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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 36
    ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्निर्हि जानि॑ पू॒र्व्यश्छन्दो॒ न सूरो॑ अ॒र्चिषा॑ । ते भा॒नुभि॒र्वि त॑स्थिरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । हि । जानि॑ । पू॒र्व्यः । छन्दः॑ । न । सूरः॑ । अ॒र्चिषा॑ । ते॒ । भा॒नुऽभिः॑ । वि । त॒स्थि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्हि जानि पूर्व्यश्छन्दो न सूरो अर्चिषा । ते भानुभिर्वि तस्थिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । हि । जानि । पूर्व्यः । छन्दः । न । सूरः । अर्चिषा । ते । भानुऽभिः । वि । तस्थिरे ॥ ८.७.३६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 36
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथोक्तगुणसम्पन्नयोद्धृभिः सम्पन्नस्य सम्राजो यशो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (अर्चिषा, सूरः, न) अर्चिषा हेतुना सूर्य्य इव (अग्निः, हि) अग्निसदृशः सम्राडेव (पूर्व्यः, छन्दः) प्रथमः स्तोतव्यः (जानि) जायते अस्य कानि अर्चींषि इत्याह (ते) ते योद्धार एव (भानुभिः) किरणैस्तुल्याः (वितस्थिरे) उपस्थिता भवन्ति ॥३६॥ इति सप्तमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    विषयः

    मरुत्स्वभावं दर्शयति ।

    पदार्थः

    छन्दः=छन्दनीयः प्रार्थनीयः । सूरो न=सूर्य्य इव । अग्निर्हि=अग्निरपि । पूर्व्यः=सर्वदेवेषु मुख्यः प्रथमो वा । अर्चिषा । जनि=अजनि=अजायत । तत्पश्चात् । ते मरुतः । भानुभिः=अग्निप्रभाभिः प्रेरिताः सन्तः । वितस्थिरे= विविधमवतिष्ठन्ते ॥३६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब उक्त गुणसम्पन्न योद्धाओं से सम्पन्न सम्राट् का यश वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (अर्चिषा, सूरः, न) जिस प्रकार किरणों के हेतु से सूर्य्य प्रथम स्तोतव्य माना जाता है इसी प्रकार (अग्निः, हि) अग्निसदृश सम्राट् ही (पूर्व्यः, छन्दः) प्रथम स्तोतव्य (जानि) होता है (ते) और वे योद्धालोग ही (भानुभिः) उसकी किरणों के समान (वितस्थिरे) उपस्थित होते हैं ॥३६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि उक्त प्रकार के योद्धा जिस सम्राट् के वशवर्ती होते हैं, उसका तेज सहस्रांशु सूर्य्य के समान दशों दिशाओं में फैलकर अन्यायरूप अन्धकार को निवृत्त करता हुआ सम्पूर्ण संसार का प्रकाशक होता है ॥३६॥ यह सातवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    मरुत्स्वभाव दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (छन्दः) प्रार्थनीय (सूरः+न) सूर्य के समान (अग्निः+हि) अग्नि (पूर्व्यः) सर्व देवों में प्रथम (अर्चिषा) ज्वाला के साथ (जनि) उत्पन्न होता है अर्थात् सूर्य्य के साथ-२ अग्नि है तत्पश्चात् (ते) वे मरुद्गण (भानुभिः) आग्नेय तेजों से प्रेरित होने पर (वितस्थिरे) विविध प्रकार स्थित होते हैं ॥३६ ॥

    भावार्थ

    यह निश्चित विषय है कि प्रथम आग्नेय शक्ति की अधिकता होती है, पश्चात् वायुशक्ति की, यही विषय इसमें कहा गया है ॥३६ ॥

    टिप्पणी

    यह अष्टम मण्डल का सातवाँ सूक्त और २४ चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अग्निः ) अग्नि जिस प्रकार ( पूर्व्यः जनि ) सब से पूर्व विद्यमान रहता है और वह (अर्चिषा ) ज्वाला से (सूरः न छन्दः) सूर्य के समान दीप्तियुक्त मनोहर होता है और नाना वायुगण ( भानुभिः ) विद्युत् आदि दीप्तियों से युक्त होकर (वि तस्थिरे) विविध प्रकार से चमकते रहते हैं उसी प्रकार ( अग्निः ) ज्ञानी, तेजस्वी अग्रणी नायक प्रभु (पूर्व्यः जनि ) सब से पूर्व विद्यमान रहता है । वह ज्ञानदीप्ति से सूर्यवत् सब का उत्पादक और ( छन्दः ) रक्षक रहा । ( ते ) वे नाना जीवगण और सूर्य चन्द्र आदि लोक उसी के ( भानुभिः ) प्रकाशों से ( वि तस्थिरे ) विविध प्रकारों से विविध लोकों में रहते हैं । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    पूर्व्यः छन्दः

    पदार्थ

    [१] (अग्निः) = यह अग्रेणी प्रभु (हि) = निश्चय से (जानि) = हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत होता है । (पूर्व्यः) = यह सृष्टि से पहले होनेवाला है। (छन्दः) = [छादयिता] उपासक का रक्षण करनेवाला है। (अर्चिषा) = अपनी दीप्ति से (सूरः न) = सूर्य के समान है। [२] (ते) = वे प्राणसाधना द्वारा हृदयों में इस प्रभु का दर्शन करनेवाले लोग (भानुभिः) = ज्ञानदीप्तियों के साथ (तिस्थिरे) = विशेषरूप से स्थित होते हैं। ये प्रकाशमय जीवनवाले बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से हृदयों में प्रभु का प्रकाश होता है। इस प्रभु-प्रेरणा से हृदय जगमगा उठता है। इस प्रभु के प्रादुर्भाव से ये उपासक 'सध्वंस' = वासनाओं के ध्वंस करनेवाले होते हैं। ये मेधावी 'काण्व' तो हैं ही। ये 'अश्विनौ' = प्राणापान का आराधन करते हुए कहते हैं-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, earliest ruling light of the world, came into existence with self-refulgence like the sun and the music of Vedic voice, and the Maruts manifested and ever abided by rays of the sun and flames of fire.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे योद्धे ज्या सम्राटाचे वशवर्ती असतात. त्याचे तेज सहस्रांशु सूर्याप्रमाणे दशदिशांमध्ये पसरून तो अन्यायरूपी अंध:कार निवृत्त करतो व संपूर्ण जगाचा प्रकाशक बनतो ॥३६॥

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