोहितः । यान्ति । शुभ्राः । रिणन् । अपः ॥ ८.७.२८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 28
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (यत्) यदा (एषाम्) इमान् “कर्मणि षष्ठी” (प्रष्टिः) शीघ्रगामी सारथिः (रथे) रथे उपवेश्य (पृषतीः) सेचनीयस्थलीः प्रति (वहति) प्रापयति तदा (शुभ्राः, अपः) स्वच्छजलानि (रिणन्) उत्पादयन्तः (यान्ति) गच्छन्ति ॥२८॥

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    विषयः

    प्राणायामफलं दर्शयति ।

    पदार्थः

    यद्=यदा । एषां मरुताम्=प्राणानाम् । रथे=रमणीये शरीरे । स्थिताः । पृषतीः=जलपूर्णा नाडीः इन्द्रियाणां गतीर्वा । प्रष्टिः=प्राशुः=शीघ्रगामी । रोहितो रागवन्मनः । वहति । तदा । शुभ्राः=शुद्धाः=सात्त्विकाः । अपः=आपो जलानि । यान्ति । रिणन्=निर्गच्छन्ति=प्रवहन्ति ॥२८ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (यत्) जब (एषाम्) इनको (प्रष्टिः) शीघ्रगामी सारथी (रथे) रथ में चढ़ाकर (पृषती) जलसम्बन्धी स्थलियों की ओर (वहति) ले जाता है, तब वे (शुभ्राः, अपः) जलों को स्वच्छ (रिणन्) करते हुए (यान्ति) जाते हैं ॥२८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि पदार्थविद्यावेत्ता पुरुषों का यह भी कर्तव्य है कि वह युद्धसम्बन्धी जलों का भी संशोधन करें, ताकि किसी प्रकार का जलसम्बन्धी रोग उत्पन्न न हो ॥२८॥

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    विषय

    प्राणायाम का फल दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (यद्) जब (प्रष्टिः) अतिशीघ्रगामी (रोहितः) ईश्वर की ओर रागवान् मन (एषाम्) इन प्राणों के (रथे) रमणीय शरीर में स्थित (पृषतीः) जलपूर्ण नाड़ियों अथवा इन्द्रियों की गतियों को (वहति) ईश्वर की ओर ले चलता है, तब (शुभ्राः) शुद्ध=सात्त्विक (अपः) करुणरसपूर्ण जल (यान्ति) निकल आते हैं, (रिणन्) अवश्य निकलते हैं ॥२८ ॥

    भावार्थ

    जब भगवान् की ओर मन जाता है, तब नयन से करुणरस निकलने लगते हैं ॥२८ ॥

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    विषय

    उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार वायुओं के ( रथे ) वेग में ( पृषतीः ) जल सेचन करने वाली मेघमालाओं को ( प्रष्टिः ) वेगवान् वायु और ( रोहितः ) रक्तवर्ण सूर्य ( वहति ) वहन करता है तब वे भी ( यान्ति ) गति करते और ( शुभ्राः अपः रिणन् ) स्वच्छ जल पहुंचाते हैं। उसी प्रकार (एषां) इन वीरों के ( रथे ) रथ समुदाय में ( पृषतीः ) हृष्ट पुष्ट शस्त्रवर्षी सेनाएं वा नियुक्त अश्व ( प्रष्टिः ) शीघ्र चालक ( रोहितः ) सारथिवत् सेनापति वहन करे तब ये भी ( शुभ्राः ) शुद्ध, सुन्दर ( अपः ) जलधाराओंवत् सैन्यधाराओं का सञ्चालन करते हुए ( यान्ति ) प्रयाण करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    रोहितः प्रष्टिः

    पदार्थ

    [१] (यद्) = जब (एषाम्) = इन प्राणसाधकों के (रथे) = शरीर-रथ में (पृषतीः) = इन इन्द्रिय मृगों को, इन्द्रियरूप मृगों को वह (रोहितः) = सब दृष्टिकोणों से बढ़ा हुआ (प्रष्टिः) = द्रष्टा प्रभु [ अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति] (वहति) = प्राप्त कराता है, अर्थात् प्रभु इनका नियन्ता बनता है, तो ये साधक (शुभ्राः) = शुभ्र जीवनवाले बनकर (यान्ति) = गतिशील होते हैं। (अपः) = रेतः कणरूप जलों को (रिणन्) = अपने अन्दर प्रेरित करते हैं । [२] हमारे इस शरीर रथ का नियन्ता प्रभु बनें। वह द्रष्टा प्रभु जब हमारे इन इन्द्रिय मृगों के नियन्ता बनते हैं, तो हमारे जीवन में किसी प्रकार की मलिनता नहीं आती। जीवन शुभ्र बन जाता है। उस समय रेतःकणों की ऊर्ध्वगति होकर जीवन 'नीरोग, निर्मल व दीप्त' बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे इन्द्रिय मृगों के नियन्ता बनें। ऐसा होने पर हमारे जीवन शुभ्र बनेंगे। शक्तिकण शरीर में ही प्रेरित होंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the fiery force drives the Maruts in their chariot towards regions of abundant water or to the clouds laden with vapour, then these heroes go forward bright and pure splitting and flying off the vapours and waters.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात हा भाव आहे की, पदार्थविद्यावेत्ते पुरुषांचे हे कर्तव्य आहे की, त्यांनी युद्धासाठी जलसंशोधन करावे. कारण पाण्यामुळे कोणत्याही प्रकारचा रोग होऊ नये ॥२८॥

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