ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 32
स॒हो षु णो॒ वज्र॑हस्तै॒: कण्वा॑सो अ॒ग्निं म॒रुद्भि॑: । स्तु॒षे हिर॑ण्यवाशीभिः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒हो इति॑ । सु । नः॒ । वज्र॑ऽहस्तैः । कण्वा॑सः । अ॒ग्निम् । म॒रुत्ऽभिः॑ । स्तु॒षे । हिर॑ण्यऽवाशीभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहो षु णो वज्रहस्तै: कण्वासो अग्निं मरुद्भि: । स्तुषे हिरण्यवाशीभिः ॥
स्वर रहित पद पाठसहो इति । सु । नः । वज्रऽहस्तैः । कण्वासः । अग्निम् । मरुत्ऽभिः । स्तुषे । हिरण्यऽवाशीभिः ॥ ८.७.३२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 32
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(कण्वासः) हे विद्वांसः ! (नः, मरुद्भिः) मम योद्धृभिः (सहो) सह (अग्निम्) अग्निसदृशं सम्राजम् (वज्रहस्तैः) तीक्ष्णशस्त्रहस्तैः (हिरण्यवाशीभिः) स्वर्णमयशस्त्रैः (सु, स्तुषे) साधु स्तुध्वम् ॥३२॥
विषयः
इन्द्रियवशीकरणफलमाह ।
पदार्थः
हे कण्वासः=हे कण्वाः स्तुतिपाठका विद्वांसो मनुष्याः । वज्रहस्तैः=दण्डपाणिभिः । पुनः । हिरण्यवाशीभिः= हिरण्मयी=सुवर्णमयी । वाशी=तक्षणसाधनं येषामिति तैः । ईदृशैः । मरुद्भिः प्राणैः । सह+उ+सु=सहैव विद्यमानम् । अग्निं परमात्मानं जीवात्मानं वा । अहम् । स्तुषे=स्तौमि । तथा यूयमपि स्तुध्वम् ॥३२ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(कण्वासः) हे विद्वानो ! आप (मरुद्भिः) योद्धाओं के (सहो) साथ (नः) हमारे (अग्निम्) अग्निसदृश सम्राट् की (सु, स्तुषे) सुन्दर रीति से स्तुति करें, जो योद्धा लोग (वज्रहस्तैः) हाथ में वज्रसदृश शस्त्र तथा (हिरण्यवाशीभिः) सुवर्णमय यष्टि वा शस्त्रिकाओं को लिये हुए हैं ॥३२॥
भावार्थ
जिस सम्राट् के उक्त आपत्काल में भी त्याग न करनेवाले आज्ञाकारी योद्धा हैं, वह सदैव सूर्य्य के समान देदीप्यमान रहता है अर्थात् उसके राज्यश्रीरूप प्रकाश को कदापि कोई दबा वा छिपा नहीं सकता ॥३२॥
विषय
इन्द्रियों के वशीकरण का फल कहते हैं ।
पदार्थ
(कण्वासः) हे स्तुतिपाठक विद्वज्जनो ! (वज्रहस्तैः) जो महादण्डधारी और (हिरण्यवाशीभिः) सुवर्णमयी वाशीसहित (मरुतैः) मरुद्गण अर्थात् प्राणगण हैं, उनके (सह+उ+सु) साथ ही विद्यमान (अग्निम्) परमात्मा या जीवात्मा की (स्तुषे) जैसे मैं स्तुति करता हूँ, आप लोग भी वैसा करें ॥३२ ॥
भावार्थ
जब समाधि आदि योगाभ्यास से ये इन्द्रियगण विषय से निवृत्त होकर ईश्वराभिमुख होते हैं, तब इनके निकट कोई पाप नहीं आते । उस समय कहा जाता है कि मानो ये इन्द्रियगण अपनी रक्षा के लिये हाथों में महादण्ड रखते हैं और देदीप्यमान वाशी (वसूला) से युक्त रहते हैं । इस अवस्था में प्राप्त आत्मा की स्तुति उपासक करते हैं ॥३२ ॥
विषय
उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( कण्वासः ) विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (हिरण्य-वाशीभिः) लोह, सुवर्णादि के बने शस्त्रों से सजे वा हितरमणीय वाणी बोलने वाले ( वज्र-हस्तै: ) खड्ग और शस्त्र वर्जन करने वाले चर्म आदि हाथ में लिये उत्तम बलवीर्य सम्पन्न, ( मरुद्भिः ) वीरों और विद्वानों के (सह उ) सहित ( अग्निम् ) ज्ञानवान् अग्रणी नायक पुरुष का ( नः सुस्तुषे ) हमारे प्रति उत्तम रीति से कथन करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
वज्रहस्तैः हिरण्यवाशीभिः
पदार्थ
[१] (नः) = हमारे में (कण्वासः) = जो भी मेधावी पुरुष हैं, वे (अग्नि सु स्तुषे) = उस अग्रेणी प्रभु का उत्तमता से स्तवन करनेवाले होते हों। [२] इस स्तवन को वे (मरुद्भिः सह) = इन प्राणों के साथ ही करते हैं। प्राणसाधना करते हुए वे प्रभु-नामोच्चारण करते हैं। ये प्राण (वज्रहस्तैः) = क्रियाशीलतारूप वज्र को हाथ में लिये हुए हैं, तथा (हिरण्यवाशीभिः) = हितरमणीय ज्योतिर्मयी वाणीवाले हैं। प्राणसाधना के द्वारा शक्ति का वर्धन होकर यह साधक क्रियाशील बनता है तथा ज्ञानाग्नि की दीप्ति से सदा हितरमणीय वाणी का ही उच्चारण करता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना के साथ हम प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त हों। इससे हमारे हाथ उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होंगे तथा वाणी सदा हितरमणीय वचनों का उच्चारण करनेवाली होगी।
इंग्लिश (1)
Meaning
O sages and scholars, I praise and celebrate Agni, fiery leader and enlightened ruler along with thunder-handed, golden-armed Maruts, stormy troopers of the nation. Let us all praise and celebrate them.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या सम्राटाचे आपत्कालातही त्याग न करणारे आज्ञाकारी योद्धे असतात तो सदैव सूर्याप्रमाणे देदीप्यमान असतो. अर्थात त्याच्या राज्यश्रीरूपी प्रकाशाचे कोणी दमन करू शकत नाही किंवा लपवू शकत नाही ॥३२॥
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